टैक्स नहीं राष्ट्र निर्माण आहुति बोलिये

अभी कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर एक मेसेज वायरल हुआ था जिसमें कहा गया था की एक ही तो वेतन है उसमें से कितनी बार टैक्स दूँ, वेतन लूं तो टैक्स, खर्च करूं तो टैक्स, बैंक में रखूं तो टैक्स. यह था तो के व्यंग्य लेकिन बात गौर करने लायक है। पिछले दिनों कुछ कॉर्पोरेट मित्रों से अनौपचारिक बातचीत के दौरान रोचक और आश्चर्यजनक इनपुट मिले जो सरकार और व्यवस्था को जानना जरुरी है. एक मित्र ने बताया की इस कोरोना काल में भी उसका 10 लाख टीडीएस कट गया, एक दोस्त ने बताया की वह तो व्यापार करता है साल भर में खुद का 10 लाख आयकर देता है और लाखों रूपये का जीएसटी देता है, तीसरे दोस्त ने बोला की वह फैक्ट्री चलाता है वह भी करोड़ों का जीएसटी भरता है। तीनों का दर्द एक ही था की हम तीनों मिल कर मेहनत कर रहें हैं, कमा रहें हैं और अपने इसी हाड़तोड़ मेहनत की कमाई से कोई हजार कोई लाख तो कोई करोड़ रूपये टैक्स में दे रहा है. लेकिन जो गरिमापूर्ण फील इतना कुछ देने के बाद भी देश की व्यवस्था, सरकारी कर्मचारी, टैक्स अधिकारी की तरफ से मिलना चाहिये वो उन्हें नहीं मिलता है. टैक्स से ही इस व्यवस्था को, उस सरकारी कर्मचारी और टैक्स अधिकारी की सैलरी जाती है देश में सड़कें, पोर्ट, इंफ़्रा का विकास होता है लेकिन इसका अहसास हमको नहीं हो पाता है, इसका सम्मान और गरिमा का अहसास ना हमें खुद से हो पाता है और ना सामने वाले से भी. कोई भी हाथ दे गाडी रोक देता है, तो कोई सुना देता है की बस इतने लोग ही टैक्स भरते हैं. कोई नहीं यह सोचता की राष्ट्र निर्माण के अंशदाता हम हैं. कहने को तो उपरोक्त कही गईं बातें एक मजाक में कही गई बात है लेकिन यह अपने आप में एक बड़ी गंभीर बात है, कि इतना मौद्रिक योगदान राष्ट्र निर्माण में देने के बाद भी चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक पुलिस वाला , पुलिस में जाने पर पुलिस वाले, टैक्स विभाग के अधिकारी वह न्यूनतम आवश्यक आदर और कृतज्ञता व्यक्त नहीं करते जो उन्हें मिलना चाहिये, इस टैक्स भरने के बाद भी उनके पास ऐसा कोई प्रमाण वह साथ लेकर नहीं चलते की देखो राष्ट्र निर्माण में मैंने इतना योगदान दिया है कुछ तो गरिमापूर्ण सम्मान और बातचीत का अधिकार मिलना चाहिये "मे आई हेल्प यू" का भाव वहां नहीं मिल पाता. मेरा मानना है की एक व्यक्ति या संस्था पूरे वर्ष में सब तरह के टैक्स चाहे जीएसटी हो या आयकर हो या स्टाम्प हो या अन्य कर हो जो देती है को मिला कर एक डाटा बनाना चाहिये तथा इस सम्मिलित राशि का एक सर्टिफिकेट उन्हें प्रदान करना चाहिये जिसे हम राष्ट्र निर्माण आहुति प्रमाण पत्र का नाम दे सकते हैं ताकि उन्हें यह महसूस हो की इस राष्ट्र निर्माण यज्ञ के महा आयोजन में उनकी भी आहुति है, सब कुछ तो होता ही है बस इसे चिन्हित और रेखांकित करना है और मेरा ऐसा मानना है की सिर्फ ऐसा कर देने से देश में ना वरन राष्ट्रवाद की भावना मजबूत