सनातन विज्ञान पर विदेशियों को नोबल

सनातन शब्द के इस्तेमाल से कई लोग इसे धर्म से जोड़ देते हैं लेकिन सनातन का अर्थ होता है शाश्वत, हमेशा बना रहने वाला, नश्वर सत्य अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। इसलिये भारत के ज्ञान को सनातन ज्ञान बोला गया है जो संजोग से विज्ञान भी है क्यूंकि उसके ज्यादातर सूत्र प्रकृति से तारतम्य बिठाये हुये हैं. इन चीजों को बहुत पहले से हम संस्कृत भाषा में कहते आ रहें हैं उसी को एक फॉर्मेट में डाल विदेशी नोबल पा जा रहें हैं. भारत के वर्तमान ब्रेन के अलावा इसके सनातन ज्ञान विज्ञान का पश्चिम सबसे बड़ा आयातक है और हमारे इस अर्जित पुरातन या वर्तमान ज्ञान को बस चंद रुपयों को खर्च कर पश्चिम की कम्पनियां उसका पेटेंट हासिल कर विश्वबाजार पर कब्ज़ा कर लेती हैं और हम उन्हें महान मानने लगते हैं. अभी पिछले दिनों उत्तर प्रदेश डेवलपमेंट फोरम द्वारा भारत के प्रवासियों के सम्मान में लखनऊ में मातृभूमि वंदन नामक कार्यक्रम आयोजित किया था जिसमें स्वीडन में रह रहे प्रवासी भारतीय वैज्ञानिक डॉ राम ने सबकी आँखे खोल दी. बकौल डॉ राम वर्ष 2016 में पूर्व जापानी कोशिका जीवविज्ञानी योशिनोरी ओहसुमी को अपने एक शोध के लिए चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार मिला था कि कैसे कोशिकाएं ऑटोफैगी के माध्यम से अपनी सामग्री को पुनर्चक्रित और नवीनीकृत कर उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा करने में मदद करती हैं। पिछले दो दशकों में, ऑटोफैगी को कैंसर, न्यूरोडीजेनेरेटिव रोगों, उम्र बढ़ने वाले रोग डिमेंशिया, पार्किंसन, अल्जाइमर, चयापचय संबंधी विकारों, सूजन, संक्रामक रोगों और अन्य सहित कई मानव रोगों के उपचार में उपयोगी मानने की दिशा में प्रयास हो रहा है. यह नए न्यूरॉन, नई कोशिका पैदा करता है तो नया माइटोकांड्रिया बनता है जिससे हम नई ऊर्जा महसूस करते हैं. इस ऑटोफैगी से तो नए अंग जैसे की किडनी आदि को भी हम रिबूट कर सकते हैं. लेकिन क्या आपको मालूम है योशिनोरी ओहसुमी को जिस अविष्कार के लिए नोबल पुरस्कार मिला वह ज्ञान तो हमारे ऋषि मुनि दादा दादी सदियों से कहते आ रहें हैं की व्रत करने से उम्र बढ़ता है, एकादशी व्रत चन्द्रमा की गति और स्थिति के हिसाब से हमारे शरीर की कोशिका और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को प्रभावित करता लेकिन नोबल किसी विदेशी को मिलता है। बकौल सनातन वैज्ञानिक डॉ राम भारतीय उपवास पद्वति एकादशी किडनी और कैंसर तक की बीमारी को ठीक करने में सहायक होता है। द्रव्य की अविनाशिता का नियम या ऊर्जा सरंक्षण का नियम जिसको लेकर आइंस्टीन समेत पश्चिम के वैज्ञानिक अपने शोध का दावा करते हैं उन्हें नोबल मिलता है जबकि वही तो हम हजारों साल से कहते आ रहें हैं. द्रव्य की अविनाशिता का नियम द्रव्य को ना तो उत्पन्न किया जा सकता है, ना ही इसे नष्ट किया जा सकता है द्रव्यमान ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। या ऊर्जा सरंक्षण का नियम उर्जा को ना तो उत्पन्न किया जा सकता है और ना ही नष्ट किया जा सकता है केवल ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित की जा सकती है. यही तो हजारों साल से गीता के श्लोक नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः में कहा गया है जिसका अर्थ है आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है, आत्मा एक ऊर्जा है और वह अपना वस्त्र (रूप) बदलती है. तो पश्चिम ने क्या नया किया? क्या न्यूटन ने खोज नहीं की होती तो सेब आसमान में चला जाता