टैक्स के बहाने उत्तर दक्षिण में देश नही बांटे

अभी हाल ही में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्र बाबू नायडू ने उप राष्ट्रवाद का कार्ड खेला और केंद्र सरकार द्वारा विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलने पर टैक्स के बहाने एक ऐसे आग को हवा दी जो उत्तर भारत और दक्षिण भारत में हिंदी के बाद दूसरी बड़ी विभाजनकारी विवाद का कारण हो सकता है. नायडू जैसे मंझे एवं बड़े राजनेता से उत्तर एवं दक्षिण को इस आधार पर बाँटेंगे ऐसी उम्मीद नहीं थी. उनका यह बयान राष्ट्र के अन्दर एक और राष्ट्र की अवधारणा को बढ़ावा देता है. टैक्स की पारदर्शिता रहनी चाहिए वो सही बात है लेकिन आरोप लगाने से पहले आधार को भी तो अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए. चन्द्र बाबू नायडू का कहना है की यह केंद्र एवं राज्य का पैसा है ऐसा मसला ही नहीं है, यह तो टैक्स पेयर का पैसा है और दक्षिणी राज्य के करदाता केंद्र में अधिकतम कर राजस्व का योगदान देते हैं लेकिन सरकार उस पैसे को उत्तरी राज्य के विकास में बदल रहे हैं. ऐसा मिलता जुलता आरोप कर्णाटक के सीएम सिद्धारमैया एवं तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव ने भी लगाया है. तेलंगाना से आई आवाज में कहा गया कि केंद्र ने 2016-17 के दौरान तेलंगाना से करों से 50,013 करोड़ रुपये कमाए, जबकि सभी योजनाओं के तहत केवल 24,561 करोड़ रुपये तेलंगाना को दिए  यह तेलंगाना ही है जिसने केंद्र को 25, 452 करोड़ अधिक रुपये दिए हैं।

ऐसी आवाज उठाने वाले यह वही चन्द्र बाबू नायडू हैं जो २००४ में विश्व प्रसिद्द थे जिन्होंने आंध्र प्रदेश के गांवों के विकास की कीमत पर हैदराबाद में ब्रिज एवं सडकों का जाल बिछा दिया था प्रसिद्धि इतनी की तत्कालीन अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन तक इनसे मिलना पसंद करते थे. लेकिन इन्होने भी तो वही काम किया जिसको यह आज मुद्दा बना रहें हैं , आंध्र प्रदेश में ग्रामीण एवं कस्बाई आबादी से मिलने वाले टैक्स से इन्होने हैदराबाद की सड़कें चमकाई नहीं तो वहां के किसान उस समय आत्महत्या नहीं करते.

दरअसल उत्तर का टैक्स और दक्षिण का टैक्स की चर्चा छेड़ के नायडू ने बेवजह आग लगाने वाले बहस को हवा दी है. दरअसल चन्द्र बाबू नायडू भी उसी ग़लतफ़हमी के शिकार हो गए हैं जिनमे हर शासक कहता है की टैक्स उसके वहां से गया है. दरअसल टैक्स तो अंतिम उपभोक्ता से ही वसूला जाता है जो सौदे की अंतिम कड़ी में सारे टैक्स को अदा करता है तो फिर उत्पादक राज्य थोड़े हुआ टैक्स पेयर के योगदान की गणना के लिए.

नायडू जिस कर तुलना का विषय उठा रहें हैं यह उसी दिन समाप्त हो जायेगा जिस दिन कर सुचना तंत्र GST के आने के बाद प्रभावी रूप से काम करने लगेगा. दरअसल ऐसे सवालों को जबाब देने के लिए नीतियाँ तो हैं लेकिन असल चुनौती कर नीतियां ही नहीं है, कर के डाटा और सूचना तंत्र हैं, इन त्रिस्तरीय सरकारी व्यवस्था मे आज तक यह तंत्र ही विकसित नहीं हो पाया है की उस स्थान विशेष के नागरिक हर तरह के कर को मिला के जो प्रत्यक्ष या खर्च के रूप मे देते हैं वह कितना देते हैं। आज के कर तंत्र मे आज एक ग्राम सभा, नगर पंचायत या महानगर हो उसके नागरिकों द्वारा दिये गए आय कर , GST , कस्टम कर और अन्य करों की गणना ही नहीं पता है वहां वित्तीय स्वतन्त्रता, वित्तीय हक़ एवं वित्तीय पारदर्शिता कैसे संभव हो पायेगी।

