अन्ना नहीं हैं अभी गांधी

अन्ना नहीं हैं अभी गांधी
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अगस्त 2011 मे शुरू हुये अनशन के साथ ही पूरे देश मे एक बहस चल पड़ी है कि देश को दूसरा गांधी मिल गया है। लेकिन मुझे लगता है इसे अभी कहना अति उत्साह मे कही गयी बात हो जाएगी। मैं इस बात को की अन्ना दूसरे गांधी हैं, को खबरों के विपणन कि अतिरेकता मानता हूँ , जो हर मुद्दों को अलंकरण देके अपना आवरण चढ़ाना चाहती है और दिशा भी, और खबरों के पूर्वनियोजित पटकथा कि तरह इसे आगे बढ़ाना चाहती है, आखिर वह भी तो ब्रांडिंग के दौर कि सहचर है।

मुझे लगता है गांधी का व्यक्तित्व इतना बड़ा है कि अब वो व्यक्ति रह ही नहीं गए, अब वो एक संस्था हैं, और किसी को उनका नाम देने से पहले, सर्वांगीण अध्ययन सामने वाले व्यक्ति का नहीं, गांधी का करना चाहिए, गांधी का व्यक्तित्व समुंदर कि तरह है, आप जितना डूबेंगे उतनी गहराई मे बोध भी पाएंगे।

मुझे व्यक्तिगत तौर पे लगता है कि गांधी से तुलना करने से पहले भारत मे किए गए आंदोलन के साथ उनकी दक्षिण अफ्रीका मे किए गए आंदोलन का अध्ययन भी करना चाहिए। भारत मे गांधी ने आंदोलन मूलतः अंगर्जों को भारत से हटाने के लिए किया था, जबकि दक्षिण अफ्रीका मे उनका आंदोलन दक्षिण अफ्रीका से अंग्रेज़ो को हटाने के वनिस्पत वहाँ के सिस्टम मे सुधार करने की थी। और गांधी ने अपना सत्य का प्रयोग भी वहीं से शुरू किया था। 
आज देश मे गांधी अध्ययन के नाम पे और गांधी ज्ञान के नाम पे ऐसी तमाम संस्थाएं या व्यक्ति मिल जाएंगे , लेकिन आश्चर्य है कि किसी ने अन्ना को गांधी का रूप बताने पे आपत्ति नहीं किया, शायद जनमानस के साथ उनमे भी व्यवस्था से निराशा ज्यादे थी और आशा की एक किरण को भी वो बुझने देना नहीं चाहते। 

मैं अन्ना के सच्चरित्र और निश्चल हृदय पे कदापि भी शंकालु नहीं हूँ, और उनके इस साहस के लिए बधाई भी देता हूँ, कि किसी ने तो पत्थर तबीयत से उछाला है। लेकिन मुझे उनकी तुलना गांधी से करने पे मुझे आपत्ति है। और मुझे ये भी लगता है कि अन्ना भी मुझसे सहमत होंगे। इसमे कोई शक नहीं कि माध्यम/साधन दोनों का अहिंसा था लेकिन साध्य दोनों के अलग। पैनी दृष्टि से हमें उनके दक्षिण अफ्रीका मे किए गए आंदोलनों का अध्ययन करना चाहिए जहां वो पूरा ज़ोर व्यवस्था के खिलाफ ही लगाए थे क्यों कि अंतर बहुत बारीक है।

गांधी हृदय परिवर्तन के लिए आंदोलन करते थे वहीं अन्ना दवाब के लिए
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गांधी जहां सामने वाले का हृदय परिवर्तन के लिए आंदोलन करते थे वहीं अन्ना दवाब के लिए। ये अंतर मामूली अंतर नहीं है बल्कि ये मूल अंतर है।गांधी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करते हुये भी राजनिष्ठा से स्वाभाविक प्रेम किया करते थे और दक्षिण अफ्रीका मे उन्होने गॉड सेव द किंगबिना किसी आडंबर के गाये थे। गांधी ने कभी व्यक्ति से शत्रुता नहीं रक्खी वरन वो तो सामने वाले व्यक्ति के हृदय से बुराई निकालने मे ही लगे रहते थे। 

