खतरे में परम्परागत व्यापार

आज तकनीक की गति इतनी तेज हो गई है की आपने यदि कदम ताल नहीं किया तो कौन पीछे से आपको धकेल के चला जाय आपको पता ही नहीं चलेगा. एक उदाहरण बताता हूं पिछले दिनों एक मिल्क फार्म वाले ने मेरे काम्प्लेक्स में हजारों लोगों को सात दिन लगातार पांच पांच लीटर दूध मुफ्त दिया मतलब प्रति परिवार उसने 35 लीटर मुफ्त दिया और ऐसा नहीं है की उसने केवल मेरे काम्प्लेक्स में दिया मुंबई के कई काम्प्लेक्स में वह ऐसा ही कर रहा है अपने उत्पाद को स्थानीय दूध आपूर्तिकर्ताओं से रिप्लेस कराने के लिये, उन सात दिनों में पारम्परिक दूध आपूर्तिकर्ताओं की बिक्री तो प्रभावित हुई ही, सात दिनों के बाद उसमें से कुछ लोग उस एप आधारित दूध को ही मंगाने लगे. अपने आक्रामक विपणन से उसने ग्वाले का एक चौथाई बाजार हड़प लिया और हमारे ग्वाले को जब तक पता चलता तब तक देर हो चुकी थी. दूसरी घटना है एक दिन एक ऑनलाइन सब्जी बेचने वाला दरवाजा खटखटाया अपने एप को डाउनलोड करने को बोला और बताया की यदि आप इतने सौ का वॉलेट रिचार्ज करेंगे तो उतना पैसा हमारे तरफ से भी दिया जायेगा, प्रति आर्डर पंद्रह फीसदी डिस्काउंट दिया जायेगा आदि आदि, वह डिजिटल वाला हमारे उस सब्जी वाले को रिप्लेस करना चाहता था जिसने पूरे लॉकडाउन में हमें सब्जी की कमी नहीं होने दी, ठीक दूध का एप वाला उस ग्वाले को रिप्लेस करना चाहता था जिसने भी पूरे लॉक डाउन में दूध की कमी नहीं होने दी. जबकि दोनों को यह नहीं मालूम था की टेक्नोलॉजी अब उनके ही दुकान पर हमला कर रही है. इस तकनीक की गति इतनी तेज है है की कम पढ़े लिखे ग्वाला सब्जी वाला किराना वाला इसका मुकाबला ही नहीं कर सकते. इस उपभोक्तावाद में ग्राहक स्वार्थी होता जा रहा है और बाजार इसीका फायदा उठा रहा है जिस पर ध्यान दिया जाना बहुत जरुरी है. हजारों साल से भारत की एक बाजार व्यवस्था है, जो इसे बड़े से बड़े मंदी यहां तक की कोरोना की मार से जब दुनिया हैरान है वह अभी भी अपने पैरों पर खड़ी है. भारत की इस वितरित बाजार व्यवस्था में सर्वे भवन्तु सुखिना के आधार पर सबके पेट भरने की व्यवस्था है। फैक्ट्री में माल बनने के पूर्व से लेकर ग्राहक तक पहुँचने से वह कई पड़ावों का पेट पालते चलता है.आज की की डायरेक्ट मार्केटिंग कंपनियां या एप इस चेन को विस्थापित करना चाहती हैं बिना इसके स्थान्नापन्न की व्यवस्था किये हुए. और यह एक तरह से भारत की आधार अर्थव्यवस्था का जमीं काटने जैसा हुआ, सरकार को इसे संज्ञान में लेना चाहिए तथा इसके सरंक्षण में काम करना चाहिए. तकनीक का एकाधिकार पूंजीवाद से भी बड़ा हो रहा है. पिछली सदियों में जब भारत समेत पूरी दुनिया में औद्योगिक क्रांति का दौर था तो चंहु ओर पूंजीवाद एवं इसके दुष्प्रभावों की चर्चा थी, चर्चा थी की कैसे संसाधन कुछ मुट्ठियों में इकट्ठे होते जा रहें हैं, धीरे धीरे इस औद्योगिक क्रांति का स्थान बाजार क्रांति ने ले लिया और पूंजीवाद ने बाजारवाद का वस्त्र पहन लिया अबकी बार पूंजीवाद तकनीकी क्रांति के द्वारा उतर रहा है. पूंजीवाद की आलोचना इसीलिए भी होती थी की पूंजीवाद मुनाफाखोर था मूल्य का सिस्टम उनके हाथ में था, तकनीक में भी वही है इस आभासी दुनिया के मूल्यांकन का कोई भी पारदर्शी व्यवस्था नहीं है. इसका फैलाव इतने चुपके से होता है की कईयों को पता ही नहीं लगता है और सब कुछ लुट जाता है, मेरु और टैब कैब टैक्सी सेवा को तो हवा ही नहीं