डॉलर मजबूत या रुपया कमजोर !

डॉलर मजबूत या रुपया कमजोर के विमर्श में सबसे पहले यह जानना जरुरी है की रूपये का अवमूल्यन और रुपये के कमजोर होने में अंतर् है। अवमूल्यन किसी अन्य मुद्रा या मुद्राओं के समूह या मुद्रा मानक के सामने किसी देश के रूपये के मूल्य का जानबूझकर नीचे की ओर किया गया समायोजन है। जिन देशों में मुद्रा की एक स्थिर विनिमय दर या अर्ध-स्थिर विनिमय दर होती है, वे इस तरह की मौद्रिक नीति का इस्तेमाल करते हैं। इसे अक्सर आम लोगों द्वारा रूपये का मूल्यह्रास समझ लिया जाता है. अवमूल्यन स्वतंत्र नहीं होती इसका निर्णय बाजार नहीं किसी देश की सरकार लेती है। यह रूपये के कमजोर होने जिसे मुद्रा का मूल्यह्रास भी कहते हैं की तरह गैर-सरकारी गतिविधियों का परिणाम नहीं बकायदे सरकार द्वारा विचारित और निर्णीत होता है। वहीं मुद्रा का मूल्यह्रास एक मुद्रा के मूल्य में उसकी विनिमय दर बनाम अन्य मुद्राओं के संदर्भ में गिरावट को संदर्भित करता है। मुद्रा का मूल्यह्रास चूंकि बाजार आधारित होता है इसलिए यह बुनियादी आर्थिक बातों, आयात निर्यात और चालू खाता, ब्याज दर के अंतर, मुद्रा स्फीति, विदेशी मुद्रा का भंडार और प्रवाह राजनीतिक अस्थिरता, या निवेशकों के बीच जोखिम से बचने जैसे कारकों के कारण हो सकता है। जिन देशों की आर्थिक बुनियादी कमजोर होती है , पुराना चालू खाता घाटा चला आ रहा होता है या मुद्रास्फीति की उच्च दर होती है उन देशों की मुद्राओं में आम तौर पर मूल्यह्रास होता रहता है। भारत में एक दशक में पहली बार, अमेरिकी डॉलर 2022 की पहली छमाही में अपने उच्चतम मूल्य पर पहुंच गया और उसके मुकाबले रूपये का मूल्य गिर एक डॉलर के मुकाबले 82 रूपये तक पहुंच गया। कोरोना के बाद संभल रहे थे तभी यूक्रेन युद्ध , कच्चे तेल की कीमतें बढ़ी, ग्लोबल मंदी की आहट आने लगी अमेरिका के फेडरल बैंक ने ब्याज दर बढ़ाना शुरू किया, विदेशी निवेशक पैसा डॉलर सम्पत्तियों में ब्याज दर बढ़ने से उसके रिटर्न रेट बढ़ने के कारण पैसा भारत से निकाल वहां लगाने लगे तो अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये कमजोर होता चला गया। देश पहले से ही उच्च मुद्रास्फीति से जूझ रहा था, अब रुपये की यह गिरावट भी परेशान कर रही है हालांकि इसमें अपना उतना दोष नहीं है। इसीलिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो कहा, "रूस-यूक्रेन युद्ध, कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय स्थितियों के सख्त होने जैसे वैश्विक कारक डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने के प्रमुख कारण हैं तथा "ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन और यूरो जैसी वैश्विक मुद्राएं भारतीय रुपये की तुलना में अधिक कमजोर हुई हैं, जिसका मतलब की भारतीय रुपया 2022 में इन मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हुआ है" ठीक ही कहा. उनकी बात सही भी है भारत में जो डॉलर के मुकाबले रुपया गिर रहा है यह रूपये का अवमूल्यन नहीं यह सापेक्षिक गिरावट है जिसे रूपये का मूल्य ह्रास कहते हैं यह मुद्रा बाजार की परिस्थितियों के कारण बना है. इस बाजार में ऐसा नहीं है की रुपया कमजोर हो गया तो गिर गया, यह तो दुनिया की करेंसी में से एक करेंसी के ज्यादा मजबूत होने के कारण बाकी सब अपने आप कमजोर हो जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे आप किसी दौड़ प्रतियोगिता में आप अपना सर्वश्रेष्ठ करते हैं लेकिन दूसरे देश का धावक तेज दौड़ता है तो विजेता वही कहलाता है, यही हाल अमेरिकी डॉलर का हो गया है, वैश्विक परिस्थितियां ऐसी हो गईं जिसमें उसकी दौड़ आसान हो गई और वह आगे निकल रहा है और बाकी मुद्राएं अपना सर्वश्रेष्ठ लिए हुए भी उससे पीछे हैं, चूंकि आज के दौर में वही तुलनीय मानक मुद्रा है ना कि कोई अन्य तो सबको अपनी मुद्राएं गिरती दिख रहीं हैं. भारत की