दक्षिण अफ्रीका मे एक चर्चा के दौरान डॉ बूथ से उन्होने कहा था शत्रु कहलाने वाले लोग दगा ही करेंगे यह कैसे मान लिया जाए? यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन्हे हमने अपना शत्रु माना वे बुरे ही होंगे। गांधी हमेशा अपने बयानों एवं कदमों का स्वतः आत्मपरीक्षण किया करते थे, और अगर उन्हे लगता था कि उनका कदम या बयान गलत संदर्भ मे जा रहा है तो आगे बढ़कर स्थिति को संभालते थे और कई बार तो सार्वजनिक माफी भी मांगते थे। 

आंदोलन को स्थगित एवं बंद करने का भी साहस उनमे था अगर उन्हे लगता था कि इस आंदोलन के लिए आत्मसुधार पहले जरूरी है। अन्ना के आंदोलन मे ये कई बार ऐसा लगा कि जिससे उनकी टीम बात कर रही है उसके प्रति उनके मन मे उतना विश्वास नही था। और उन्हे उनके द्वारा ठगे जाने का भय हमेशा सताता रहता था। जबकि गांधी खुले मन से , आत्मविश्वास से ईश्वर एवं सत्य कि शक्ति पे विश्वास करते हुये सामने वाले का हृदय परिवर्तन करना चाहते थे। उनके सिद्धांतों से ऐसा लगता था कि किसी पे दवाब डालना हिंसा का ही एक रूप है। इसलिए उनका अनशन अक्सर आत्मसुधार के लिए होता था वनिस्पत दवाब बनाने के और ये बारीकी हमे बहुत गहराई से गांधी के सत्य के प्रयोग का अध्ययन करने पे ही प्राप्त होगी । 

मुद्दो के प्रति गांधीजी का फोकस और टकराव से बचना
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गांधी की समझौता वृत्ती उन्हे उनके मंजिल कि तरफ जाने मे एक सीढ़ी एवं गति का बढ़ाने का काम करती थी। अपने सत्य एवं मंजिल कि राहों मे वो कभी भी ऐसी बातों को टकराव का मुद्दा नहीं बनाते थे जिससे की मूल विषय से उनका फोकस चेंज हो जाए। मुद्दो के प्रति अपने फोकस को वो किसी भी कीमत पे चेंज नहीं होना देने चाहते थे और दूरदृष्टि मे अपने विवेक एवं विश्लेषण का प्रयोग करते थे। 
गांधी का व्यक्तित्व जमीन को दृढ़ता से पकड़े हुये एक लचीले वृक्ष के समान था जिसको ये एहसास था कि उन्हे असंख्य राहगीरों को छाया देना है, अतः अकड़कर टूटने से ज्यादे वो वृक्ष कि जड़ कि दृढ़ता को बनाए रखते थे और अनावश्यक आंधीयों से टकराने मे वक़्त जाया नहीं करते थे।

और इसीलिए नेटाल के एक वकील सभा मे जब न्यायाधीश ने गांधी के प्रवेश का फैसला सुनाया और उन्हे पगड़ी उतारने को कहा तो गांधी स्वतः ही पगड़ी उतारने को राजी हो गए। हालांकि इसके पहले हुयी एक घटना मे उन्होने लाख दवाब के बाद पगड़ी उतारने से मना कर दिया था। उनका मानना था की न्यायालय मे कार्य करते वक़्त न्यायालय का नियम पालन करना चाहिए तथा पगड़ी पहनने की अनावश्यक दृढ़ता उन्हे उनके उद्देश्यों से भटका देगी । हालांकि उनके कई मित्र उनके इस समझौते वृत्ती से नाराज़ रहते थे लेकिन गांधी जड़ की दृढ़ता बनाए रखते हुये अपने तने एवं टहनियों को लचीला बनाए रखते थे। अन्ना के आंदोलन मे मैंने जड़ की दृढ़ता तो देखी लेकिन तने एवं टहनियों का लचीलापन गायब दिखा। 

गांधी जी प्रतिपक्षी को भी न्याय दिलाने मे विश्वास रखते थे
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तभी तो तत्कालीन कलकत्ता मे इंगलिशमैनके संपादक का विचार गांधीजी के प्रति ये था की गांधी मे अतिशयोक्ति का अभाव एवं कर्तव्यपरायणता थी। उनका मानना था की गांधी गोरों का पक्ष भी निष्पक्षता से रखते थे और वे ये विचार रखते थे की प्रतिपक्षी को न्याय दिला के ही न्याय को जल्दी पाया जा सकता है। अन्ना के आंदोलन मे प्रतिपक्षियों पे पूरा विश्वास नहीं दिखा और देश के राजनेताओं के प्रति शुरू से ही एकध्रुवीय विचार बना रहा। उनका एक संगठन मुंबई मे तो सारे नेताओं की सुरक्षा वापस लेने की मांग करता दिखा, उनके द्वारा सारे नेताओंका शब्द इस्तेमाल करने के बाद लगा की सिर्फ आंदोलन के लिए आवेग एवं जनभावनाओं के ध्रुवीकरण की बात रख के ही उन्होने आंदोलन की रचना मुंबई मे की और पूरा गहन एवं सम्पूर्ण विचार नहीं किया, अन्यथा उन्हे सारेशब्द की जगह अनावश्यकशब्द का इस्तेमाल विचार करना चाहिए था ।

