गन्ने से कमाई

भारत में गन्ने को नकदी फसल में गिना जाता है और यह वह फसल है जिस पर बड़े पैमानों  पर बड़े कारखानों का निर्माण हुआ और अंग्रेजों ने गन्ने की खेती के ऊपर बड़ा काम किया चाहे वह गन्ने के परिवहन हेतु रेल लाइन बिछाना हो, चीनी के कटोरे के तौर पर पूर्वांचल में शुगर चेन का निर्माण करना हो या यहां से मजदूर ले जाकर मॉरिशस में चीनी के कारखाने खोलना हो. गन्ने के इस औद्योगीकरण के संस्थागत प्रयासों को देखकर ही बड़ी संख्या में किसान गन्ने की खेती करने लगे. लेकिन आज हालात दूसरे हो गए हैं, चीनी मिलें गन्ने के भुगतान में विलम्ब कर रहीं हैं तो कहीं सालों से बकाया है तो कहीं चीनी मिलें बंद पड़ी हैं, गन्ना कहीं खेतों में खड़े खड़े सूख जा रहें हैं तो कहीं जला दिए जा रहें हैं, आज भी गन्ना किसानों को लगता है कि यदि उनका गन्ना मिल ने नहीं उठाया तो वह बर्बाद हो जायेंगे. खांड़सारी मिलों का भी उतना विस्तार नहीं है जितना विकल्प बनने के उनके अंदर सम्भावना है. गन्ने के मिल उत्तर प्रदेश में भी है और महाराष्ट्र में भी है, महाराष्ट्र के गन्ने मिल छोटे छोटे भी हैं जैसे ५ टन १० टन के लेकिन उत्तर प्रदेश में बड़ी चीनी मिले हैं अतः कोई एमएसएमई उद्यमी चीनी मिल खोलने के बारे में सोचता भी नहीं है क्यों की उसके कल्पना में एक बड़ी जमीन पर विस्तृत चीनी मिल की कल्पना है.

गन्ना एक ऐसी नगदी फसल है जिसे किसानों ने स्वीकार किया है और सदियों से खेती होने के कारण इसके हुनर उनके अंदर विकसित हैं, यदि सिर्फ इसी फसल के बिक्री विभिन्न विकल्पों का अवसर उन्हें मिल जाये सिवाय सिर्फ चीनी मिल पर बेचने के तो उनकी आय दुगुनी होने से कोई रोक नहीं सकता।  इसके लिए सरकार को एग्रो इकॉनमी और माइक्रो इकॉनमी को मिला एक संगम प्लान बनाना पड़ेगा. छोटे छोटे शहरों में जो उभरते हुए उद्यमी या एमएसएमई उद्यमी हैं उन्हें चीनी के अन्य विकल्पों के उद्यम का अवसर तथा इसके लिए आवश्यक इंफ़्रा एवं संसाधन विकसित करने पड़ेंगे तब जाकर कस्बे और गांव के यही उद्यमी अपने आसपास के किसानों की समस्याओं के उद्धार  के माध्यम बनेंगे.

