एक डाटा एक टैक्स : आयकर एवं जीएसटी मर्ज हो


बजट २०२० का आने वाला है, पिछले लेख में आपने बजट के आर्थिक व सामाजिक पहलु को देखा इस लेख में बजट के राजस्व पहलू पे चर्चा होगी. पिछले साल आपने सुना होगा की एक कचौरी वाले के यहाँ टैक्स का छापा पड़ा और बिक्री ६० लाख पाई गई और वह जीएसटी में पंजीकृत था. ऐसे देश में बहुत लोग हैं जो सालों से व्यापार करते आ रहें हैं लेकिन उन्हें बदलते कानून की समयानुकूल जानकारी नहीं है, या क़ानून उनके अनुकूल नहीं बना है, सरकार कानून का अनुपालन तभी करा पायेगी जब वह लोक व्यवहार को ध्यान में रखकर बनाएगी.

मेरा ऐसा सुझाव है की सरकार ने तो अब जीएसटी आने के साथ ही व्यवसाय एवं पेशे की लगभग हर मद की HSN कोड निर्धारित कर दी है और उसके हिसाब से जीएसटी प्रतिशत भी निकाल ली है और इसे लगातार न्यायसंगत भी बना रही है, मतलब जरुरत की चीजों पर कम दर और विलासिता पर ज्यादे दर को लगातार रिव्यु कर रही है. दूसरी तरफ आयकर में अनुमानित लाभ की स्कीम है ही जो २ करोड़ की आय तक पर ८% को लाभ मानती है. यदि आयकर की प्रभावी औसत दर २५% ही माने तो इस ८% का प्रभावी टैक्स दर २% आएगा. यदि सरकार जीएसटी के साथ ही वस्तु एवं सेवा के व्यापारियों से प्रगतिशीलता के आधार पर आयकर भी प्रगतिशील दर के हिसाब से वसूल ले तो आयकर विभाग का काम ९०% कम हो जायेगा, उसका बोझ और उसकी साइज़ भी कम हो जाएगी, एक व्यापारी को जीएसटी और आयकर की अलग अलग स्क्रूटिनी भी नहीं झेलनी पड़ेगी, एक ही स्क्रूटिनी से दोनों का काम हो जायेगा, एक ही डाटा से आयकर और जीएसटी दोनों का काम हो जायेगा, आयकर विभाग फिर आय के अन्य हेड जैसे की कैपिटल गेन, अन्य आय, हाउस प्रॉपर्टी आदि पे फोकस रह सकता है, ऐसे प्रयोग से देश के व्यापारी वर्ग के लिए इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस हो सकता है और देश में व्यापारिक खुशहाली आ सकती है, जिसकी सबसे ज्यादे जरुरत है आज के डेट में. साथ ही वेतन वर्ग वाला चूँकि खरीदी के माध्यम से टैक्स दे ही रहा है तो वेतन वाले को आयकर विवरणी भरने से मुक्त कर देना चाहिए यदि उसकी वेतन के अलावा किसी अन्य मद से उनकी आय ना हो तो.

सरकार को B2B सौदों के लिए जीएसटी में भी शत प्रतिशत टीडीएस का प्रावधान लाना चाहिए और इनपुट टैक्स क्रेडिट को आटोमेटिक रिफंड में बदल देना चाहिए, इससे जीएसटी की चोरी और इनपुट टैक्स क्रेडिट की गड़बड़ी दोनों रूक जाएगी, व्यापारियों की वर्किंग कैपिटल और नॉन पेमेंट से होने वाली पेनाल्टी की समस्या भी खत्म हो जाएगी, क्यों की बहुत से जीएसटी इसलिए नहीं भुगतान हो पा रहें हैं, क्योंकी बिल देने के बाद पार्टियों से भुगतान काफी लेट आता है, उनकी देनदारी आज के डेट में बहुत बुरी तरह से फंसी हुई है, जबकि जीएसटी को अगले महीने भरना ही पड़ता है चाहे पैसा आये या ना आये, और सामने वाली पार्टियाँ तो इनपुट टैक्स क्रेडिट लेकर अपना कॅश फ्लो बचा लेती हैं लेकिन पार्टियों का भुगतान लेट आता है, अतः जीएसटी के भुगतान जिम्मेदारी टीडीएस के रूप में सप्लाई प्राप्त करने वाले व्यक्ति के ऊपर डाल दी जाती है तो जीएसटी भुगतान करना काफी आसान हो जायेगा, और सरकार का जीएसटी कर संग्रह बढ़ जायेगा .

आयकर की एक और विसंगति है, वह है छोटे कसबे से लेकर मुंबई तक आयकर का एक ही दर है और अपने और अपने परिवार के जीने और जीवनस्तर के जो खर्चे हैं जिसकी छूट आयकर में उसे निजी खर्च मानकर नहीं मिलती है, इस कारण से एक ही वेतन प्राप्त करने वाले दो स्टाफ अगर एक छोटे शहर में रहता हँ तो उसे पैसे बचते हैं जबकि बड़े शहर वाले स्टाफ को पैसे तो बचते ही नहीं हैं उलटे उसे ऋण लेकर किश्त भरना पड़ता है, अतः शहरों और जीवनस्तर के हिसाब से जोन बाँट के आयकर की अलग अलग दर होनी चाहिए ताकि बचत में कोई असमानता न आये, और इस आयकर की दर को जीएसटी के साथ ही वसूल लेना चाहिए.