होगी, इससे राष्ट्रीय एकता और कर संग्रह दोनों बढ़ेगा. कुछ साल पहले माननीय प्रधानमंत्री ने "पारदर्शी कराधान - ईमानदार का सम्मान" व्यवस्था लागू किया था और एक नया टैक्स चार्टर भी जारी किया था जिसमें करदाताओं के गरिमा को ध्यान में रखते हुए कर तंत्र के कार्यप्रणाली में बड़े बदलाव किये थे. केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने भी वर्ष 2016 में एक योजना चालू किया था जिसमें नियमित और ईमानदार करदाताओं को सम्मान पत्र देने की बात की थी जिसमें से कुछ चुनिंदा प्रमाणपत्र भौतिक रूप से भी दिये जाने थे, ये अच्छी शुरुवात थी लेकिन इसमें अप्रत्यक्ष कर भुगतान कर रहे जनता को भी धन्यवाद देना नहीं शामिल था. जब नाम बदलने से ही बदलाव की शुरुवात हो सकती है तो जैसा राजपथ का नाम कर्त्तव्य पथ हुआ वैसे ही सरकार एक पहल की और शुरुवात कर सकती है, जब करदाता टैक्स का चालान भरता है तो वहां सिर्फ जीएसटी की जगह राष्ट्र निर्माण जीएसटी आहुति, आयकर की जगह राष्ट्र निर्माण आहुति लिख दिया जाय तो भुगतान के समय भी उसे गर्व और संतोष की अनुभूति होगी. इन छोटे छोटे क़दमों से हम करदाताओं का सम्मान तो करेंगे ही उन सरकारी तंत्र के सोच में भी बदलाव लायेंगे जो आम जनता के साथ वह आदर और गरिमा पूर्ण व्यवहार नहीं रखते जो उन्हें मिलना चाहिए. अक्सर विचार मंचो सोशल मीडिया पोस्ट और बहसों में सुनता हूं की देश के कुछ ही लोग लोग टैक्स देते हैं, तो उन्हें मैं आज अपने विश्लेषण से बताना चाहूंगा की ऐसा नहीं है, शत प्रतिशत लोग टैक्स देते हैं यहां तक कि दूधमुंहा बच्चा, भिखारी और मजदूर की तरफ से भी इन्कम टैक्स समेत सभी करों का भुगतान होता है। आपको यह एक साधारण उदाहरण से समझाता हूं। एक मजदूर 10 रूपये का एक कम्पनी का बिस्किट खरीदता है, वह कम्पनी ऐसे ही एक एक बिस्किट बेचते हुये 100 करोड़ का टर्नओवर करती है। अब इस 100 करोड़ का वितरण इस प्रकार है 15 करोड़ लगभग जीएसटी के जायेंगे 18 फीसदी के हिसाब से बचा 85 करोड़ उसमें से 50 करोड़ गेंहू और कच्चे माल का खर्च होगा, 3 करोड़ वेतन और स्टाफ के अन्य खर्च होंगे, 1 करोड़ वित्त के खर्च होंगे ,15 करोड़ के करीब प्रशासनिक एवं अन्य खर्च होंगे, कंपनी मालिक ने अपना वेतन लिया 1करोड़ अब लाभ बचा 15 करोड़ का उसमें से कम्पनी का आयकर चुकता हुआ 5 करोड़ कम्पनी मालिक का बचा 10 करोड़ जो उसकी पूंजी का हिस्सा हो गई. अब समझिये यह 100 करोड़ एक एक बिस्किट की बिक्री से बना है। मतलब वह मजदूर जो 10 रूपये का बिस्किट खरीद रहा है वह अपने इसी 10 रूपये में से डेढ़ रूपये जीएसटी खाते के लिये देता है, 5 रूपये किसानों एवं व्यापारियों के खाते हेतु देता है, तीस पैसे स्टाफ लोगों की सैलरी का भी देता है ताकि वह भी अपना घर भी चलायें और अपना खुद का भी आयकर उसमें से भर लें, बैंकों के भी हिस्से का 10 पैसा अपने पास से उस मूल्य के माध्यम से देता है, डेढ़ रूपये उस कम्पनी से जुड़े अन्य खर्चों एवं छोटे मोटे सरकारी