मौजूदा कोरोना वायरस ने पूरे मानव जाती को ठहर कर सोचने को मजबूर किया है की हम कहाँ जा रहे थे और कहां. परमाणु बम बना शक्तिशाली का दंभ भरने वाले हम पृथ्वी वासी एक परम अणु रूप विषाणु से परेशान हैं. जिस जंतु जगत में हम प्रकृति के सर्वोत्तम की उत्तरजीविता सिद्धान्त से भी विपरीत प्रकृति को ही चुनौती देने पर तुले थे, जीन और डीएनए में बदलाव के अलावा प्राकृतिक जीव क्षरण प्रक्रिया में भी हमने अपने वैज्ञानिक उथल पुथल से उथल पुथल मचा रखे थे उसे करारा झटका दिया इस परमाणु युग में एक परमाणु आकार के विषाणु ने जिसे हम देख भी नहीं सकते हैं. इतिहास की यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर कर रही है की हम जा कहाँ रहें हैं. हमारी विकास की गति प्रकृति के अनुकूल है या प्रतिकूल है. उसी तरह से हम पृथ्वी पर सिर्फ अपना जीवनकाल देखते हैं पीढ़ियों का जीवनकाल तो देखा ही नहीं. पीढ़ियों का जीवनकाल सुरक्षित रखने के लिए तो टीकाकरण को भी प्रकृति अपने खिलाफ हस्तक्षेप मानती है और हमने जीन डीएनए से लेकर लिंग परिवर्तन तक सबमे हस्तक्षेप किया.
इस समय जनता कई मोर्चों पर लड़ रही है. कोरोना महामारी तो है ही, पोस्ट कोविड भी एक महामारी के रूप में सामने आ रहा है जिसमें ब्लैक फंगस, हार्ट अटैक जैसे नई नई तमाम बीमारियाँ आ रही हैं, इसके बाद एक और महामारी की सम्भावना है जिसे हम आर्थिक महामारी कह सकते हैं जो शुद्ध रूप से मानव जनित है. कोरोना से लड़ने के लिए हमने लॉकडाउन अपनाया, यह गलत भी नहीं था क्योंकी तत्काल में यही रास्ता दिख रहा था उसने असर दिखाया भी लेकिन उसके साइड इफ़ेक्ट अब आर्थिक महामारी के रूप में दस्तक दे रहें है. यह ठीक उसी तरह है जैसे कोरोना के इलाज में स्टेरॉयड को कारगर बताया गया गया और उसने काम किया भी लेकिन उसके अत्यधिक या अनियमित या अवैज्ञानिक इस्तेमाल ने नई समस्या को जन्म दे दिया वह है ब्लैक फंगस. अगर हमें आर्थिक क्षेत्र में कोई नया ब्लैक फंगस नहीं पैदा करना है तो है तो तो देश के आर्थिक विशेषज्ञों का एक पैनल बना उन्हें समय देना पड़ेगा की वह बताएं की ऐसे परिस्थिति में जो नई आर्थिक महामारी की सम्भावना है उससे कैसे निपटा जा सकता है. मैंने अपने पहले ही लेख में बताया था की सरकार रिवर्स आइसोलेशन पालिसी अपना कर अपनी आर्थिक गतिविधियीं को नियोजित कर सकती है. उसे उन जिलों या थानों को बचा कर वहां तनावमुक्त और कोरोना उपयुक्त व्यवहार के साथ व्यापार की अनुमति देनी चाहिए ये क्षेत्र अपसा में भी व्यापार कर सकते हैं. देश के भूगोल को को कोरोना के हिसाब से दो हिस्सों में बांट देना चाहिए कोरोना मुक्त देश के थाने या जिले और कोरोना युक्त देश के थाने या जिले, कोरोना मुक्त देश के भाग पर उत्पादन और व्यापार की सम्पूर्ण छूट दें और कोरोना युक्त भाग पर कोरोना नियन्त्रण को फोकस कर उन्हें धीरे धीरे कोरोना मुक्त क्षेत्रों में बदलते जाये.
