गरीबी है राष्ट्रीय समस्या न. 1

कोरोना के दौरान और कोरोना के बाद भी हम 80 करोड़ लोगों को राशन की सहायता दे रहें हैं. यह एक तथ्य है जो बताता है की 75 साल के लाख दावों, प्रयासों और गरीबी हटाओ नारों के बीच यह समस्या जस की तस है. दरअसल 80 करोड़ का आंकड़ा गरीबी का प्रमाणपत्र है जो उपलब्धि के रैपर में लपेट दिया गया है. यह तारीफ़ की बात है की संकट काल में सरकार इनका पोषण कर रही है लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू कुछ और है. इस दूसरे पहलू में सच यह है की भारत दो भाग में बंटा हुआ है जिसे दत्तात्रय होसबोले असमानता के रूप में रेखांकित कर रहे थे. सरकार टैक्स संग्रह एक वर्ग से ले दूसरे को दे रही है क्यूंकि पाने वाला वर्ग अभी अभी भी आर्थिक रूप से स्वावलम्बी नहीं है. होसबोले के आंकड़े भी सरकार के इसी आंकड़े के आसपास हैं. बकौल होसबोले 23 करोड़ लोग रोजाना 375 रुपये से भी कम कमा रहे हैं. यदि इस न्यून कमाऊ संख्या में तीन से चार की दर से आश्रितों की संख्या को जोड़ दिया जाय तो यह आंकड़ा भी 80 करोड़ के आसपास पहुंच जाता है. आज आजादी के 75 साल बाद हमें सरकारी खजाने में अनाज के आधिक्य की ख़बरें आती हैं. तरक्की की ख़बरों से मीडिया लहालोट है. हम चांद मंगल से लगायत पता नहीं कहां कहां पहुंच रहें हैं. कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर भी बन रहें हैं और मीडिया रोज पीठ भी थपथपा रहा है. लेकिन गरीबी का यह आंकड़ा एक ऐसा जिन्न है जो जब नहीं तब बोतल से निकलकर सारे उपलब्धियों पर पानी फेर रहा है. स्वदेशी जागरण मंच के एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव दत्तात्रय होसबोले ने गरीबी को राक्षस बताते हुये बेरोजगारी और असमानता के बारे में जो कुछ बोला वह राष्ट्रीय विमर्श का विषय है. बकौल होसबोले हमें इस बात का दुख होना चाहिए कि 20 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, वहीं 23 करोड़ लोग रोजाना 375 रुपये से भी कम कमा रहे हैं। होसबोले के अनुसार हमें अखिल भारतीय योजनाओं के साथ स्थानीय योजनाओं की भी आवश्यकता है। इसके लिये कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित कर ग्रामीण इलाकों में कौशल विकास क्षेत्र में और अधिक पहल करना चाहिये । लिंग आधारित आय असमानता पर भी प्रकाश डालते हुये विश्व की छह अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद देश की आधी आबादी का कुल आय में केवल 13 प्रतिशत हिस्सा होने पर चिंता व्यक्त की. होसबोले की टिप्पणियों और खुले सच के रूप में गरीबी को यदि राष्ट्रीय विमर्श की जगह केवल जनसँख्या से जोड़ पल्ला झाड़ लें तो यह भी उचित नहीं है.