धर्म अफीम नहीं है

धर्म अफीम नहीं है

अभी हाल मे ही पुणे मे नरेंद्र दाभोलकर जी की हत्या, अयोध्या मे विश्व हिन्दू परिषद द्वारा चुनाव से पहले वर्जित समय मे प्रस्तावित चौरासी कोस यात्रा, बिहार के हुवी दुखद घटना जिसमे शिवभक्तों की मृत्यु हुवी थी जिसमे कुछ उत्साही वामपंथी मित्रों ने भक्त भाव और ईश्वर को ही दोषी ठहरा दिया था वनिस्पत रेल्वे और स्थानीय प्रशासन की खामियों के। इन सब बातों को देखते हौवे यह आवश्यक है की धर्म के मूल को जानें, आज के समय मे दबाब के रूप मे दो ग्रुप मौजूद है एक जो धर्म का इस्तेमाल कर अर्थ और राजनीति मे फायदा उठाना चाहता है और दूसरा वो जो धर्म की बुराई कर के अपने को घोर तार्किक आदर्शवादी और वामपंथी होने मे लगा हुआ है और धर्म को अफीम घोषित करने मे लगा हुआ है । अतः आवश्यक है धर्म के मर्म को जाने। आइये बहस करते है धर्म को कैसे समझें।

गंगा अपने आप मे प्रदूषित नहीं।
गंगा को आप कानपुर और गंगोत्री दोनों जगह देख सकते हैं। अगर कानपुर मे गंगा मैली है तो क्या ये गंगा का दोष है? गंगा को दोष देने वालों को गंगा का मूल देखना होगा जो की उसका उद्गम स्थान हैगंगोत्री इसका मतलब है की गंगा मे दोष नहीं है गंगा का प्रवाह जैसे जैसे आगे बढ़ता गया समय और स्थान के साथ गंदगियाँ उसमे मिला दी गयी जिससे गंगा का पानी प्रदूषित दिखने लगा गंगा अपने आप मे प्रदूषित नहीं।

नशेड़ी आप हैं।
अब आप बताइये अगर कोई सिर्फ गंगा को कानपुर मे ही देख के और कानपुर तक ही समझ के गंगा के बारे मे अपनी राय दे तो आप क्या कहेंगे? खैर आप से पहले मैं ही बता देता हूँ मैं तो उन्हे अल्पज्ञानी अतिउत्साही महामूर्ख कहूँगा। ठीक उसी प्रकार धर्म का मर्म और मूल बिना जाने , परम्परावों की स्थापना का मूल और मर्म बिना जाने वर्तमान मे दिख रही दोषयुक्त चीजों के आधार पे आप धर्म को अफीम कहेंगे तो नशेड़ी आप हैं। आपका दायित्व है गंगा को साफ करने का उसी तरह धर्म को भी साफ करने का, लेकिन धर्म को गाली देने का नहीं और अगर आप ऐसा कर रहें है तो धर्म की समझ आपको नहीं है।

धर्म मीमांसा की जरूरत है
हमारे स्थापित धर्मो मे काल के प्रवाह मे बहुत सी बीमारियाँ सत्ता, बाजार और लोभ के कारण समावेशित हो गयी और यह मानवीय स्वभाव मे पैदा हुवी बीमारी है धार्मिक बुराई नहीं है। धर्म के स्थापना मे जिसको जो जिम्मेवारी सौंपी गयी कालांतर मे उसने उसपे कब्जा जमा लिया अधिकारों को पुश्तैनी रूप दिया जाने लगा, अनावश्यक अर्थ पैदा करने वाले कर्मकांडो का जन्म हुआ। सत्ता को बरकरार रखने के लिए नए नए नियम गढ़ लिए गए जो की धर्म के स्थापना के समय सोचे नहीं गए थे। जरूरत है इसकी मीमांसा की।




मानव जीवन संहिता ही मूल धर्म है
हमारे धर्म चाहे वो हिन्दू सनातन हो , हिन्दू आर्य हो, इस्लाम हो, ईसाई हो, अगर आप सूक्ष्म विश्लेषण करें तो सबने मानव जीवन को व्यवस्थित करने का कार्य किया है। मनुष्य को मनुष्य होने का बोध कराने, उसे व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक रूप में जीने के लिए बनाई गयी नियम संहिता ही मूल धर्म है जो सभी धर्मों मे पायी जाति है। सभ्यता के आरंभिक चरणों मे ही धर्मों को मानव जीवन की दिनचर्या, जन्म पूर्व से ले के मृत्यु तक के विभिन्न पड़ावों मे इस तरह से रचाया बसाया गया ताकि मनुष्य एकरूप व्यवस्था के बंधन मे अपने जीवन काल को मूल्यवान बना सके। 

धार्मिक संस्कारों में आप पाएंगे की गर्भ धारण के समय से ही पैदा होने वाली संतानों का संस्कार शुरू हो जाता है जो उसके मृत्यु के पश्चात भी चलता है। ये संस्कार क्या हैं? पैदा होने वाली संतानों को पहले से ही पूर्वनिर्धारित जीवन प्रवाह या जिसे जीवन पद्धति कहते हैं, में ढाल देना, ताकि मानव समाज की ऊर्जा का बिखराव हो। इन धार्मिक संस्कारों की उत्पत्ति हुई प्रागैतिहासिक काल में जब मानव जाति पशुपालन से कृषि की तरफ मुड़ रही थी और वह समय उसे खुद को मनुष्य के रूप मे पहचानने का बोधकाल था जो उसे अहसास करा रही थी की कैसे वह अन्य जंतुओं से अलग हैा यही वो काल था जब मानव जाति ने मनुष्य बनने की प्रक्रिया शुरू की। इसी समय धर्म के निर्माण में सेक्स और परिवार निर्माण पर भी बहुत कार्य हुआ है। 