लगा की कब ओला उबर ने उनके सारे निवेश को ख़त्म कर दिया. काली पीली टैक्सी वालों को पता नहीं लगा की कब मेरु, टैब कैब और बाद में ओला और उबेर ने उनके बाजार पर कब्ज़ा कर लिया। कुछ ऐसा ही देश भर में फैले कचहरी के बाहर फैले झटपट स्टूडियो वालों के साथ हुआ मोबाइल कैमरे और आधुनिक प्रिंटर के अविष्कार ने उनकी जड़ ही खत्म कर दी साथ में मोबाइल पर कैमरे आने लगे तो फोटोग्राफर भी ग्राहकों के लिए तरसने लगे, रील वाले कैमरे का पहले तो बाजार डिजिटल कैमरे ने छीना बाद में इन डिजिटल कैमरे का बाजार मोबाइल कैमरों ने छीन लिया. अब तो टीवी से ज्यादे घंटे लोग मोबाइल पर खर्च करते हैं और इसने टीवी चैनलों के लिए नई चुनौती पैदा कर दिया, करोड़ों रूपये लगा के न्यूज़ चैनल खोलने वालों के सामने हजार रूपये खर्च कर लाखों की संख्या में यूट्यूब चैनल ने आने लगे. आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस के विस्तार ने कई जगहों से जहाँ मानवीय जजमेंट को ख़त्म किया है. तकनीक का जन्म एक मानवीय जजमेंट ने किया था अब इसी तकनीक का मिशन हर उस जगह का स्थान लेना है जहाँ मानवीय जजमेंट प्रयोग होता है. इसलिए इसपर इतना खुश होने की जरुरत नहीं है ऐसे तकनीक का क्या फायदा जो आवश्यक रोजगार को ख़त्म कर दे. एक समय था बाजार में मोटोरोला और नोकिया के फ़ोन का ही दबदबा था और वो हौले हौले आ रही स्मार्ट फ़ोन, एंड्राइड एवं एपल के क़दमों की आहट सुन नहीं सके, बहुत देर में जागे तब तक बाजार में एंड्राइड एवं एपल सपोर्ट मोबाइल की बाढ़ आ गई . मोबाइल की दुनिया में एक गलती माइक्रो सॉफ्ट ने भी कर दी, उसे देर से पता चला की कंप्यूटर की दुनिया अब मोबाइल में सिमट गई है। एक समय इन्टरनेट मतलब याहू था, लेकिन यह भी जीमेल के आहट को सुन नहीं सका और आज बाजार से बाहर हो गया. आज थिएटर भी टूट रहा है. ये तो उदाहरण है जिसमें तकनीक ने सक्षम लोगों को धाराशाई कर दिया है जरा सोचिये जो सक्षम नहीं हैं जैसे हमारे आपके ग्वाला सब्जी किराना रिपेयर वाला उसका क्या हाल होगा, अगर तकनीक इसी तरह पिछले को दमित करते हुए आगे बढ़ गई तो पृथ्वी के इस 800 करोड़ की आबादी का क्या होगा, आज पृथ्वी पर सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या आधिक्य की है और कोई भी नीति यदि इनके समायोजन को उपेक्षित कर के या इन्हें रिप्लेस करने के लिहाज से बनेगी तो एक छोटे गड्ढे को भरने के लिए हम बड़ा गड्ढा खोद रहे हैं, मशीनों का इस्तेमाल होना चाहिये लेकिन इतना नहीं की आदमी ही खाली हो जाए, हमारे पास भी दिन के 24 घंटे होते हैं लेकिन इन 24 घंटे में लगातार हम काम नहीं करते हैं इसे हमने संतुलित घंटों में बांटा है ताकि हम लम्बी अवधि तक जीते हुए काम करते रहें, इस तकनीक का संतुलन बिंदु हमें ढूँढना पड़ेगा नहीं तो तकनीक का पूंजीवाद औद्योगिक पूंजीवाद से ज्यादे प्रभावित करने वाला है. यह सिर्फ दुनिया की चुनिन्दा कम्पनियों फेसबुक, व्हाटसएप्प ट्विटर का मसला नहीं है ये तो ऑरकुट याहू की तरह आईं हैं तो एक दिन इनकी जगह कोई और आ जायेगा, सबसे बड़ा खतरा हमारी नीति निर्माण की सोच है जो यहीं से शुरू होती है की मानवीय हस्तक्षेप को ख़त्म करना है अब अगर मानव व्यस्त नहीं रहेगा तो क्या करेगा ? इसलिए हमें इसके विकास का संतुलन बिंदु खोजना पड़ेगा नहीं तो एक दिन यही तकनीक मानव जाति की दुश्मन बन जाएगी.

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