कार्बन क्रेडिट और सनातन अर्थशास्त्र

पूरी दुनिया लौटकर ESG ( Environment Social and Governance ) या SDG ( Sustainable Development Goal ) लक्ष्य पर आ रही है. लेकिन पश्चिम यह मानने को तैयार नहीं है की इसके पीछे सनातन अर्थशास्त्र का सिद्धांत काम कर रहा है, जिसमे विकास का सर्वोत्तम बिंदु भी परिभाषित है. जिसे आप मेरे द्वारा लिखित "सनातन अर्थशास्त्र" किताब में पढ़ सकते हैं जो अमेजन फ्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध है. आज भी बहुधा अर्थशास्त्री पश्चिम के संसाधन आधारित अवधारणा पर चलते हैं जिसमें संसाधनों का अध्ययन, वितरण और प्रबंधन शामिल होता है. अर्थशास्त्र के विज्ञान पर वह नहीं जाते है जिसे मैं सनातन अर्थशास्त्र कहता हूं , जो स्वयं उपस्थित है. इसलिये विज्ञान में आप री-सर्च शब्द सुनते होंगे। हम अर्थशाष्त्र में हर चीज का खोज नहीं पुनर्खोज कर रहें हैं वह वैल्यू तो है ही हमारी ही दृष्टि नहीं जा पाती है . संसाधन सीमित नहीं असीमित है, केवल उनकी उपयोगिता छुपी हुई है जिसे हम अपने एक्शन से अनलॉक कर रहें हैं. सनातन अर्थशास्त्र यही तो कहता है की चीजें स्थैतिक रूप से हैं उसके गतिमान बनने की प्रक्रिया ही तो अर्थशास्त्र की यात्रा है जो उसमें मूल्य को अनलॉक कर रही है. आज मैं कार्बन क्रेडिट के माध्यम से सनातन अर्थशास्त्र के इस अनुप्रयोग को समझाता हूं. । जब ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण की समस्या दुनिया भर में बढ़ने लगी तो इसका समाधान सनातन अर्थशास्त्र के सूत्र में ही मिला जो है छुपे हुये मूल्य को ढूंढना तो. क्योटो प्रोटोकाल से लेकर पेरिस और ग्लास्गो सम्मेलन तक जितने दौर में कार्बन क्रेडिट को लेकर जितने भी प्रस्ताव हुए हैं सब ने सनातन अर्थशाष्त्र के नियमों का पालन किया है. यह आपको जानकर थोड़ा आश्चर्य लगेगा की पर्यावरण को साफ़ या गंदा करने की गतिविधि भी मौद्रिक मूल्य से लिंक कर संपत्ति के रूप में परिभाषित की जा सकती है. तीन दशक पहले कोई सोच नहीं सकता था की यह वैल्यू भी इस ब्रह्मांड में छिपी है. अभी तो वीणा के कई धुन और शब्दों से मूल्यवान साहित्य का निर्माण होना है. कार्बन क्रेडिट की संपत्ति के रूप में पहचान तो बस एक शुरुआत है. जानते हैं की कार्बन क्रेडिट और इसका बाजार क्या है. कार्बन क्रेडिट, जिसे कार्बन ऑफ़सेट के रूप में भी जाना जाता है, ऐसा परमिटनुमा संपत्ति है जो निश्चित मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों को उत्सर्जित करने की अनुमति देता है। कोई देश या इंडस्ट्री एक 'तय लिमिट' से ज्यादा कार्बन डाई-ऑक्साइड या उसके ही बराबर किसी दूसरी ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन नहीं कर सकते. एक कार्बन क्रेडिट बराबर रखा गया एक टन कार्बन डाई-ऑक्साइड या किसी दूसरी ग्रीन हाउस गैस के. इस प्रकार यदि आपके पास एक कार्बन क्रेडिट है तो यह एक टन कार्बन डाइऑक्साइड या ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की अनुमति देता है। चूंकि औद्योगीकरण एक सच्चाई है और इसे एकदम से रोका नहीं जा सकता इसीलिये क्योटो प्रोटोकॉल के माध्यम से ज्यादातर विकसित एवं विकासशील देशों ने ग्रीन हाउस गैसों जैसे आजोन, कार्बन डाईआक्साईड, नाईट्रस आक्साइड आदि के उत्सर्जन स्तर को कम करने की बात की थी । और इसके लिए एक तंत्र भी विकसित किया था जो इन उत्सर्जन को नियंत्रित कर सके और कार्बन क्रेडिट की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया। कार्बन क्रेडिट कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने का ऐसा औजार है जिसे प्रोत्साहित करने के लिए इसे धन से जोड़ दिया गया । भारत और चीन सहित कुछ अन्य एशियाई देश कार्बन क्रेडिट के मामले में धनी हैं। इस कार्बन क्रेडिट से कमाने हेतु कई लोग अब कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीक को अपना रहे हैं । कार्बन क्रेडिट मार्किट में कैप एंड ट्रेड शब्द बहुत प्रचलित है मतलब उत्सर्जन एक तय सीमा (कैप) निर्धारित करना और इसके विचलन के आधार पर इसका मौद्रिकीकरण करना. इसके तहत सरकार उद्यम के लिए कार्बन या ग्रीन हाउस उत्सर्जन के लिए एक सीमा निश्चित करती है जिसे उन्हें मेंटेन करना होता है. ऐसे में कुछ कंपनियां होंगी जो लिमिट से भी कम कार्बन उत्सर्जन करती हैं