गांधीजी एक व्यक्ति के प्रति वो दोनों भाव रखते थे।
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गांधी समूचे समुदाय या व्यक्ति से घृणा नहीं करते थे, बल्कि वो उनके दोषो से घृणा एवं गुणों से प्यार करते थे, एक व्यक्ति के प्रति वो दोनों भाव रखते थे। सामने वाला अंग्रेज़ है या हिंदुस्तानी इससे उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन शायद टीम अन्ना को पड़ता है, उन्हे ( टीम अन्ना ) को इससे दूर करना चाहिए अगर वास्तविक जीत चाहिए तो। 

डरबन की समुद्र यात्रा के दौरान जब समूचे जहाज को प्लेग के कारण सूतक घोषित कर के बन्दरगाह के पहले ही रोक लिया गया तो जहाज के कप्तान के एक प्रश्न पे जिसमे उन्हे गोरों द्वारा चोट पहुंचाने की बात कही गयी थी के जवाब मे गांधी ने कहा था- मुझे आशा है की उन्हे माफ कर देने की और उनपे मुकदमा न चलाने की हिम्मत ईश्वर मुझे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं है, उनके अज्ञान , संकुचित दृष्टि के लिए मुझे खेद होता है, मैं समझता हूँ की जो वो कर रहे हैं वह उचित है ऐसा वे शुद्ध भाव से मानते हैं, अतएव मेरे लिए रोष का कोई कारण नहीं है।

गांधी का आशय था की व्यक्ति कोई गलती अज्ञानता के कारण ही करता है। अतएव प्रयास उसकी
अज्ञानता दूर करने का किया जाना चाहिए न की उससे द्वेष करने का।
अन्ना सरकार के खिलाफ कई मौकों पे आवेशित दिखे लेकिन गांधी मे इसी आवेश की अनुपस्थिति थी। 

गांधीजी ने अपने लिए कोई दायरे नहीं बनाए
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गांधी का दृढ़ विश्वास था की व्यक्ति की आत्मा पवित्र होती है और जब उसे अपनी भूल का एहसास होगा तो वे शांत हो जाएंगे, अतएव वो किसी से भी दूरी बना के नहीं रखते थे। लेकिन यहाँ पे ऐसा प्रतीत होता था की टीम अन्ना शुरू से ही कुछ दायरे निश्चित कर लिए थे। जबकि गांधी ने कभी दायरा निश्चित नहीं किया तो। 

सत्याग्रही प्रतिपक्षी का दृष्टिकोण समझ उसके संभव अनूकूल होता है
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एक बार तो जब वो सत्याग्रह के लिए पूरी तरह से तैयार हो के हिन्दुस्तान आए तो तत्कालीन बंबई के गवर्नर ने उन्हे विशेष तौर पे गोखले के मार्फत बुलाया, और उनसे ये वचन मांगा की सरकार के खिलाफ आप जब भी कोई कदम उठाएँ एक बार उनसे बात कर लिया करें। आगे जो बात गांधी ने कही उसे बड़ा गौर से सुनिएगा ये उनके सत्याग्रह का दिग्दर्शी सिद्धान्त थे। गांधी ने कहा ये वचन देना मेरे लिए बहुत सरल है। क्यों की सत्याग्रही के नाते मेरा ये नियम ही है की किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना है तो पहले उसका दृष्टिकोण उसी से समझ लूँ और जिस हद तक उसके अनूकूल होना संभव हो उस हद तक अनुकूल हो जाऊँ। दक्षिण अफ्रीका मे मैंने सदा इस नियम का पालन किया है और यहाँ भी ऐसा ही करने वाला हूँ। 

