सहकारिता व्यवस्थित विकास का सूत्र


हिन्दुस्थान में उपरी तौर पर त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था है, केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार एवं लोकल बॉडी लेकिन अगर आप पश्चिम के राज्य गुजरात , महाराष्ट्र एवं दक्षिण के राज्य कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना एवं केरल का अध्ययन करेंगे तो आप पाएंगे की वहां चार स्तर की शासन व्यवस्था है केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार , लोकल बॉडी एवं सहकारी समितियां. और जहाँ यह चार स्तरीय व्यवस्था है वहां का विकास, जीवन स्तर, रहन सहन और नागरिक सुरक्षा का स्तर ऊँचा है. इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है और अंतर का बिंदु है वह यह है की पश्चिम एवं दक्षिण के राज्यों में सहकारिता का वहां के जनजीवन में समावेश होना. यहाँ हर चीज आपको व्यवस्थित और सुसज्जित मिलेगी, सामान्यतया लोग सहकारी व्यवस्था के नियमों को स्वीकारते और पालन करते हुए मिलेंगे और यदि कभी नियम भंग हो जाता है तो कानून भी सहकारी व्यवस्था के साथ मजबूती से लागू होता है. यहाँ चाहे घरों या कारखानों की बसावट हो, कृषि हो या फ्लैट की बिल्डिंग हो सबने अपनी अपनी एक सहकारी समिति बना ली है, प्रत्येक वर्ष इसके कमिटी का चुनाव होता है, देश और राज्य के संगत कानूनों से मेल खाता इनका कानून होता है और यह प्रति वर्ष चुनी गई कमिटी ही उस घर , कारखाने, खेत या फ्लैट की बसावट का पूरा रखरखाव एवं ख्याल रखती है जिससे बाकी सदस्य आराम से अपना कार्य एवं जीवन यापन कर सकें और चूँकि प्रतिवर्ष चुनाव होते हैं तो जिम्मेदारी भी एक एक कर बंटती जाती है.
एक उदाहरण देता हूँ, मुंबई की एक हाउसिंग सोसाइटी में एक बहुत बड़े आदमी रहते थे और उन्होंने अपने घर के अन्दर इंटीरियर डेकोरेशन कराते वक़्त कुछ ऐसा निर्माण करा लिया था जो कि सोसाइटी के नियमों से संगत नहीं था, सोसाइटी को यह बात पता चली, हालाँकि ऊपर से और बाहर से देखने से वह निर्माण पता नहीं चल रहा था. उनके इस कृत्य को सोसाइटी ने संज्ञान लिया और उन्हें नोटिस दिया, संस्था की एक विशेष साधारण सभा बुलाई और उसमें उनसे स्पष्टीकरण माँगा और जब सोसाइटी और उनके तर्कों के बीच सहमति नहीं बन पाई तो सोसाइटी ने बीएमसी और पुलिस में शिकायत कर दी, पुलिस और बीएमसी ने भी त्वरित कारवाई कर मामले का संज्ञान लिया और उनके निर्माण को अवैध घोषित किया और उन्हें वह अपना निर्माण तोड़ना पड़ा. यहाँ आप ध्यान दीजिये कोई विवाद या हिंसक घटना नहीं हुई, सबने संवाद और कानून के बताये गए तरीके से काम किया, सबने अपने अधिकारों का अपने जानने की सीमा तक इस्तेमाल किया और जब शासन व्यवस्था ने इसे अवैध घोषित किया तो उस बड़े आदमी ने इसे स्वीकार किया. और इन सब के बावजूद उस सोसाइटी में कभी भी लोगों और उनके बीच व्यक्तिगत अंह का विवाद नहीं हुआ और लोग आज भी समरस भाव में है.
दूसरा उदाहरण देता हूँ, एक बार मैं एक बस स्टॉप से गुजर रहा था देखा बस तो नहीं आई है लेकिन ऑटोमेटिक लोग लाइन में खड़े हो गए हैं, जब बस आई जितने चढ़ सकते थे उतने चढ़े और बाकी लाइन में ही खड़े रहे अगले बस के इंतज़ार में. और यह माहौल आपको दक्षिण एवं पश्चिम के राज्यों में प्रायः ही मिल जायेगा. पुलिस भी यहाँ लगभग सभ्य तरीके से ही व्यवहार करती है और मुंबई में तो पुलिस स्टेशन में शिकायत करने के लिए जाते वक़्त डर भी नहीं लगता है.
