भारत अब तक विकासशील क्यों?

भारत को आजाद हुए ७३ साल से ज्यादा हो गए लेकिन हो सकता है की अब तक यह प्रश्न आपको सालता हो की भारत अब तक विकासशील क्यों बना हुआ है? क्यों नहीं विकसित बन पाया? जबकि मानव संसाधन से लगायत प्राकृतिक संसाधनों के मामले में भारत अतुलनीय है, भारत के ही प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों का प्रयोग कर कई देश अभी विकसित बने हुए हैं, और हम अभी तक विकासशील. इसका चिंतन करने पर पायेंगे की इसके मोटा मोटी अग्रलिखित कारण हैं, पहला भारत विकास के उलटे ट्रैक पर दौड़ गया, दूसरा सिर्फ हिन्दू कोड बिल लाया गया मुस्लिम और इसाई कोड बिल नहीं लाया गया. आदरणीय नेहरु जी के भारत के प्रति स्वप्न और विकास के लिए किये गए प्रयास और निष्ठा में कहीं भी प्रश्नचिन्ह नहीं है, उनके द्वारा विकास के लिए की गई दौड़ सब सही है बस उन्होंने यह दौड़ उलटे ट्रैक पर धारा के विपरीत लगा दी. आपको भी मालूम है की एक व्यक्ति धारा की दिशा में तैर रहा हो और एक धारा के विपरीत तैर रहा हो तो कौन ज्यादे थकेगा और कौन मंजिल पर पहुंचेगा और कौन मंजिल से दूर होता चला जायेगा, बस यही हुआ भारत के साथ. पता नहीं नेहरु जी को किसने बता दिया था की जब देश में दो संख्याएं होती है एक बहुसंख्या और एक अल्पसंख्या तो यह प्रकृति का नियम है की बहुसंख्या सदैव अल्पसंख्या को खा जाएगी इसलिए बहुसंख्या पर लगाम नकेल और अंकुश रखो और अल्पसंख्या को नीतियों एवं व्यवहारों से दुलारो और पुचकारो. और बस इसी गणितीय सोच के शिकार हो गए नेहरु जी. नेहरु जी ने पहली गलती की कि उनका संगत वामपंथी मित्रों से ज्यादे हो गया जिससे उनके बगीचे के पेड़ की बांये तरफ की झुकाव की तरह उनका झुकाव भी वामपंथी विचारधारा की तरफ हो गया. मै वामपंथी विचारधारा को यहाँ ख़ारिज नहीं कर रहा हूँ लेकिन भारत के परिप्रेक्ष्य में वामपंथी विचारधारा अप्रासंगिक है, भारत एक धार्मिक और उत्सव धर्मी देश है वह धर्म उदासीन हो ही नहीं सकता. नेहरु जी जब हिन्दू कोड बिल लाये उस समय उन्हें धार्मिक कोड बिल लाना चाहिए और हर धर्म में जो भी सामाजिक बुराइयां थी और जो भी मानवीय मूल्यों और सहजीवन आस्तित्व के खिलाफ थी उसमें सुधार करना चाहिए था, हिन्दू कोड बिल के कारण हिन्दू धर्म के प्रैक्टिस में तो सुधार आया लेकिन मुस्लिम , इसाई एवं अन्य समाज इस सुधार की प्रक्रिया से वंचित रह गये जिस कारण आज भी आप पाएंगे की सच्चर कमेटी के रिपोर्ट के अनुसार मुसलमान आज भी शिक्षा और जीवन स्तर में पिछड़ गया. दूसरी गलती १९७५ में हुई जब संविधान में धर्मनिर्पेक्ष शब्द जोड़ा गया. धर्मनिर्पेक्ष का निर्पेक्ष अर्थ होता है किसी भी धर्म के प्रति शासन निर्पेक्ष रहेगा मतलब उदासीन रहेगा, जबकि भारत का मूल चरित्र धार्मिक और उत्सवधर्मी है और ऐसे में यदि भारत के मूल चरित्र के खिलाफ भारत की प्रस्तावना बनेगी तो आप कल्पना कर लीजिये की भारत की दौड़ का क्या हाल होगा यहीं से भारत ने उलटी धारा के खिलाफ़ चलना चालू जिस कारण से उसके विकास में हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी गतिरोध आने लगा और देश को विकास के पथ पार आगे ले जाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ रही है. भारत मूलतः सभी धर्मों के प्रति सम भावना रखने वाला देश है और वह किसी धर्म के प्रति उदासीन हो ही नहीं सकता यदि भारत हिन्दू धर्म के उत्सव दिवाली और होली और दशहरा को बड़े पैमाने पर मनाता है तो सरकार और देश की अवधारणा के तहत उसी स्तर पर