दशहरा रैली में मोहन भागवत ने इसीलिये कहा की हमें जनसँख्या के नेगेटिव एप्रोच से बाहर आना चाहिए। हमें इसे संपत्ति के रूप में रेखांकित कर इसका उपयोग कैसे कर सकते हैं ऐसा सोचना चाहिये. मेरा भी मानना है जनसंख्या आधिक्य को एक सच्चाई के रूप में स्वीकार कर इसे संपत्ति के रूप में रेखांकित करना चाहिये। योग्य व्यक्ति को योग्य कार्य के आधार पर रोजगार का वितरण होना चाहिये। आज भी जब 18 वर्ष के युवा को गरीबी के कारण पढाई की जगह चौकीदार के वेश में देख दुःख होता है. अब बात करते हैं इसके समाधान के प्रयास कैसे हों. मेरी राय में पहला प्रयास ही इसे मुख्य धारा के विमर्श और चिंतन के कोण को गरीबी की तरफ मोड़ने वाला होना चाहिये। इससे रास्ते खुद ब खुद दिखाई देने लगेंगे,आंख मूंद सब अच्छा कहने से हम भटकेंगे ही. अहमदाबाद के एक गरबा कार्यक्रम में एक महिला टीवी पर 1300 रूपये प्रवेश शुल्क को इस बिना पर जायज ठहरा रही थी की इससे क्वालिटी के लोग आ पा रहें हैं. मतलब साफ गरीबों को कचरा समझा जा रहा है एक वर्ग के द्वारा. भारत का यही अंग्रेजियत से भरी कुलीनबोध की सोच भारत को दो हिस्सों में बांट रहा है, जहां लोग गरीबों को गरबा में आने को रोकना चाहते हैं। गरीबी खत्म करने के दौरान हमें इस सोच को भी खत्म करना होगा जो गरीब और मजदूरों को अपने चिंतन के दायरे से बाहर और अश्पृश्य मानता है. यदि यही सोच और विमर्श है तो इस देश से गरीबी और असमानता कभी खत्म नहीं हो सकती। गरीबी को एक सच के रूप में राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाना पड़ेगा। इसे खूबसूरत दरी के उस पार छिपाने की जरुरत नहीं है इससे यह छुपेगी तो लेकिन बढ़ेगी भी। विपक्ष के पास भी अवसर है, यदि इसे संघ ने बोला है बोल के ख़ारिज कर देंगे तो यह अवसर भी वह चूक देंगे। हमें उन चिंतकों को भी जबाब देना पड़ेगा जो गरीबी के विमर्श को उठने पर इसे डिरेल कर देते हैं। उनका तर्क की पिज़्ज़ा खाने के पैसे हैं तो गरीबी कहां हैं उन 80 करोड़ लोगों के सच पर एक जरीदार कालीन डाल देता है. वह एक ऐसे भ्रम में जी रहें जिन्हे गरीबी दिखती ही नहीं है. सच्चाई यह है देश की एक बड़ी आबादी कुछ हजारों में ही घर का पालन कर रही है. उसे पिज़्ज़ा क्या हर वक्त सब्जी भी नसीब नहीं है. इस वर्ग के लिए हजार रूपये के बहुत मायने हैं. उसे पिज़्ज़ा के रूपये से तुलना कर मजाक नहीं उड़ाना चाहिये. हमारा शरीर दर्द नहीं कर रहा है तो सबका शरीर दर्द नहीं करता होगा, इस सच से बाहर आना पड़ेगा। अगला प्रयास हो कि गरीबी का विश्लेषण कर जड़ में जाया जाय. गरीबी भी दो प्रकार की है पहली शहरी और दूसरी ग्रामीण। शहरी गरीबी ज्यादे खतरनाक है, क्योंकि यहां हर चीज पैसे से होनी है. सबसे ज्यादा भुखमरी भी शहरी गरीबी में देखने को मिलेगी. सरकार को सबसे पहले अपना शहरीकरण का दृष्टिकोण बदल अपनी नीतियों में "अशहरीकरण" को लाना पड़ेगा। इसके तहत आबादियों को कस्बों और गांवों तक ही रोकने की योजना बनानी पड़ेगी. सडकों, स्कूलों और स्वास्थ्य इंफ़्रा में सुधार कर यदि हम इन्हे वहां रोक देते हैं तो शहरों में पलायन कम होगा। पलायन कम होगा तो शहरी गरीबों की संख्या में बड़ी गिरावट आ सकती है. इंफ़्रा के अलावा वहां रोजगार के अवसर पैदा करना पड़ेगा। सहकारिता उद्यम के साथ बाजार को उनके पास पहुँचाना पड़ेगा। डिजिटल और लॉजिस्टिक से उन्हें ऐसा कनेक्ट करना पड़ेगा की बेचने के लिए या कच्चा माल खरीदने के लिए उन्हें कस्बों से शहर आने की जरुरत ही ना पड़े. गांवों में चूँकि कृषि ज्यादा है इसलिए कृषि में एमबीए कोर्स की डिज़ाइन