मुझे लगता है गांधी के सत्याग्रह के उपरोक्त दिग्दर्शी सिद्धान्त अन्ना को गांधी से अलग करते हैं। 
गांधी सत्याग्रह का प्रयोग हृदय परिवर्तन के लिए ही करते थे न की दवाब लाने के लिए, उनका स्वाभाविक विश्वास था की सब एक ही ईश्वर की संतान है और उनमे सुधार ला के काम हो सकता है। इसीलिए तो एक बार नेटाल मे उन्होने गोरों के खिलाफ, जब गोरों ने उनपे हमला किया था मुकदमा चलाने से इंकार कर दिया। और इंकार के बाद गोरे इतना शर्मिंदा हुये की कई के विचार गांधीके प्रति बदल गए और वो उनकी बातों को सुनने लगे। जबकि अन्ना के आंदोलनों मे लालू और मनीष तिवारी को गांधीयन तरीके का इस्तेमाल ना करते हुये उनका जवाब दिया गया। अन्ना को इसीलिए अन्ना और गांधी को मैंने गांधी कहा है हालांकि अन्ना के बयान को किसी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता हाँ लेकिन उन्हे गांधी भी नहीं कहा जा सकता। 

गांधी हमेशा वृक्ष की दृढ़ता को बनाए रखते हुये तने एवं टहनियों को लचीला बनाए रखा
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गांधी हमेशा वृक्ष की दृढ़ता को बनाए रखते हुये अपने तने एवं टहनियों को लचीला बनाए रखा और उन्हे कभी मर्यादित नहीं किया, जबकि टीम अन्ना ने शुरू मे अपने बहुत से कदमों को मर्यादित रखा जैसे राजनेताओं से दूरी, जो कि गांधी के दिग्दर्शी सिद्धातों से ये व्यवहार बिलकुल उलट था। गांधी अपने तने एवं टहनियों को परिस्थितियों से तारतम्य बनाए रखने के लिए उन्हे हमेशा स्वतंत्र रखते थे।

गांधी राजनिष्ठ भी थे
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गांधी कई बार राजनिष्ठा के पालन की दिशा मे अपना व्यक्तिगत मत अलग रखते थे, और इसीलिए तो बोअर युद्ध के समय मे व्यक्तिगत सहानुभूति बोअर निवासियों की तरफ से होते हुये भी ब्रिटिश राज्य की रक्षा मे हाथ बटाना अपना धर्म समझा और घायलों की सेवा सुश्रुषा कर गोरों का हृदय परिवर्तन किया।

गांधी कभी भी किसी कौम या व्यक्ति के प्रति स्थायी भाव नहीं रखते थे
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एक बार गांधी के पास जोहन्स्बर्ग के दो कुख्यात पुलिस अधिकारी कंगाल हो जाने के बाद आए जिसके खिलाफ कभी गांधी ने आंदोलन चलाया था, और गांधी ने स्वतः आगे आकर उनकी मदद की और उनकी नौकरी जोहान्स्बर्ग की नगर पालिका मे लगवाया। ऐसे थे गांधी, जो कभी भी किसी कौम या व्यक्ति के प्रति स्थायी भाव नहीं रखते थे, और कई मौकों पे हिंदुस्तानी मुहर्रिरों के साथ साथ अंग्रेज़ो को भी अपने घरों मे शरण देते थे। जबकि टीम अन्ना मे कहीं कहीं मौकों पे इसमे चूक दिखाई और इनहोने कई लोगों से अपनी दूरियाँ जाहीर की ।

गांधी का सत्याग्रह पे सम्पूर्ण विश्वास था
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गांधी को अपने सत्याग्रह पे इतना विश्वास था की जूलु विद्रोह के वक़्त अंग्रेज़ो से ही उन्होने उनके विरोधी जुलूवों की सेवा करने का अधिकार प्राप्त कर लिया और ये गांधी के व्यक्तित्व के निश्चल भाव का दम था की अंग्रेज़ उनकी बात मान लेते थे।