इन उद्यमियों और किसानों को बताना पड़ेगा और प्रशिक्षित करना पड़ेगा की वे गन्ने के अन्य विकल्पों पर कार्य करें. अभी हाल में ही उत्तर प्रदेश में गुड़ महोत्सव का आयोजन हुआ , अपने आप में यह एक बड़ा कदम है उस प्रदेश के लिए जहां सबसे अधिक गन्ना उगाया जाता है, दुनिया के सप्लाई चेन वालों की नजर इस महोत्सव पर गई और लोगों और किसानों को पता चला की चीनी तो ३० से ४० रुपया किलो बिकता है लेकिन गुड़ तो हजारों रूपये में बिक सकता है।  गुड़ के साथ एक फायदा यह भी है की इसमें आप कई फ्लेवर या कोई स्वास्थ्यवर्धक या औषधीय तत्व मिला इसके विविधतापूर्ण भिन्न भिन्न स्वाद के नाना प्रकार के गुड़ बना सकते हैं. आज कल शहरों, रेस्टॉरेंट्स में खाने के बाद गुड़ का प्रचलन बढ़ा है और चायोस जैसी चेन रेस्टॉरेंट तो बकायदे अब गुड़ की चाय बेचती है और यह लोकप्रिय भी है। ये छोटे उद्यमी चाहें तो गुड़ और गन्ने के जूस को एक केस स्टडी के रूप में ले सकते हैं. सबसे पहले हम गुड़ की बात करते हैं, ग्रामीण बाजारों में जहां गुड़ ४० से ५० रूपये किलो मिलता है जिसकी खरीद लागत ३० के आसपास होगी वहीँ शहरी बाजारों में यह २०० से ४०० रूपये किलो मिलता है. ४०० रूपये वाले गुड़ और प्राथमिक उत्पादक मतलब गुड़ उत्पादक के बीच की कीमतों का फासला जो ३७० रूपये का है वह ना तो इन किसानों को मिलता है और ना ही वहां के स्थानीय उद्यमियों को, मजे की बात है की ४०० रूपये वाले गुड़ में भी बिकता गुड़ ही है ऐसा नहीं है की कोई और प्रोसेसिंग होती है उसमें। उस उत्पाद का मूल गुड़ ही होता है लेकिन प्राथमिक उत्पादक को ३० रूपये और सप्लाई चेन में लगे लोगों को ३७० रूपये जबकि उनका योगदान बमुश्किल १० रूपये की पैकिंग का है. ठीक यही हाल है गन्ने के जूस का जो ८० रूपये में २५०  मिली मिलता है मतलब ३२० रूपये का एक लीटर और जबकि उस ३२०  रूपये के गन्ने के जूस में जो गन्ना लगा होगा वह ४ रूपये का भी नहीं होगा। यदि इसी गन्ने के जूस बनाने का विकल्प स्थानीय उद्यमी अपना ले और इसे सप्लाई चेन से जोड़ के बेच दें तो आप कल्पना करिये की गन्ना किसानों से लगायत स्थानीय अर्थव्यवस्था को कितना लाभ होगा. हमें उस मानसिकता से निकलना होगा की की फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट बड़े पैमाने पर ही खुल सकते हैं, छोटे छोटे प्रोसेसिंग यूनिट चाहे गुड़ या जूस बनाने को हो या पैकेजिंग यूनिट ये पुरे इकोसिस्टम को बदलने की क्षमता रखते हैं।  और ऐसे उद्यम १ लाख से १० लाख के अंदर ही लगाए जा सकते हैं.

ऐसा  नहीं है की गन्ने से सिर्फ चीनी, गुड़ या जूस ही बनाये जाते हैं इसके अन्य विकल्प भी हैं। गन्ने से बनने वाले उत्पादों में पेपर, पेपर बोर्ड, गत्ता ,अल्कोहल, मोलाइसिस , कैटल  फ़ीड, टिशू पेपर, गन्ना कोला, कई प्रकार की मिठाई, प्लास्टिक की बोतलें, कम्पोस्ट खाद, टेबल वेयर, पेपर प्लेट, पेपर कप, लोकल रेड वाइन, शुगर कैन स्टिक , फैनी, चॉकलेट्स, गन्ने का खमीर, बॉयलर और थर्मल प्लांट के लिए ईंधन के रूप में बगास बेल्स, मॉस्किटो कॉइल्स, एसिटिक एसिड, खाद्य स्ट्रिप्स, चिक्की, हैट, जीन्स, गन्ना सोडा, परिवहन में लगने वाला एथेनॉल, बायो-हाइड्रोकार्बन-जहां वैज्ञानिक गन्ने का उपयोग ईंधन का उत्पादन करने के लिए कर रहे हैं, जो पेट्रोल, डीजल और जेट ईंधन के स्थान पर विकल्प बन सकता है,  गन्ने के बायोमास को जलाकर बायो बिजली आदि आदि. चिक्की का पूरा बेस तो गुड़ पर ही टिका रहता है जबकि यह बहुत बड़ी प्रक्रिया नहीं मांगता है.

गन्ने के इतने सारे विकल्प हैं छोटे बड़े की सनातन अर्थशास्त्र पर आधारित आर्थिक व्यवस्था का पूरा इकोसिस्टम खड़ा हो सकता है जरुरत है चीनी के अलावा जो अन्य विकल्प हैं उनके उद्यमों को इनके उत्पादक क्षेत्रों में बढ़ावा देना ताकि किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए बाहर न जाना पड़े, उनके आसपास का, घर का, गांव का युवा या व्यापारी ही इसे खरीद कर ग्लोबल सप्लाई चेन में डाल दे।  अब तो सप्लाई चेन गोपनीय भी नहीं रह गया है अमेजन समेत तमाम ऐसे प्लेटफॉर्म है जहां से जुड़कर आप गांव में रहते हुए ग्लोबल सप्लाई चेन का हिस्सा हो सकते हैं, इन स्थानीय व्यापारियों, उद्यमियों एवं किसानों को कुछ नहीं करना है ये ग्लोबल सप्लाई चेन वाले माल उठाने बेचने और भुगतान देने सब तरह की सुविधा के प्लेटफॉर्म होते हैं, जरुरत बस जागरूकता और गहन अभियान के साथ दृष्टि की है।          


Comments

Unknown said…
छोटे पैमाने पर काम कैसे करे ....इसका रॉड मैप बताइए भैया