धर्म निर्माण और धर्मों की जीवन पद्धति ने हजारों सालों से मानव जाति को सुरक्षित एवं व्यवस्थित रखा है
धर्म निर्माण और धर्मों की जीवन पद्धति ने हजारों सालों से मानव जाति को सुरक्षित एवं व्यवस्थित रख कर ये सुनिश्चित किया है कि अगर बिखरी हुई ऊर्जा को योजनाबद्ध, मर्यादित एवं वैज्ञानिक तरीके से व्यवस्थित किया जाए, तो ऊर्जा को लंबा प्रवाह देते हुए उसका प्रयोग भी कर सकते हैं और उसका धनात्मक प्रयोग कर के मानव एवं गैर मानव समाज का भला भी कर सकते हैं। 

आज जो भी विज्ञान ने प्रगति की है वो इन मानवों के द्वारा की है और इन मानवों को व्यवस्थित एवं मर्यादित तरीके से हजारों सालों से जीवन की प्रक्रिया मे ढालते हुए जिंदा रूप मे कौन ला रहा है ? उस समय के धर्म ने। जीवन जीने की पद्धति, पारिवारिक पद्धति,सामाजिक पद्धति एवं राज्यवादी पद्धति का निर्माण नहीं किया होता तो क्या ये मानव समाज ऊर्जा युक्त जीवन प्रवाह मे पाता? क्या आज का मौजूदा सामाजिक परिवेश जिसमें मानव, परिवार, समाज, राष्ट्र, प्रकृति विकास कर रहा है, कर पाता? क्या मानव जाति 10000 वर्ष से भी ज्यादा का जीवन काल पा सकती थी। इस पूरे विकास को आधार देने का काम धर्मों ने किया हैा वो ऐसे कि मानव जीवन के क्रियाओं एवं प्रवृतियों का अध्ययन करके क्रियाकलापों का संयोजन किया है ताकि मानव जीवन परिणाम दे सके। 

मानव जीवन को मूल्यवान बनाने, उसे परिणामोन्मुख बनाने, स्वयं, परिवार और समाज के स्तर पे जीने की जिम्मेदारियों का बंटवारा, स्वयं,पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था सरंचना का निर्माण, यही तो धर्म का उद्देश्य है। 

ईश्वर की अवधारणा ने धर्मों को स्थापित होने में मजबूती प्रदान की
आजकल विभिन्न धर्म सभाओं और प्रवचनों में जो बातें बताई जाती हैं वो काफी सीमित बातें होती हैंा जो धर्म की उत्पत्ति के बाद या तो दृष्टांत के रूप मे विकसित हुई थीं या धर्म की प्रतिस्थापना के लिए उनका सहारा लिया गया थाा जैसे ईश्वरीय अस्तित्व की मानवरूप में रचना। यह सत्य है सभ्यता के शुरुआत में जब राजकीय व्यवस्था सम्पूर्ण रूप में स्थापित नहीं हुई मानव रूपी जंतुवों की सम्पूर्ण जैविक एवं दैनिक कार्यों के लिए निर्देश एवं अनिवार्यता का भाव वो कहाँ से स्थापित करते, निःसन्देह ईश्वर की अवधारणा ने धर्मों को स्थापित होने में मजबूती प्रदान की और उनकी उपयोगिता उसी रूप मे थी। 

समय के साथ सामाजिक व्यवस्था का रूप विकसित हुआ सामाजिक सरंचना पे काम हुआ, मानव जतियों का कर्मों के आधार पे वर्गीकरण हुआ और उन्हें विभिन्न प्रखण्ड कार्य प्रदान किए जो कालांतर में कर्म आधार से खून आधारित व्यवस्था में परिवर्तित हो गयाा जो अपने आप में हजारों साल से चली रही एक बुराई के रूप मे अभी भी जिंदा है, की पद एवं शक्ति अपने रास्ते खुद ही खोज लेते हैं और व्यवस्था बंटवारे में जिसने संतोष किया उसे पद एवं शक्ति प्रवाह कुचल देता है। कर्म आधारित सामाजिक सरंचना का खून आधारित सामाजिक सरंचना में परिवर्तन की शुरुआत ही धर्म क्षरण काल का समय है और तभी से मूल धर्मों की पहचान मूल धर्मों से हटकर ठेकेदारों ने उसे एक धार्मिक संगठन में परिवर्तन का कार्य किया  

धर्म सीमावों से परे है
वाकई में धर्म वही है जो तो भौगोलिक सीमा में बंधता है और तो धार्मिक संगठनों की सीमा मेंा धर्म तो वही है जो मनुष्य को बताता है कि उसे कैसे एक व्यक्ति के रूप में, कैसे एक परिवार के रूप में और कैसे एक समाज के रूप में जीना है। धर्म सभावों या धार्मिक प्रवचन कई बार दिग्भ्रम भी कर देते हैं क्योंकि वो धर्म को सम्पूर्ण रूप में बताकर सीमित रूप में बताते हैं और ऐसा व्यक्ति जिसकी शिक्षा सीमित है वो धर्म को उतना ही समझ लेता है जितना उसे बताया गया है और उसके आगे उसकी दृष्टि बढ़ ही नहीं पाती हैा सबको मालूम है कि धर्म का या किसी चीज का अधूरा ज्ञान कितना नुकसान पहुंचाता है

प्रेषक
सीए पंकज जायसवाल
+919819680011

pankaj@anpllp.com

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