इसी दृश्य की कल्पना यदि आप यूपी एवं बिहार के परिप्रेक्ष्य में करें तो तीनो परिस्थितियों में आप उलट परिणाम पाएंगे. पहले केस की दशा में तो लाठी डंडे तक खिंच आयेंगे, दुसरे केस की दशा में हर आदमी बस में पहले चढ़ना चाहेगा और अफरातफरी मच जायेगा और पुलिस के कठोर रवैये के कारण लोग पुलिस स्टेशन में जाने से डरते हुए पाए जायेंगे. यहाँ तक की दिल्ली में भी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन बनाये गए हैं लेकिन वो भी सहकारिता के कसौटी पे फेल हैं और आपको दिल्ली की कॉलोनियों में बेतरतीब तरीके से पार्क किए गए कार मिल जायेंगे. दिल्ली में तो अब बहुमंजिला इमारतें मिल जाएँगी और लखनऊ में भी इसकी शुरुवात हो गई है लेकिन अभी भी यूपी बिहार दिल्ली जैसे राज्यों में आपको स्वतंत्र मकान बहुतायत में मिल जायेंगे. स्वतंत्र मकानों का आलम यह होता है कि उस घर की हर एक व्यवस्था उस घर के मालिक को करनी पड़ती है यहाँ तक की उस घर की सुरक्षा , काम पर जाते वक़्त उसके परिवार की सुरक्षा भी उसे भगवान भरोसे छोड़नी पड़ती है. स्वतंत्र मकानों की कोई सोसाइटी नहीं होती है अतः कूड़ा निस्तारण की कोई एकीकृत व्यवस्था नहीं है, आपको कूड़ा घरों के बाहर मिल जायेंगे, पंचायत एवं निगम उतने पेशेवर नहीं है जो की हर घर से इस कूड़े का निस्तारण कर पायें. नालियों में आपको पोलीथिन से लेकर हर कचरा फिंका हुआ मिल जायेगा. इसका नतीजा यह होता हँ की आदमी अव्यस्वथित माहौल में रहने लगता है और खुद को व्यवस्थित नहीं कर पाता है और समझ भी नहीं पाता है कि वह वहां अव्यवस्थित क्यूँ है जबकि कारण है कि सहकारिता का सफल मॉडल उसने देखा नहीं है और उसकी अनुपस्थिति से हो रहे नुकसान का आंकलन नहीं कर पाता है.
अगर यूपी बिहार को विकसित होना है तो वहां के लोगों को सहकारिता के मॉडल को अपने जीवन चर्या में अपने मानसिकता में और अपने कार्यक्षेत्र में उतारना पड़ेगा और स्वीकार करना पड़ेगा. तभी जाकर वह निश्चिंत हो पाएंगे, उनका परिवार सुरक्षित हो पायेगा और उनकी संताने सुव्यवस्था के प्रति आज्ञाकारी बन पाएंगी. एक बार मै यूपी के एक औद्योगिक क्षेत्र में गया, वहां की सड़कों, बिजली, नाली की हालत बहुत ख़राब थी, सड़क किनारे बड़े बड़े झाड़ दिख रहे थे, मैंने एक बड़े अधिकारी से इस बावत जिज्ञासा हेतु पूछा तो उनका जबाब था कि यहाँ कोई भी मेंटेनेंस भरना ही नहीं चाहता है और लोगों के मेंटेनेंस शुल्क कई सालों से बकाये हैं तो मेंटेनेंस कैसे हो पायेगा. बात भी सहीं है यदि समूह में रहने के लिए कोई व्यवस्थागत कानून बना है तो उसे सभी को पालन करना पड़ेगा, चुनिन्दा लोगों के पालन करने से तो यह व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी. आवास और व्यवसाय के अलावा यूपी बिहार में कृषि में भी स्वतंत्र खेतियाँ ही हैं, लोग छोटे छोटे जोत और बिखरे हुए अलग अलग जोत पर कार्य करते हैं जिससे लागत भी अधिक आती है और परिवहन से लगायत बाजार पे नियंत्रण भी नहीं रह पाता है और यदि इसकी जगह वह महाराष्ट्र की कृषि सहकारिता को अपना लें तो सहकारिता खेती के माध्यम से ना केवल उनकी कृषि लागत कम हो जाएगी वरन बाजार में एक बड़े आपूर्तिकर्ता के रूप में होने पर बाजार और मूल्य पर नियंत्रण रख पाने में सक्षम हो पाएंगे.

यूपी बिहार को अगर विकसित होना है तो आवास, व्यवसाय से लेकर कृषि तक में सहकारिता को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा और इसके लिए वहां की राज्य सरकारों को भी इस सकारिता को सशक्त करना पड़ेगा अन्यथा उन्हें विकास के लिए ज्यादे संघर्ष करना पड़ेगा.

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