वह तब भी नीचे ही गिरता। फिर सनातन विज्ञानी कौन? उत्तर हमारे ऋषि मुनि और सनातन शास्त्र क्या ? उत्तर हमारे वेद शास्त्र. दरअसल पश्चिम में हमारे ही ज्ञान का पाठ और रेखांकित कर उसे अपना कहा और हम अपने उस ताकत को पहचान नहीं रहें हैं. भारतीय दर्शन और सनातन पद्वति विज्ञान सिद्ध है बस हमें इसे किताबों से निकाल बाहर प्रयोग में लाना है अन्यथा विदेशी हमारे ज्ञान निवेश पर पेटेंट और पुरस्कार पाते जायेंगे और कालांतर में यह भारत के लिए एक बड़ा नुक्सान होगा। हमारे ही ज्ञान का अपने नाम से पेटेंट करा वह नोबल जैसे तमाम पुरस्कार तो पाते ही हैं, उसके इस्तेमाल के नाम पर रॉयल्टी के नाम पर हमसे पैसा भी वसूल कर लेते हैं। भारत से सबसे अधिक भुगतान विदेशी तकनीक, फार्मूला या ब्रांड के रॉयल्टी के रूप में बाहर जाता है. पेटेंट में हम आज भी पीछे हैं, पेटेंट की दुनिया में एक कहावत है पेटेंट आवेदन पहले फाइल करिए और अविष्कार बाद में करिए, लेकिन हम यहां पिछड़ जाते हैं. आत्मनिर्भर भारत आर्थिक तौर पर बनने के लिए और चीन एवं अन्य देशों के मुकाबले ग्लोबल लीडर बनने के लिए हम तैयारी कर रहें हैं । लेकिन अपने ज्ञान को सम्मान देने और पेटेंट कराने में हम चीन और अमेरिका के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते और पेटेंट फाइलिंग के ताजा डाटा देखें तो हम अमेरिका तो दूर इनोवेशन में ही चीन से काफी पीछे हैं। एक रिपोर्ट में छपे आंकड़ों क मुताबिक वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन के अनुसार, 2019 में पूरी दुनिया से पेटेंट के लिए कुल 2,65,800 आवेदन किए गए थे जबकि भारत से केवल 2053 आवेदन हुए थे। इस प्रकार देखें तो दुनिया की आबादी में 16 फीसदी से दखल देने वाला भारत पेटेंट आवेदन में 1 फीसदी से भी कम दखल रखता है. पेटेंट फाइलिंग की इस खराब रैंकिंग और भागीदारी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम रिसर्च और फिर उसके विकास में कितने पीछे हैं.पेटेंट फाइलिंग के मामले में भारतीय कंपनियों की स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं है। पेटेंट फाइलिंग करने वाली कंपनियों की लिस्ट में टॉप-50 में भारत की कोई कंपनी नहीं है. भारत के इस पिछड़ेपन का एक और कारण अब तक की जो नीति रही है उसमें रिसर्च उस रिसर्च की मान्यता एवं तत्पश्चात उसके डेवलपमेंट में बहुत ही कम खर्च किया जाता है और यही कारण है कि भारत पेटेंट फाइलिंग के मामले में पश्चिम से काफी पीछे है। भारी उद्योग मंत्रालय की ओर से पिछले साल जुलाई में पेश किए गए एक अनुमान के मुताबिक, शोध एवं विकास पर भारत का खर्च पिछले कई सालों से लगातार जीडीपी के 0.6 से 0.7 फीसदी के बराबर ही बना हुआ है। जबकि इजराइल में यह खर्च 4.3 फीसदी है। इसके अलावा साउथ कोरिया अपनी जीडीपी का 4.2 फीसदी, अमेरिका 2.8 फीसदी और चीन 2.1 फीसदी खर्च करता है। यह दर्शाता है की अब तक भारत का इसको लेकर क्या नजरिया है. पूरे दुनिया में सबसे अधिक ज्ञान और ब्रेन का निर्यात भारत से हुआ है. यदि देश को इस ब्रेन और ज्ञान निर्यात पर लाभांश की आय करनी है विश्व गुरु बनना है तो हमें सनातन ज्ञान को बाहर लाना पड़ेगा जो दबा पड़ा है, रिसर्च, उस रिसर्च की मान्यता, तत्पश्चात उसके डेवलपमेंट और सरल और न्यूनतम लागत या मुफ्त आधार पर पेटेंट पंजीयन जैसे क़दमों पर युद्ध स्तर पर काम करना पड़ेगा और पेटेंट क्रांति लानी पड़ेगी तभी भारत बन सकता दुनिया का सिरमौर है अन्यथा भारत के ज्ञान निवेश पर मालिक कोई और ही रहेगा.

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