किसानों के नाम पंकज गाँधी जायसवाल का खुला पत्र

प्रिय किसान बन्धु सादर नमस्कार आपकी पीड़ा को महसूस कर उसी पीड़ा से यह पत्र लिख रहा हूँ. जैसा की ज्ञात हो ८ दिसम्बर को आपके द्वारा भारत बंद का आवाहन किया गया है साथ में अल्टीमेटम भी दिया है की सरकार यदि तीनों कानूनों को वापस नहीं लेती है तो यह धरना अनंतकाल तक चलेगा. हालाँकि लम्बे अरसे के बाद किसानों के आन्दोलन को देखकर इस बात का संतोष रखना चाहिए की अभी तक लोकतंत्र जिन्दा है और लोगों ने आन्दोलन और अहिंसक धरने को अभी भी आन्दोलन के स्वरुप में बरकरार रखा है अन्यथा सोशल मीडिया और मोमबत्ती मार्च से लगता था की खांटी आन्दोलन के दिन लद गए, अतः शांतिपूर्ण आन्दोलन और कानूनों की समझ को लेकर हो रहे आन्दोलन का प्रथम तौर पर स्वागत करना चाहिए. लेकिन एक जिम्मेदारी आप जैसे आन्दोलनकारियों की भी बनती है की वह इस वर्चुअल दौर में आन्दोलन की प्रासंगिकता बरकरार रखें और उसे सफल बनायें बजाय डेडलॉक की तरफ बढ़ने के. आन्दोलन के बाद सरकार ने अगर बातचीत के हाथ बढ़ाएं हैं तो इसे आपकी तरफ से एक आन्दोलन कमेटी बना बहुत ही परिपक्वता से आगे बढ़ना पड़ेगा. इस सम्बन्ध में मेरे कुछ सुझाव हैं , पहला सुझाव है की किसी भी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उसके सस्टेनेबल मॉडल को अपनाना पड़ता है और उसके क्या परिणाम प्राप्त करने हैं यह निश्चित कर आगे बढ़ना पड़ता है. यहाँ मैं आपको सलाह दूंगा की आप गांधी जी के आन्दोलन सूत्रों से सीखें. यहाँ मै गाँधी जी के कुछ उदाहरण बता रहा हूँ जिसका इस्तेमाल कर आप अपने आन्दोलन को सफल बना सकते हैं. गाँधी सदैव सामने वाले के ह्रदय परिवर्तन के लिए आन्दोलन करते थे , गांधी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करते हुये भी राजनिष्ठा से स्वाभाविक प्रेम किया करते थे और दक्षिण अफ्रीका मे उन्होने “ गॉड सेव द किंग” बिना किसी आडंबर के गाये थे। गांधी कभी दुर्भावना नहीं रखते थे वो तो सामने वाले व्यक्ति के हृदय से दुर्भावना निकालने मे ही लगे रहते थे। दक्षिण अफ्रीका मे एक चर्चा के दौरान डॉ बूथ से उन्होने कहा था “ शत्रु कहलाने वाले लोग दगा ही करेंगे यह कैसे मान लिया जाए? यह कैसे कहा जा सकता है कि जिन्हे हमने अपना शत्रु माना वे बुरे ही होंगे”। गांधी हमेशा अपने बयानों एवं कदमों का स्वतः आत्मपरीक्षण किया करते थे, और अगर उन्हे लगता था कि उनका कदम या बयान गलत संदर्भ मे जा रहा है तो आगे बढ़कर स्थिति को संभालते थे और कई बार तो सार्वजनिक माफी भी मांगते थे। आंदोलन को स्थगित एवं बंद करने का भी साहस उनमे था अगर उन्हे लगता था कि इस आंदोलन के लिए आत्मसुधार पहले जरूरी है। गांधी खुले मन से , आत्मविश्वास से ईश्वर एवं सत्य कि शक्ति पे विश्वास करते हुये सामने वाले का हृदय परिवर्तन करना चाहते थे। उनके सिद्धांतों से ऐसा लगता था कि किसी पे दवाब डालना हिंसा का ही एक रूप है। इसलिए उनका अनशन अक्सर आत्मसुधार के लिए होता था वनिस्पत दवाब बनाने के और ये बारीकी हमे बहुत गहराई से गांधी के सत्य के प्रयोग का अध्ययन करने पे ही प्राप्त होगी । आपको सर्वप्रथम इन्ही सूत्रों को आत्मसात करना पड़ेगा. गांधी की समझौता वृत्ती उन्हे उनके मंजिल कि तरफ जाने मे एक सीढ़ी एवं गति का बढ़ाने का काम करती थी। अपने सत्य एवं मंजिल कि राहों मे वो कभी भी ऐसी बातों को टकराव का मुद्दा नहीं बनाते थे जिससे की मूल विषय से उनका फोकस चेंज हो जाए। मुद्दो के प्रति अपने फोकस को वो किसी भी कीमत पे चेंज नहीं होना देने चाहते थे और दूरदृष्टि मे अपने विवेक एवं विश्लेषण का प्रयोग करते थे। गांधी का व्यक्तित्व जमीन को दृढ़ता से पकड़े हुये एक लचीले वृक्ष के समान था जिसको ये एहसास था कि उन्हे असंख्य राहगीरों को छाया देना है, अतः अकड़कर टूटने से ज्यादे वो वृक्ष कि जड़ कि दृढ़ता को बनाए रखते थे और अनावश्यक आंधीयों से टकराने मे वक़्त जाया नहीं करते थे।