गांधी लचीला रुख अपनाते थे, विचारो एवं रायों मे हठता नहीं थी
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गांधी के सत्याग्रह के दूसरे दिग्दर्शी सिद्धांतो मे था कि सत्य का आग्रही रूढ़ि से चिपटकर ही न कोई काम करे, वह अपने विचारो पे ही न हठ पूर्वक डटा रहे , हमेशा यह मानकर चले की उसमे भी दोष हो सकता है और जब कभी दोष भी दोष का ज्ञान हो जाए भारी से भारी जोखिमों को उठाकर भी उसे स्वीकार करे और प्रायश्चित भी करे।जबकि अन्ना के आंदोलन के दौरान हठ का प्रभाव दिखा। हालांकि सरकार की तरफ से शुरुवात से लेके अंत तक गलतियाँ हो रही थी, फिर भी कई ऐसे मौके आए की बात बनती आ रही थी और कई खूबसूरत मोड़ आ रहे थे जिससे आंदोलन को लंबा और दीर्घायु रखा जा सकता था जब तक की एक सर्वमान्य जन लोकपाल बिल नहीं आता, यहाँ पे अति आवेश मे चूक हुयी और टीम अन्ना के साथ अन्ना हठ पे अड़े रहे । अन्ना का दवाब की उन्ही की बात मानी जाए और उन्ही का लोकपाल जस का तस मान लिया जाए उन्हे गांधी से अलग करता है। गांधी को अपने सत्याग्रह पे इतना विश्वास था की वो अन्ना की तरह ठगे जाने से बिलकुल नहीं डरते थे। 

गांधीजी को ईश्वर की न्यायबुद्धि पे पूरा विश्वास था
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गांधी ने अपने सत्याग्रह के तीसरे दिग्दर्शी सिद्धांतों मे ये बातें विलायत मे सोराब जी से कहीं थी की 
सत्याग्रही तो ठगे जाने के लिए ही जन्म लेता है, लेकिन अंत मे तो वही ठगा जाता है जो ठगने वाला होता है। मुझे तो कभी भी ठगे जाने का भय नहीं रहता है और ईश्वर की न्यायबुद्धि पे मुझे पूरा विश्वास है ।  

ऐसे थे गांधी और उनका सत्याग्रह। मैंने ये लेख इसलिए लिखा की गांधी के सत्य के प्रयोगों को मर्म आपके सामने ला सकूँ, लेखक के रूप मे मैने तथ्यों के संकलन को यांत्रिकता प्रदान की है , लेकिन यकीन मानिए की संपूर्णता मे पता नहीं इस तथ्यात्मक यांत्रिक लेख कैसा गतिमान आशय ले के आए मेरा आशय गांधीके सत्य की शक्ति को उजागर करना और अन्ना को शक्ति प्रदान करना था। आज के इस दौर मे जहां कोई भी अन्ना के खिलाफ एक शब्द बोलना नहीं चाहता है या यदि बोलने की कोशिश करता है तो उसे भीड़ का जबर्दस्त विरोध झेलना पड़ता है। 

अन्ना की शुभ चिंता मे मैं अन्ना को अन्ना बनते ही देखने चाहता हूँ
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मैंने अन्ना के शुभ चिंता के कारण ही ये समालोचना लेख लिखा है की एक बार वो अपने से अलग हो के अपना अध्ययन करें और अपने आपको और अधिक शक्तिशाली बनाएँ, क्यों की जिस व्यवस्था से वो लड़ना चाहते हैं वहाँ उन्हे उनकी हाँ मे हाँ मिलाने वालों की जगह ऐसा दोस्त चाहिए जो स्वतंत्र रूप से उनका विश्लेषण करते रहे, ताकि वो अनवरत रूप से आंदोलन की धार बनाए रखें। मैं अन्ना को अन्ना बनते ही देखने चाहता हूँ, जो लोग भी उन्हे गांधी के रूप मे बोल रहे हैं, वो जल्दीबाजी मे अलंकरण की बाजी मारना चाहते हैं, की कहीं होड़ मे कोई ये नाम उनसे पहले न दे दे। हमे इंतज़ार करना चाहिए हो सकता अन्ना नयी और बड़ी लकीर खींचने वाले हैं।हम क्यों निर्णय करें की वो गांधी ही हैं, नियति को निर्णय लेने दे इसका, हमे मर्यादित करने की जरूरत नहीं. 

एक लेखक के रूप मे मैंने कुछ अधिकारों का अतिक्रमण किया है और गांधी जी के सत्याग्रह के कई विचारों मे से तीन विचारों को यहाँ लिख के अपनी तरफ से गांधी के सत्याग्रह के तीन दिग्दर्शी सिद्धान्त नाम दिया है। पाठक लोग इसके लिए मुझे क्षमा कर देवे क्यों की मुझे लगता है मैंने अपने अधिकारों का अतिक्रमण इसलिए किया है की गांधी के संदेशों को प्रभावी रूप से समझा सकूँ।
लेखक
सीए पंकज जायसवाल
pankaj@ascoca.com
+919819680011

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