तो कोई उससे ज्यादा उत्सर्जित करती हैं। यहां जिसने तय कोटे से कम उत्सर्जन किया है उसके लिये बचा हुआ परमिट कोटा एक संपत्ति सरीखा हो जाता है जो वह उन कंपनियों को बेच सकता है जिन्होंने तय सीमा से अधिक उत्सर्जन कर दिया है. ऐसी अधिक उत्सर्जन करने वाली कंपनियां जब तक अपने उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त नहीं करती हैं उन्हें इसी तरह से दूसरी कंपनियों से कार्बन क्रेडिट को अतिरिक्त लागत देकर लक्ष्य को प्राप्त करती हैं. इस तरह से पैदा किये गये कार्बन क्रेडिट दो कंपनियों के बीच अदले बदले भी जा सकते हैं व इन्हें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बेचा भी जा सकता है. कार्बन क्रेडिटस पर कार्बन उत्सर्जन योजनाओं के लिए कर्ज पर भी लिया जा सकता है । बहुत सी ऐसी कंपनियां इन क्रेडिटस को बेचती हैं । इसे वह खरीदते हैं जो अपना कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित रख कर लाभ कमाना चाहते हैं । कार्बन क्रेडिट पैदा करने के दो कारक हैं पहला स्वैच्छिक बाजार जैसे नगरीय निकाय, रासायनिक संयत्र, तेल उत्पादन से जुड़ी संस्थाएं एवं वृक्षारोपण के लिए कार्य करने वाले लोगों के साथ-साथ ऐसी संस्थाएं जो कचरे का प्रबंधन करती हैं वे भी इसे अर्जित कर बेच सकती हैं । दूसरा कंप्लायंस मार्केट जहां परमिट में तय सीमा के अनुपालन के कारण कार्बन क्रेडिट खरीदने बेचने योग्य बन रहा है. पेरिस समझौते के तहत कई देशों ने उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य रखा था जिनमें यह जरुरी नहीं था कि उत्सर्जन में ही कमी ही की जाए. उनके लिए यह कार्बन बाज़ार एक बेहतर विकल्प बन गया है। समझौते के कारण यदि कोई विकसित देश अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों की प्राप्ति करने में असफल रहता है तो वह अपने धन या तकनीक के हस्तांतरण से विकासशील देशों ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी कर कार्बन क्रेडिट प्राप्त कर अपने द्वारा की गई उत्सर्जन में कटौती के रूप में इसे प्रस्तुत कर सकता है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं. एक देश को कार्बन उत्सर्जन की लिमिट 100 कार्बन क्रेडिट के बराबर यानी 100 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड की दी गई. अब वह 100 टन कार्बन डाई-ऑक्साइड या ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जित कर सकता है. लेकिन यदि किसी कारणवश इससे ज्यादा उत्सर्जन हो जाता है तो उसके पास दो विकल्प हैं. पहला की वह कुछ ऐसा कदम उठाये की उसका उत्सर्जन कम हो जाये जैसे वैकल्पिक ऊर्जा में शिफ्ट हो जाए या दूसरा विकल्प की कि वो दूसरे किसी देश में ऐसी कोई तकनीक विकिसत करे हस्तांतरित करे या प्रयोग करे या निवेश करे ताकि उस देश में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम हो जाए जैसे की उस देश में सोलर या विंड एनर्जी प्रोजेक्ट कर दे या वृक्षारोपण कर दे. यह वह देश या उस देश की कोई कंपनी भी कर सकती है. इस निवेश या प्रोजेक्ट के कारण उस देश में जितना टन कार्बन डाई-ऑक्साइड एमिशन कम होगा उतना कार्बन क्रेडिट प्रति टन एक क्रेडिट के हिसाब से उस देश या उस कंपनी को मिल जाएगा. इस कार्बन क्रेडिट कमाने के एवज में उसे कंपनी में या अपने देश में किसी दूसरे प्रोजेक्ट में उतना टन कार्बन ज्यादा उत्सर्जन करने का परमिट मिल जाता है. इसका इस्तेमाल वह आंतरिक तौर पर या इससे कमाने और ऐसे देशों या कंपनियों को बेचने के लिए कर सकती है जिन्हें इसकी ज़रूरत है. इसी को ही कार्बन-ट्रेडिंग कहते हैं. कार्बन बाज़ार के अंतर्गत कोई देश या कंपनी अपने द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के बदले एक प्रमाण-पत्र पाती है जिसे सर्टिफाइड उत्सर्जन कटौती (CER) या कार्बन क्रेडिट (Carbon Credit) कहा जाता है।भारत में यह एक उभरता बाजार है इंदौर की एक कंपनी ने इसमें बढ़त बना ली है और मीडिया में आई खबर के अनुसार दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन ने हाल ही में करीब 3.5 मिलियन कार्बन क्रेडिट्स की बिक्री से 19.5 करोड़ रुपये की कमाई की है. स्टार्ट अप के क्षेत्र में काम कर रहे लोग तथा पंचायतें भी इसे आय का जरिया बना सकती हैं.

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