मुद्रा का सापेक्षिक गिरावट तो कई देशों की गिरावट से कम है. हर देश अपने देश की विशिष्ट आर्थिक परिस्थिति होती है उसकी खुद की बुनियादी आर्थिक विशेषता होती है , ब्याज दर होता है, राजनीतिक स्थिरता अस्थिरता होती है, निवेशकों के जोखिम के विशिष्ट कारक होते हैं ऐसे में इन देशों का मूल्य ह्रास उनके अपने इस विशिष्टता के कारण अलग अलग हो रहा है इसीलिए इस मुद्रा के उथल पुथल में भारत का रुपया भले ही डॉलर के मुकाबले कमजोर दिख रहा हो लेकिन अन्य देशों के स्वतंत्र मूल्य ह्रास के कारण उनके सापेक्ष मजबूत भी हुआ है. इसलिए यह केवल गिरावट नहीं है रुपया कई देशों के मुकाबले मजबूत भी हुआ है जैसा की वित्त मंत्री ने अपने भाषण में जिक्र किया. इसलिए इसे सिर्फ एक कोण से नहीं देखा जा सकता, बहुआयामी दृष्टिकोण लगाना पड़ेगा. आर्थिक नियम के अनुसार डॉलर की मजबूती मांग आपूर्ति पर आधारित है और जब कोई देश अपने निर्यात से अधिक आयात करता है, तो डॉलर की मांग आपूर्ति से अधिक होगी और भारत में रुपया जैसी घरेलू मुद्रा डॉलर के मुकाबले कम हो जाएगी. चूंकि अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का मूल्य मांग और आपूर्ति कारक पर काम करता है। जिस क्षण अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ती है, रुपये का मूल्य अपने आप कम हो जाता है। जैसे-जैसे विदेशी मुद्रा भारत से बाहर जाता है, रुपया-डॉलर की विनिमय दर प्रभावित होती है. इस तरह का मूल्यह्रास तेल गैस और कच्चे माल की पहले से ही बढ़ी आयात कीमतों पर काफी दबाव डालता है, उच्च खुदरा मुद्रास्फीति के अलावा उच्च आयातित मुद्रास्फीति और उत्पादन लागत में भी वृद्धि करता है। भारत जैसा विकासशील देश ज्यादातर तेल, गैस, धातु, इलेक्ट्रॉनिक्स, हैवी मशीनरी, प्लास्टिक आदि के मामले में आयात पर निर्भर करता है और इसका भुगतान अमेरिकी डॉलर में करता है। रुपये के मूल्य में गिरावट के साथ, देश को पहले की तुलना में उसी वस्तु के लिए उसी डालर मूल्य के मुकाबले अधिक भुगतान करना पड़ता है। इस घटना से कच्चे माल और उत्पादन लागत में वृद्धि होगी जो अंततः ग्राहकों पर ही मार पड़ेगी। आयात से लिंक हर चीजें प्रभावित होंगी। हालांकि कमजोर घरेलू मुद्रा निर्यात को बढ़ावा देती है क्यूंकि विदेशी खरीदार की उसी डॉलर में क्रय शक्ति बढ़ जाती है लेकिन कमजोर वैश्विक मांग और लगातार अस्थिरता के मौजूदा परिदृश्य में इसका लाभ भारत को मिलता नहीं दिख रहा है। इस बीच देश के विदेशी मुद्रा भंडार में भी गिरावट आई है, देश का व्यापार घाटा भी बढ़ा है. रुपये को संभालने के लिए आरबीआई ने खुले मार्केट में डॉलर की बिक्री भी की है, लेकिन अभी तक इसका कोई खास असर दिख नहीं रहा है. सरकार इसे वैश्विक कारक बोलकर पल्ला नहीं झाड़ सकती या डॉलर बेच या ब्याज दर बढ़ा मुकाबला नहीं कर सकती क्यूंकि अन्ततः यह ऋण भी महंगा कर देता है । यदि अपना घर मजबूत होता तो ऐसी डॉलर की मजबूती की आंधियां हमारे रूपये को प्रभावित नहीं कर पाती। यदि हम आयात को कम कर दें यहां तक की निर्यात ज्यादा हो जाए या दोनों आसपास हो जाएं, पेट्रोल और गैस पर निर्भरता कम कर इलेक्ट्रिक, एथेनॉल, ग्रीन हाइड्रोजन, सौर और परमाणु ऊर्जा के प्रयोग से अपना तेल और गैस बिल को कम कर दें , आत्मनिर्भर भारत मेक इन इंडिया पर तेजी से काम करें, डॉलर का ऑउटफ्लो कम कर इनफ्लो पर काम करें, देशों को रूपये या अन्य मजबूत मुद्राओं में सौदे सेटलमेंट की बात करें तभी जाकर हम अमेरिकी डॉलर को विश्व बाजार में नियंत्रित कर सकते हैं, नहीं तो वैश्विक मान्य करेंसी के रूप में उसकी मांग हमेशा बनी रहेगी और बेहतर करने के बावजूद भी किसी अन्य कारण से उसकी मांग बढ़ गयी तो हमारी सारी मेहनत धरी की धरी रह जायेगी और रुपया गिर जायेगा। इसलिए सरकारों को डॉलर को एकाधिकार मुद्रा से बाहर लाना होगा.

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