निजीकरण मीमांसा और प्रबंधन आयोग

अभी इसी हफ्ते सरकारी बैंकों के लाखों कर्मियों का राष्ट्रव्यापी दो दिवसीय हड़ताल था और उसका असर इतना था की स्वयं वित्त मंत्री को आकर प्रेस कांफ्रेंस करना पड़ा और इसकी सफाई देनी पड़ी. पिछले बजट में सरकार ने मंशा स्पष्ट कर ही दिया था की वह दो बैंकों को निजी करने जा रही है. इसके पहले 14  बैंकों का विलय पांच बैंकों में कर ही दिया गया है. इस निजीकरण से सरकार ने स्पष्ट किया की इसमें उन छः बैंकों को नहीं शामिल किया जायेगा जो पहले से विलय प्रक्रिया में हैं और साथ ही बैंक कर्मियों के वेतन एवं पेंशन पर भी असर नहीं आने दिया जायेगा, हालांकि बैंक कर्मियों को इस आश्वासन पर विश्वास नहीं है.  इसके पूर्व भी चर्चा थी की सरकार कई सारे PSU का विनिवेशीकरण कर रही है, सरकार का मानना है की ये घाटे में चल रहें हैं और सरकार इसे चलाने में सक्षम नहीं हैं, सरकार ने अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है की सरकार गवर्नेंस के लिए है व्यापार के लिए नहीं. लेकिन यहां मीमांसा यह है कि यदि सरकार सक्षम नहीं है तो प्राइवेट सेक्टर कैसे सक्षम है ? मतलब यह उद्यम तो लाभ का है बस या तो सरकारी निर्णयन , प्रबंधन या क्रियान्वयन में चूक हो रही है. सरकार एयर इंडिया भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन लिमिटेड , कंटेनर कारपोरेशन ऑफ  इंडिया लिमिटेड , शिपिंग कारपोरेशन ऑफ  इंडिया जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के विनिवेश के बारे में तेजी से सोच रही है. हालाँकि सवाल फिर यही है की ऐसा क्यों हो रहा  है ? जबाब यह है की ऐसे PSU को चलाने के लिए जो व्यवसायिक चातुर्य चाहिए उसे लोक सेवा आयोग में ढूंढा जा रहा है, एक आईएएस प्रशासन बेहतर कर सकता है व्यापारिक प्रबंधन तो नहीं , इसीलिए जरुरत  एक प्रबंधन आयोग की है जिसमें देश विदेश के उच्च प्रबंध संस्थानों के पेशेवर हों और इस तरह के PSU को वही चलायें न की लोक सेवा आयोग के सदस्य. लोक सेवा आयोग के सदस्य लोक सेवा के लिए ठीक हैं व्यवसायिक उद्देश्य के लिए इंडस्ट्री विशेषज्ञ लेना पड़ेगा, और यह बुनियादी गलती शुरू से हो गई है जिस कारणआज ये PSU अंतिम सांस ले रहें हैं. और जब तक वाणिज्यिक संस्थान आईएएस के नेतृत्व में रहेगा एक के बाद एक ऐसे ही निजी हाथों में जाता रहेगा।  इसीलिए निजीकरण एक पेन किलर दवा है स्थायी इलाज नहीं।

 

भारत के जो PSU हैं वो सिर्फ एक यूनिट ही नहीं हैं इनका एक रणनीतिक महत्त्व है, इनका विनिवेशीकरण का मेसेज बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा. हमें  यह बात समझना चाहिए कि कोई प्राइवेट कंपनी आकर क्या कमाल कर देगी? किसी को इनमें लाभ दिखेगा तो ही निवेश करेगी अन्यथा नहीं करेगी। विनिवेश से इक्विटि गवाने के बदले, प्रबंधन और कुछ पूंजी आएगी जिससे कि लोन चुकता किया जा सकेगा और नया प्रबंधन आएगा, नीचे का स्टाफ इंफ़्रा तो वही रहने वाला है। इसका मतलब मूल कारण प्रबंधन और कार्य संस्कृति है. प्रबंधन तो बिना इक्विटि गँवाए भी लाया जा सकता है  जैसे मेट्रो के लिए श्रीधरन और आधार अभियान के लिए नन्दन निलकेनी का नेतृत्व लाया गया था, सार्वजनिक उद्यमों के लिए भी यह निर्णय लिया जा सकता है। निजी मालिक आने पर कोई रातों रात जादू या इसका रातोंरात मेक ओवर नहीं करने वाले वह इसका या तो चेंज मैनेजमेंट करेंगे और ऋण और ऋण के ब्याज पे काम करेंगे , यह काम अब भी हो सकता है. टॉप मैनेजमेंट में बाहर से योग्य पेशेवरों को बैठा, ऋण का पुनर्गठन कर और कुछ गेस्टेशन पीरियड दे दे।  