मुसलमानों और ईसाईयों का भी उत्सव मनाया जा सकता है लेकिन वोट बैंक की राजनीती के चलते मुस्लिम नेताओं को समझा दिया गया की चूँकि सर्व धर्म की मांग आरएसएस ने की है इसलिए यह इस्लाम विरोधी है और एक बार यह हो गया तो देखिये उन्हें कुछ नहीं मिलता है अतः नियमों के अनुसार आपको भी कुछ नहीं मिलेगा. जबकि सोच यह होना चाहिए था की सर्व धर्म सम भाव होने पर जो जो उन्हें मिलेगा वह सब आपको मिलेगा और यह अधिकार संविधान सम्मत क़ानूनी अधिकार भी हो जायेगा. इस कारण यदि सरकार भव्य स्तर पर दिवाली और देवदीपावली का आयोजन करती है तो भव्य स्तर पर संविधान और कानून के तहत ईद भी मनाई जाएगी. भारत के संविधान शिल्पी डॉ बी आर अम्बेडकर दूरद्रष्टा थे और इसके परिणाम को जानते थे इसलिए उन्होंने संविधान के भीतर भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना को घोषित करने का विरोध किया था। संविधान सभा में 1946 में संविधान तैयार करने पर बहस के दौरान के.टी. शाह ने भारत को "धर्मनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी" राष्ट्र घोषित करने के लिए एक संशोधन का प्रस्ताव रखा। संशोधन के विरोध में, अंबेडकर ने कहा, "मेरी आपत्तियां, संक्षिप्त रूप से दो हैं। पहली जगह में संविधान राज्य के विभिन्न अंगों के काम को विनियमित करने के उद्देश्य से एक मैकेनिज्म है। यह ऐसा मैकेनिज्म नहीं है जहां सदस्य विशेष या दल विशेष को स्थापित किया जाता है। राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को अपने सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे व्यवस्थित किया जाना चाहिए यह ऐसे मामले हैं जो समय और परिस्थितियों के अनुसार लोगों द्वारा स्वयं तय किए जाने चाहिए। यह संविधान में खुद को निर्धारित नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट कर सकता है। यदि आप संविधान में कहते हैं कि राज्य का सामाजिक संगठन एक विशेष रूप लेगा, तो आप मेरे फैसले में स्वतंत्रता की स्वतंत्रता को ही ले लेंगे। देश के लोगों को यह तय करना है कि उन्हें किस सामाजिक संगठन में रहना चाहिए। यह आज पूरी तरह से संभव है, बहुसंख्यक लोगों के लिए समाज का समाजवादी चरित्र होना बजाये पूंजीवादी चरित्र के लेकिन यह भी हो सकता है की समय के प्रवाह में समाज का कोई और फॉर्म बेहतर हो, यह भी हो सकता है की लोग समाजवादी चरित्र से इतर के किसी अन्य रूप को विकसित करने की सोचें जो कि आज या कल के समाजवादी संगठन से बेहतर हो सकता है। इसलिए मैं यह नहीं चाहता कि क्यों संविधान द्वारा लोगों को एक विशेष रूप में रहने के लिए बाध्य किया जाए, इसे खुद लोगों के लिए छोड़ना चाहिए कि वे इसे खुद तय करें। यही यह एक कारण है कि इस संशोधन का विरोध किया जाना चाहिए। दरअसल भारत निर्माण के समय ही भारत के मूल चरित्र से खिलवाड़ हो गया, सर्व धर्म सम भाव की जगह धर्मनिर्पेक्ष हो गया, और अर्थ योजना उसी अनूरूप उलटी धारा के खिलाफ संघर्ष करने लगी नहीं तो अभी भी आप देखिये की देश में बिजनेस मार्च अप्रैल और सितम्बर अक्टूबर नवम्बर में ही ज्यादे रहती है क्यों की देश में वही समय उत्सवों का रहता है चाहे फसलों की कटाई के उत्सव हों या शादी के उत्सव हों या होली दिवाली दशहरा छठ और अन्य उत्सव हों, जिस देश का ढांचा और ताना बना उत्सवधर्मी हो उस धर्म का ढांचा आप धर्म उदासीन या धार्मिक उत्सव उदासीन बनायेंगे तो देश को विकास के लिए कड़ी मशक्कत करनी ही पड़ेगी.

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