एक मोची की कीमत

एक दिन की घटना आपसे शेयर करना चाहता हूं जिससे आपको एक मोची की कीमत हमारे समाज और हमारे इकॉनमी में समझ में आयेगी। और एक मोची ही क्यों सनातन काल से हमारे समाज के बुनावट में जो चीजें गढ़ी गईं हैं उनकी कीमत समझ में आयेगी। एक दिन की घटना है बारिश में भीगने की वजह से मेरे जूते का सोल निकल गया था आगे से और इससे मुझे अगले दिन ऑफिस कैसे जाऊंगा इसकी चिंता होने लगी. मेरे साथ मेरा दोस्त भी था उसने बोला की चलो यार बाजार से एक जूता खरीद लेते हैं तीन हजार रूपये का मिलेगा अब इस जूते का सोल निकल गया है इसे फेंक देते हैं, मुझे भी लगा सही कह रहा है, तभी मेरे मन में एक ख्याल आया क्यों ना एक बार मोची को दिखा लें हो सकता है कम पैसे में काम हो जाए. मैं बाजार में ही एक मोची के पास गया और बोला की भईया की क्या इस जूते की मरम्मत हो सकती है, उसने जूता देखा और कहा हो सकती है. मैंने पूछा कितने पैसे लगेंगे उसने बोला 60 रुपये मैं आव देखा न ताव झट से कहा बना डाल भाई क्यों की उस वक़्त मुझे उसके साठ रुपये नहीं अपने 2940 रुपए की बचत दिख रही थी जिसे मैं अगले ही पल खर्च करने वाला था बस एक क्षण भर का एक विकल्प की चलो एक बार देख लेते हैं ने मेरे 2940 रुपये बचाये। मैंने फिर चिंतन किया की समाज और इकॉनमी में इस मोची का क्या योगदान है अभी अभी इसने मेरे 2940 रुपये बचाये ऐसे कितनों का बचाते होंगे. अगर इस सामाजिक व्यवस्था की बसावट और बनावट में मोची की व्यवस्था को बरकरार रखने की व्यवस्था की जाये तो यह हजारों करोड़ की बचत कराने में सक्षम होंगे जो पहले बचत फिर विनियोग के रुप में पुनः मार्किट में आकर इकॉनमी को फायदा देगा। मेरे दोस्त ने कहा की यदि सभी लोग ऐसे ही जूते बनवाते रहे तो जूतों के उद्योग का क्या होगा, उत्पादन कम होगा तो जीडीपी कम होगा. मैंने कहा ऐसा नहीं है जूतों का उत्पादन कम होगा तो जीडीपी कम नहीं होगी चक्रीय व्यवस्था के तहत चमड़ा उत्पादन और जीव हत्या में कमी आयेगी। फिर बचत तो विनियोग के रुप में प्रयोग होगा ही ना। हमें औद्योगिक उत्पादन की अंधी दौड़ में नहीं दौड़ना है जो पृथ्वी के इकोसिस्टम के अनुकूल नहीं है उसे हतोत्साहित करना है और प्रोत्साहित उसे करना है जो ग्रीन इकॉनमी के अनुकूल है. जूते के उद्योग जरुरत भर का उत्पादन करें बाजार का हिस्सा मोचियों के लिये भी छोड़ें, क्यों वे रिपेयर की मानसिकता बदल देश के जनमानस का मानस बचत से हटा कर उपभोक्ता खर्च बाजार की तरफ धकेल रहें हैं, रिपेयर इकॉनमी को इग्नोर कर यदि अति औद्योगिक उत्पादन की तरफ बढ़ेंगे तो हम खुद ही अपने और समाज के मौत का दस्तावेज लिख रहें हैं. ठीक मोची की तरह ही हमारे समाज में बढ़ई की स्थिति है एक बढ़ई आपके घर में छोटे बड़े इतने मरम्मत का काम कर देगा की आपके बहुत सारे पैसे बच जायेंगे। टेलर की भी सामाजिक बसावट और बुनावट ऐसी ही है, महिलाओं के और हमारे आपके भी ये हजारों रुपये बचाते हैं छोटा छोटा काम कर के। दरअसल हमारी सतत सनातन सामाजिक अर्थव्यवस्था में इनकी बसावट और बनावट ऐसी थी जो पृथ्वी और मानव समाज के इकोसिस्टम के अनुकूल था, औद्योगिक उत्पादन उतना ही था जितने की मौलिक जरुरत थी, लेकिन आज के उपभोक्ता वाद ने समाज का पूरा आर्थिक और सामाजिक तानाबाना बदल दिया है आज हम रिपेयर इकॉनमी की जगह रिप्लेसमेंट इकॉनमी वाले चरण में आ गये हैं, आज हमें किसी चीज की मरम्मत नहीं करानी है सीधे दूसरा ही खरीद लाना है और ऐसा इसलिये है की यह बाजार वाद और पूंजीवाद की अंधी दौड़ है हर आदमी अपना सामान बेचना चाहता है और खूब पैसा संचय करना चाहता है जिस कारण सदियों से चली आ रही इस सामाजिक बसावट और बुनावट को हाल के दशकों में बड़ी चोट पहुंचाई गई है, कचरा बढ़ाया गया और पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाया गया . अगर हम और सरकारी नीतियां इनका सरंक्षण प्रोत्साहन और सम्मानजनक जीवन देने में असफल रहे तो एक दिन भयंकर आर्थिक दुष्प्रभाव देखने को मिलेंगे. ये मोची बढ़ई टेलर लोहार आदि की जो सामाजिक व्यवस्था है यह समाज में पैदा हो रहे आर्थिक टोक्सिन को बाहर कर व्यक्ति को आर्थिक सक्षमता देने में सहायता करती है, यह उनके बचत को बढ़ाते हुये राष्ट्रीय विनियोग में वृद्धि करती है, ये एक छोटा धंधा या छोटे लोग नहीं हैं ये देश के सुंदर कपडे के मजबूत धागे हैं जिन्हे मजबूत रखना जरुरी है तभी देश आर्थिक तौर पर मजबूत होगा। जब एक मोची मेरा 2940 रुपया बचा सकता है तो लाखो मोची प्रतिदिन देश का और नागरिकों का कितना रुपया और खासकर मूक जानवरों का कितना जीवन बचाते होंगे. जरुरत है इनके योगदान क पहचान दे इन्हे रेखांकित करने की , अपने खर्च की आदत में इन्हे प्राथमिकता देने की और प्रत्येक सरकारी कमर्शियल नीतियों में इनके सरंक्षण की अन्तर्निहित शर्त रखने की तभी हम पुनः अपना सोने की चिड़िया और आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं.

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