आज मुंबई जैसे शहर में रहने वाला व्यक्ति १२ लाख रुपये सालाना कमाता है तो भी उसे कुछ नहीं बचता है और यदि दिल्ली में है तो १० लाख कमाने पर कुछ नहीं बचता है, निचलौल जैसे कसबे में है तो ६ लाख तक कमाता है तो कुछ नहीं बचता है, अतः जोन के हिसाब से आयकर की दर अलग अलग कर देनी चाहिए, टैक्स का स्लैब भी अलग अलग होनी चाहिए. मुंबई जैसे शहर में में टैक्स का स्लैब १२-२४-३६ की होनी चाहिए तथा दिल्ली जैसे शहरों के लिए १०-२०-३० होनी चाहिए. कस्बों के लिए यह स्लैब ५-१०-१५ की हो सकती है. कम से कम पहला स्लैब उतना तक माफ़ होना चाहिए जितना उसका बेसिक खर्च है सालाना.

कॉर्पोरेट वर्ग को एक बड़ा दर्द है उन्हें चौतरफा टैक्स की मार पड़ती है, वह अपने व्यापार पर जीएसटी देने के बाद जो लाभ कमाते हैं उसपर आयकर २५% से ३०% की दर कम्पनी की साइज़ के हिसाब से तो देते ही हैं,सेस और सरचार्ज देते हैं, कम्पनी से जब उसके शेयरहोल्डर पैसा निकालते हैं तो फिर २०.३६% लाभांश कर कम्पनी देती है और जब यह लाभांश कर लगने के बाद यह पैसा उनके हाथ में जाता है तो फिर इसे उनकी निजी आय मानकर इसपर आयकर भरना पड़ता है, मतलब एक ही आय पर तीन तीन जगह आयकर देना पड़ रहा है, इसी कारण से देश के कई लोग अब कम्पनी के अलावा साझेदारी फर्मों या प्रोपराइटरशिप की तरह लौट रहें हैं. सरकार ने निर्माण यूनिटों पर तो टैक्स की दर काफी आकर्षक कर दी है अब उसे लाभांश वितरण कर को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए. इससे कम्पनी बनाने की दर तेज होगी, अन्यथा लाभांश वितरण कर एवं अन्य फाइलिंग औपचारिकताओं के कारण लोग कम्पनी बनाने से पहले सोच रहें हैं. जीएसटी की मासिक/त्रैमासिक, वार्षिक, एवं अन्य फाइलिंग, टीडीएस की मासिक.त्रैमासिक फाइलिंग, आयकर की फाइलिंग तो है ही अब कम्पनी मंत्रालय ने भी अपनी फाइलिंग की औपचारिकता बढ़ा दी है और हर महीने कुछ न कुछ फॉर्म भरना ही पड़ता है जिससे अब कई लोग नई कम्पनी बनाने से या तो बच रहें हैं या पुरानी कम्पनियां बंद कर रहें हैं.

दूसरा टैक्स वालों का एक कष्ट और है की जीरो लेवल टैक्स पेमेंट की जानकारी का सिस्टम नहीं है, एक पंचायत से सभी तरह जीएसटी, आयकर, स्टाम्प एवं अन्य ड्यूटी मिला के कितना कर गया उन्हें नहीं पता और जब तक ऐसा सिस्टम बनता नहीं है सरकार को चाहिए की कुछ निश्चित प्रतिशत ऐसा हो जिसे करदाता अपने पसंद की पंचायत या सरकार की योजना में डायरेक्ट भर दे और उसे प्रॉपर टैक्स पेमेंट ही माना जाए.  वैसे भी टैक्स का पैसा ऊपर जाकर वापस पंचायत में ही आना है. इस विधि से पंचायत के तुरंत के जरुरी कार्यों की तुरंत फंडिंग हो जाएगी और लोग टैक्स पेमेंट में रुचि भी लेंगे.

जीएसटी के साथ सरकार ने दुर्घटना बीमा की शुरुवात की है यदि आयकर का जो भी विधि अपनाएं, लेकिन यदि  उसमें बीमा सेस जोड़कर करदाता का अनिवार्य बीमा भी सरकार कर देती तो टैक्स देने की रूचि बढ़ जाती और किसी मुश्किल स्थिति में इस अनिवार्य बीमा की वजह से सरकार के निजी खजाने की जगह बीमा कम्पनियों के फंड का इस्तेमाल हो सकता है.

टैक्स सुधारों के बीच जिस तरह से जेट एयरवेज बंद हो गया, एयर इंडिया संकट में है एयरलाइन विशेष के लिए अलग बैंकिंग प्रणाली सरकार को विकसित करना चाहिए, क्यों की इसकी प्रकृति अलग है. नई प्रणाली के शुरुवात से एयरलाइन कम्पनियों के वित्त एवं व्यवसाय का वैश्विक और पेशेवर प्रबंधन हो सकेगा और और इतने बड़े सेगमेंट में ऐसे झटके आने बंद हो जायेंगे, पारंपरिक बैंकिंग वित्तीय प्रणाली से इसे नहीं चलाया जा सकता है.

Comments