कर कृषि प्रबंधकों को पैदा करना पड़ेगा। कृषि प्रबंधक कस्बों में रह किसानों की आय दुगनी करने के साथ साथ ही कृषि उद्यमिता और स्थानीय उद्यमिता दोनों बढ़ाने का काम करेंगे। इससे जब काम धंधे बढ़ेंगे तो लोग पलायन नहीं करेंगे। ग्रामीण गरीबी तो कम होगी ही अच्छा स्वास्थ्य शिक्षा और रोटी की गारंटी के कारण रिवर्स पलायन होगा और गरीबी का आधार कम होगा. वैसे भी भारत में सनातन प्रमाण है की गाँवों में स्वतः स्फूर्त सामुदायिक सहकारिता अभी भी जिन्दा है. लोग एक दूसरे के सुख दुःख में काम आते हैं. गांवों में अपवाद ही होगा की कोई किसी के जानकारी में भूखा सोये और कोई बिना जानकारी के रह भी जाए. गाँवों में किसी से बात करने के लिए वजह नहीं ढूंढनी पड़ती। लोगों को पता चल जाता है कौन परेशान चल रहा है. जबकि शहरों में किसी को जानने की फुर्सत नहीं है लोगों के पास. उन्हें पता ही नहीं चलता की उनका पडोसी भूखा है. गरीबी का जो मारक पक्ष है वह है भुखमरी और बीमारी। भुखमरी को खत्म करने की जिम्मेदारी प्रत्येक स्थानीय पंचायत को देनी पड़ेगी. यह प्रत्येक पंचायत की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए की उसके वहां कोई भूखा ना सोये। जैसे सरकार ने मिड डे मील की डिज़ाइन की है वैसे ही उसे शून्य फीसदी भुखमरी का लक्ष्य प्राप्त करना पड़ेगा। इसके तहत प्रत्येक पंचायत मासिक आधार पर ऐसे परिवारों का पंजीयन करे जिसके पास खाने की व्यवस्था नहीं है. इसमें उसके पंचायत में स्थानीय से लेकर घुमंतू समुदाय को भी शामिल करना चाहिये। इस पंजीयन के आधार पर सामुदायिक किचन की व्यवस्था कर उन्हें कम से कम दो वक्त का पोषक खाना सुनिश्चित करना चाहिये. कॉर्पोरेट का सीएसआर फंड इस्तेमाल हो सके इसके लिए सरकार को हर पंचायतों को धारा 80 जी और चैरिटी पंजीयन का प्रमाण पत्र देना चाहिए। इससे बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट फंड का इस्तेमाल हो सकता है. महाराष्ट्र में शिव भोजन थाली और अम्मा थाली तमिलनाडु में इसके अच्छे उदाहरण हैं. नियमन और नियंत्रण के लिए सरकार चाहे तो कुछ नाम मात्र का शुल्क लगा सकती है जैसे एक या दो रुपया. खाने के बाद सरकार को यह सुनिश्चित करना पड़ेगा की यदि कोई बीमार पड़ता है तो हस्पतालों की इतनी पर्याप्त संख्या हो की इनका मुफ्त इलाज हो जाये। शिक्षा के लिए पंचायतों को ही जिम्मेदार बनाना पड़ेगा की उनके क्षेत्र में कोई भी बच्चा कक्षा 8 तक की शिक्षा से वंचित ना हो, चाहे वह बच्चा घुमन्तु समुदायों का ही क्यों ना हो. यदि कोई बच्चा बिना शिक्षा का दिख जाए तो उनका दाखिला तुरंत कराया जाय. पंचायत पढ़ने की उम्र लायक सभी बच्चों का सर्वे कराये। यदि वह पढ़ने की उम्र में हैं और पढ़ नहीं पा रहें हैं तो उनके शिक्षा की जिम्मेदारी भी पंचायतों की हो. इस तरह उनके खाने, उनके माता पिता के खाने और बीमार पड़ने पर इलाज की व्यवस्था हो गई तो सब पढ़ने भी जायेंगे तथा कोई बाल श्रम इसलिए नहीं दिखेगा की घर में खाने को पैसा नहीं है. यह गरीबी का आधार कम करने का बड़ा आधार कार्य होगा।

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