भारत मे जीएसटी को लेकर पहली बार एक तरह का ढांचा तो बना है जिसमे उपभोक्ता आधारित आंकड़े आने की सम्भावना है लेकिन उस प्राइस में आयकर का कितना भाग वसूला जा रहा है अभी भी गणना नहीं किया जा सकता है. । भारत का कर सूचना तंत्र अभी तक ऐसा विकसित ही नहीं हुआ है जो यह बता दे की दक्षिण का उत्तर में और उत्तर का दक्षिण में कितना टैक्स यूज हुआ है । क्या आपको पता है जो साबुन आप महाराष्ट्र के सुदूर कस्बे मानगांव या कन्याकुमारी मे 20 रुपये मे खरीदते हैं उसकी 20 रुपये के मूल्य मे मानगाँव या कन्याकुमारी का वह नागरिक कस्टम, GST उत्पादन पे लगने वाले करों के साथ उसपे लगने वाले आयकर एवं उत्पादक का लाभ भी उसी मूल्य के माध्यम से चुकाता है उत्पादक तो अपना लाभ एवं आयकर अलग से तो चार्ज करता ही नहीं है वह तो वस्तु के मूल्य के माध्यम से ही निकालता है ऐसे आधार पर तो असली टैक्स तो भरता है उपभोक्ता और उसका राज्य जहाँ उपभोग हुआ है उत्पादक राज्य तो अपना पूरा वसूल ही लेता है। इस उदाहरण में स्थानीय राज्य महाराष्ट्र  या केरल के करों को छोड़ दें तो उस लक्स की 20 रुपये की खरीद मे केन्द्रीय सरकार और आंध्र सरकार को दिये जाने वाले कर का भी कुछ रूपया होगा वह रूपया भी वही स्थानीय उपभोक्ता ही चुकाता है। और चन्द्र बाबू नायडू तो एक बड़े हाई टेक नेता के अलावा कई टर्म तक मुख्यमंत्री भी रहें हैं उन्हें यह गणना तो पता ही होना चाहिए.

दूसरा उत्तर और दक्षिण का यह बहस ही नहीं शुरू करना चाहिए. कल को उत्तर के राज्य भी तो यह प्रश्न करेंगे कि आज़ाद तो हुए एक साथ लेकिन सरकारों ने दक्षिण का विकास ज्यादे किया उत्तर के वसूले टैक्स से तभी तो आज दक्षिण विकसित है और उत्तर विकासशील. दरअसल उत्तर भारत और दक्षिण भारत एक दुसरे के पूरक हैं एक बाजार हँ तो दूसरा उत्पादक है बाजार न हो तो उत्पादन नहीं होगा. दोनों एक दुसरे की जरुरत हैं और अखंड भारत के मजबूत दो हाथ अब यह कह देना की जो बांया हाथ करता है वो दांया हाथ क्यूँ नहीं करता है या जो दांया हाथ करता है वो बांया हाथ नहीं करता है यह तो बचकानी हरकत ही कही जायेगी. आशा है दक्षिण के ऐसे नेता इस भावना को समझेंगे और इस तरह की भावना भड़काने से बाज आयेंगे जो भारत में एक और विभाजनकारी रेखा खींचती हो. आप विशेष राज्य का दर्जा मांगिये, तर्क रखिये जब आप खुद ही कह रहें हैं कि आप इतना टैक्स देते हैं आप इतने विकसित हैं तो विशेष राज्य के दर्जे की आपको जरुरत ही क्या है. अपनी मांगों को पहले तर्कों की कसौटी पे कस लीजिये तब पब्लिक डोमेन में आवाज उठाइए. अगर आप सिर्फ आन्ध्र प्रदेश की बात किये होते तो ठीक था लेकिन आपने तो सम्पूर्ण दक्षिण की बात कर दी जहाँ कर्णाटक एवं तमिलनाडु जैसे विकसित राज्य आलरेडी हैं. आन्ध्र प्रदेश की बात तो समझ में आती है नया राज्य बना है उसके कई संसाधन बंटवारे में तेलंगाना में चले गए हैं यहाँ तक वह हैदराबाद जिसे चंद्रबाबू ने सपनों की तरह सजाया था. लेकिन सम्पूर्ण दक्षिण को इस विवाद में घसीटना भारत के संघवाद के भविष्य के हिसाब से उचित नहीं माना जायेगा.
अभी इनका मसला तो था ही तमिलनाडु से स्टालिन ने दक्षिण के ५ राज्यों को मिलाकर द्रविड़नाडु की मांग कर दी जो भारत के संघवाद एवं राष्ट्रवाद के भविष्य के हिसाब से बहुत ही खतरनाक मांग है जिसकी परिणिति उप राष्ट्रवाद से होते हुए द्विराष्ट्रवाद तक जा सकती है. इसके साथ कर्णाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायत समाज को अलग धर्म मानते हुए इसे हिन्दू धर्म से अलग धर्म की मान्यता दे दी. यह सब कुल मिलाकर दक्षिण के अलगाववाद की हद तक भी जा सकते हैं . कुल मिलाकर संघ भारत के लिए यह अच्छा संकेत नही है। सरकार पार्टियां एवं अन्य स्टडी संगठनों को इस पर और संघवाद पर तुरंत चर्चा एवं अध्ययन कर इस इशू को समय रहते एड्रेस करना चाहिए.

Comments

Unknown said…
बहुत सटीक लिखा आपने