 

दुनिया चारों तरफ सप्लाई चेन प्रबंधन की बात कर रही है, विश्व व्यापार में सप्लाई चेन एक बड़ा भविष्य है तो ऐसे में शिपिंग कारपोरेशन इंडिया लिमिटेड समेत  अन्य रणनीतिक महत्त्व की कम्पनियों को बेचने की भी एक बार मीमांसा होनी चाहिए क्या निजीकरण के अलावा भी कोई विकल्प हो सकता है। सिर्फ पैसे की  बात है तो उसके अनेकोनेक रास्ते हैं। अगर वाकई में इसमें सुधार करना है तो जो इसके प्रबंधन के लिए लोक सेवा आयोग से आईएएस को लेने की प्रक्रिया है सिर्फ उसे बदल दे तो ऐसे सरकारी व्यवसायिक उद्यम की किस्मत बदल सकती है. एक आईएएस लोक प्रशासन बेहतर चला सकता है उसकी एक विशेषज्ञता होती है उसमें एक व्यवसाय नहीं चला सकता है उसका अनुभव यहाँ काम नहीं आएगा. मेरा मानना है की सरकार बस यही एक निर्णय मान ले तो PSU के दिन बहुर आयेंगे और निजीकरण को कुछ दिन के लिए टाला जा सकता है और इस प्रयोग के सफलता और असफलता के बाद निर्णय लिया जा सकता है .

रही बात बैंकों के निजीकरण की तो इसके पीछे कई कारण हैंपहला वैश्विक जरूरतों और जिस तरह से वित्तीय इंस्ट्रूमेंट्स के आधार पर दुनिया में बैंकिंग चल रही है उससे सरकारी बैंक कदमताल नहीं कर पा रहें हैंबैंकों में ऋण निर्गत करने में जो पेशेवर रवैया होना चाहिए  वह नहीं विकसित हो पा रहा हैबैंक के बोर्ड में निदेशकों की नियुक्ति में भी राजनैतिक हस्तक्षेप की बात सुनाई देती हैपूर्व में एक फोन काल पर ऋण देने की खबरे आयी थीबैंकों के एनपीए बढ़ रहें हैं उनके बैलेंस शीट ख़राब हो रहें हैं और इनकी सेवा गुणवत्ता समयानुसार नहीं हैयही सब  कारण है जिससे कुछ बैंकों के निजीकरण का निर्णय लिया गया हैइससे एक बात समझ लेना चाहिए की ऐसा कोई  संकट आने वाला है जिससे छोटे व्यापारियों को ऋण नहीं मिलने वाला हैअभी भी माइक्रो फाइनेंस कंपनियां हैंये निजी बैंक खुद हैंसरकारी बैंक भी रहेंगे  ऐसा नहीं है ख़त्म हो जायेंगे और एनबीएफसी भी रहेंगेकुल मिला के बैंकिंग के हर तरह के मॉडल एक उचित अनुपात में रखने की सरकार की मंशा दिख रही है ताकि नए ज़माने की नई बैंकिंग लागू हो सकेरही बात जमा की सुरक्षा की वो वैसे भी किसी भी बैंक में बीमा से ही सिर्फ सुरक्षित हैएक बात और समझ लेनी चाहिए अन्य के निजीकरण और बैंक के निजीकरण में अंतर हैबैंक के निजी होने के बाद भी इनके ऊपर रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया नियामक के रूप में रहेगा उसके दायरे से ये बाहर नहीं जा सकते और बीमा कंपनियां भी आईआरडीए के नियमन में ही चलेंगी.    


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