शुल्कों को पोषित करता है, 10 पैसे उस कम्पनी के मालिक के वेतन को भी पोषित करता है जिसमें उस मालिक के निजी आयकर का भी हिस्सा होता है , उस कपंनी के आयकर के हिस्से को भी अपने उसी 10 रूपये में से 50 पैसे के रूप में पोषित करता है और अंत उस कम्पनी का मालिक पूंजपति जो अपनी पूंजी या संपत्ति बनाता है उसके हिस्से का भी पैसा यह मजदूर बचे हुये एक रूपये में से देता है, तब जाकर वह मजदूर 1 पैकेट बिस्किट खा पाता है. इसके अलावा एक विश्लेषण और है जो बताता है कि शत प्रतिशत लोग टैक्स देते हैं । अगर देश के 140 करोड़ लोग इनकम टैक्स ना देकर सिर्फ 4 करोड़ लोग देते हैं तो इसका मतलब ये तो नहीं हुआ की सब नहीं देते हैं. इसके कई मायने हो सकते हैं पहला ये की इस आबादी में बच्चे और बूढ़े और गृहणियां हैं आप अपनी गणना में उन्हें एक संभावित करदाता के रूप में क्यों शामिल करते हैं? परिवार का मुखिया ही कमाता है ना की दुधमुंहे बच्चे से ले उसकी बूढ़ी मां भी कमाती है, तो इस प्रकार 5 पर 1 की औसत से 28 करोड़ लोग को इन्कम टैक्स रिटर्न भरना चाहिये। अब भारत तो कृषि प्रधान देश है जिसमें 60 % लोग मतलब 16.8 करोड़ लोग कृषि से जुड़े हैं उन्हें तो विभाग ने ही बोला है की टैक्स नहीं है । अब बचे 11.2 करोड़ में से तो ज्यादातर सरकारी या कॉर्पोरेट कर्मचारी की संख्या बड़ी है उनका तो टीडीएस ही कट जाता होगा यदि टैक्सेबल श्रेणी में आते होंगे क्योंकि टीडीएस लगभग सब लोग काटते हैं। फिर बचते हैं बड़े दूकानदार जीएसटी के कारण सब कुछ तो इनका मैप है ये टैक्स से बच के जा ही नहीं सकते, फिर बचते हैं छोटे दूकानदार, रेहड़ी, पटरी, वाले इनमें से तो लगभग सबकी आय तो 7 लाख सालाना से कम ही होती है और छूटों के साथ इनकी कर योग्य 5 लाख से नीचे आ ही जाती है जिसे आपने ही बोला है की रिटर्न नहीं भरना है तो वो नहीं भरते हैं. फिर अंत में बचते हैं पानी पूरी, सब्जी , मोची मजदूर जो शहरों कस्बों या गांवों में बसते हैं आदि इनकी तो आय भी 5 लाख से ऊपर की क्षमता नहीं रखती है । सरकार ने भी बोला है की 84 करोड़ लोग खुद का भी राशन नहीं खरीदते इस देश में उन्हें अभी तक मुफ्त राशन दिया जा रहा है तो उन्हें भी संभावित करदाता की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिये । इसीलिये मैं कहता हूं की विमर्श बदलना पड़ेगा, टैक्स को लेकर आमूलचूल बदलाव करना पड़ेगा। व्यवसाय और वेतन पर से आयकर को ख़त्म कर इसे व्यय आधारित लाना पड़ेगा, आयकर को गृह संपत्ति, पूंजीगत लाभ एवं अन्य आय तक ही रखना पड़ेगा। HSN कोड अपने आप में प्रगतिशील है उसे ही आयकर से लिंक कर उत्पाद के मूल्य में ही जोड़ प्रगतिशील दर से सेस लगा आयकर भी ले ही लिया जाय. मंथन करिये यह लेख किसी भी सरकार पर नहीं है, यह उन पूंजीवादी सोच के विचारकों पर है जो यत्र तत्र सर्वत्र लिखते बोलते रहते हैं की इतने लोग ही टैक्स देते हैं बाकी टैक्स के पैसे पर पलते हैं.

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