आज हम जो भुगत रहें हैं ये औद्योगिक क्रांति के बाद उपजे आर्थिक हालातों का दुष्परिणाम है जिसे हम अच्छे नियोजन से रोक सकते थे . माना की विकास जरुरी है लेकिन उससे ज्यादे जरुरी है विकास की गति क्या हो इसको समझना, लगातार तेज गति से दौड़ने से हार्ट अटैक भी आ सकता है, विकास की दौड़ यदि छोटी हो तो बहुत तेज दौड़ना न्यायसंगत हो सकता है लेकिन यदि विकास की दौड़ लम्बी हो तो बीच बीच में आराम और सांस लेने के लिए रुकना भी पड़ सकता है, कभी कभी धीमा भी चलना पड़ता है दौड़ाने की जगह तब जाकर विकास की दौड़ यदि मैराथन हो तो जीत सकते हैं. ठीक यही नियम दुनिया के देशों के विकास की दौड़ पर लागू होती है, ठीक है यह जरुरी है की देश विकास करे लेकिन यह जन मानस की सहूलियत और अनुकूलन के हिसाब से होना चाहिए. कई बार ऐसा लगे की जनमानस कुछ निर्णयों से परेशान हो रही है या उसका सांस फूल रहा है तो कुछ समय के लिए रूक कर ठहर कर माहौल के अध्ययन के लिए ही सही विकास के आगे सरवाईवल को प्राथमिक कर देना चाहिए. उदाहरण के तौर पर आज पेट्रोल और डीजल के दाम तेजी से बढ़ रहें है डॉलर के मुकाबले रूपया घटता ही जा रहा है और इसका कारण अन्तराष्ट्रीय मार्किट बताया जा रहा है. लेकिन यदि तेल के मूल्यों में वृद्धि के लिए अन्तराष्ट्रीय मार्किट ही वजह मान लें तो क्या यह जरुरी है की इस मार्किट से उपजे दबाब का सारा लोड आप जनता पर ही डाल के वसूल लें, वही हाल जीएसटी को लेकर है खासकर के कोरोना से लड़ने वाले उत्पादों पर लगने वाले जीएसटी को लेकर. वह सारा लोड सरकार खुद ले सकती है या यह लोड जनता के साथ शेयर कर सकती है , पूरा लोड जनता पे अगर डाल देंगे तो जनता त्राहिमाम त्राहिमाम करेगी, जो आजकल हो रहा है, हर व्यक्ति पेट्रोल डीजल और खाद्य तेल के बढ़ते मूल्यों से परेशान है बेचैन है और बहुत धैर्य से उनके मन मष्तिष्क के अवचेतन भाग में इस वृद्धि का दबाब बैठता जा रहा है और आज जनता सरवाईवल के लिए संघर्ष कर रही है. सरकार को यहं चिंतन करना पड़ेगा
सरकार के प्रयास तो ऊपर से ठीक दिखाई दे रहें हैं लेकिन ये सब दीर्घकालिक हैं, इकॉनमी को अभी तुरंत दर्द निवारक इंजेक्शन चाहिए जनतादर्द में है. इकॉनमी को अगर स्लो डाउन से बचाना है तो सबसे पहले समझना होगा की दिक्कत क्या है. पूंजीवादी अर्थशास्त्र की बजाय सरकार को सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र पे ध्यान देना पड़ेगा अर्थव्यवस्था के जैविक कारक को कितना लाभ हस्तांतरण हो रहा है वह भी देखना पड़ेगा. सिर्फ अपने खजाने को देखने की जगह अब सरकार को जनता के खजाने में घटोत्तरी न हो इसको भी देखना पड़ेगा. कहीं ऐसा न हो की ऊपर के विकास वाले लिस्ट के लिए हम जनता के खजाने को ही ख़त्म करते जाएँ. सरकार को समझना पड़ेगा कि जनता को आज जिन्दा रहना जरुरी है तभी वह कल आने वाले अच्छे दिन को देख पायेगी.
आज सुप्रीम कोर्ट ने मोरेटेरियम के लिए मना कर दिया जबकि कोरोना पार्ट दो तो पहले से ज्यादे खतरनाक है , ऐसे में नागरिक किश्त कहाँ से चुकायेंगे जब उनक सामने अपने जिन्दा रहने पर ही सवालिया निशान लगा हुआ है. सरकार को अब टैक्स की कटौती, राहत और वित्तिय पैकेज के अलावा चालू खाते और बैलेंस ऑफ़ पेमेंट को नियंत्रित करने के लिए सरकार को नीति के तौर पर भी बहुत कुछ करना पड़ेगा.
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