और इसीलिए नेटाल के एक वकील सभा मे जब न्यायाधीश ने गांधी के प्रवेश का फैसला सुनाया और उन्हे पगड़ी उतारने को कहा तो गांधी स्वतः ही पगड़ी उतारने को राजी हो गए, अनावश्यक अकड़ और घमंड से कोसों दूर रहते थे। हालांकि इसके पहले हुयी एक घटना मे उन्होने लाख दवाब के बाद पगड़ी उतारने से मना कर दिया था। उनका मानना था की न्यायालय मे कार्य करते वक़्त न्यायालय का नियम पालन करना चाहिए तथा पगड़ी पहनने की अनावश्यक दृढ़ता उन्हे उनके उद्देश्यों से उन्हें भटका देगी । हालांकि उनके कई मित्र उनके इस समझौते वृत्ती से नाराज़ रहते थे लेकिन गांधी जड़ की दृढ़ता बनाए रखते हुये अपने तने एवं टहनियों को लचीला बनाए रखते थे। आपके आंदोलन मे जड़ की दृढ़ता तो दिख रही लेकिन तने एवं टहनियों का लचीलापन गायब दिख रहा जहाँ तक निर्णयों पर पहुँचने का सन्दर्भ है। गांधी का व्यक्तित्व प्रतिपक्षी को भी न्याय दिलाने मे विश्वास रखता था. यही बात एक बार कलकत्ता मे “इंगलिशमैन” के संपादक ने गांधीजी के बारे में कही की गांधी मे अतिशयोक्ति का अभाव एवं पूर्ण कर्तव्यपरायणता थी। उनका मानना था की गांधी गोरों का पक्ष भी निष्पक्षता से रखते थे और वे ये विचार रखते थे की प्रतिपक्षी को न्याय दिला के ही न्याय को जल्दी पाया जा सकता है। आपके आंदोलन मे आपके प्रतिपक्षियों ( सत्ता पक्ष ) पे आपका पूरा विश्वास नहीं दिख रहा आप अपने प्रतिपक्षी मतलब सरकार के प्रति संदेह के नजरिये से बातचीत कर रहें हैं . गांधीजी एक व्यक्ति के प्रति दोनों भाव रखते थे। गांधी समूचे समुदाय या व्यक्ति से घृणा नहीं करते थे, बल्कि वो उनके दोषो से घृणा एवं गुणों से प्यार करते थे, और एक व्यक्ति के प्रति दोनों भाव रखते थे। सामने वाला अंग्रेज़ है या हिंदुस्तानी इससे उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन इस आन्दोलन में ऐसी बात दिखाई पड़ती है की आपको सत्ता पक्ष से समझौता करना ही नहीं है और आप उसी तरफ बढ़ रहें हैं । गाँधी जी की एक घटना बताता हूँ आपको, डरबन की समुद्र यात्रा के दौरान जब समूचे जहाज को प्लेग के कारण सूतक घोषित कर के बन्दरगाह के पहले ही रोक लिया गया तो जहाज के कप्तान के एक प्रश्न पे जिसमे उन्हे गोरों द्वारा गांधी को चोट पहुंचाने की बात कही गयी थी के जवाब मे गांधी ने कहा था- “ मुझे आशा है की उन्हे माफ कर देने की और उनपर मुकदमा न चलाने की हिम्मत ईश्वर मुझे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं है, उनके अज्ञान , संकुचित दृष्टि के लिए मुझे खेद होता है, मैं समझता हूँ की जो वो कर रहे हैं वह उचित है ऐसा वे शुद्ध भाव से मानते हैं, अतएव मेरे लिए रोष का कोई कारण नहीं है” . गांधी का आशय था की व्यक्ति कोई गलती अज्ञानता के कारण ही करता है, अतएव प्रयास उसकी अज्ञानता दूर करने का किया जाना चाहिए न की उससे द्वेष करने का। जबकि आप सरकार के खिलाफ कई मौकों पे आवेशित दिखे लेकिन गांधी मे इसी आवेश की अनुपस्थिति थी। गांधीजी ने अपने लिए कोई दायरे नहीं बनाए गांधी का दृढ़ विश्वास था की व्यक्ति की आत्मा पवित्र होती है और जब उसे अपनी भूल का एहसास होगा तो वे शांत हो जाएंगे, अतएव वो किसी से भी दूरी बना के नहीं रखते थे। लेकिन यहाँ पे ऐसा प्रतीत होता था आपके आन्दोलन की टीम शुरू से ही कुछ दायरे निश्चित कर लिए हैं। जबकि गांधी ने कभी दायरा निश्चित नहीं किया था। और सबसे महत्वपूर्ण बात गांधी जी की जिससे आपको आन्दोलनकारियों को सीख लेनी चाहिए की सत्याग्रही को प्रतिपक्षी का दृष्टिकोण समझ उसके संभव अनूकूल होना होता है. एक बार तो जब गांधी जी सत्याग्रह के लिए पूरी तरह से तैयार होकर हिन्दुस्तान आए तो तत्कालीन बंबई के गवर्नर ने उन्हे विशेष तौर पे गोखले के मार्फत बुलाया, और उनसे ये वचन मांगा की सरकार के खिलाफ आप जब भी कोई कदम उठाएँ एक बार उनसे बात कर लिया करें। आगे जो बात उनसे गांधी ने कही उसे बड़ा गौर से सुनिएगा ये उनके सत्याग्रह का सबसे प्रमुख दिग्दर्शी सिद्धान्त थे। गांधी ने कहा “ ये वचन देना मेरे लिए बहुत ही सरल है। क्यों की सत्याग्रही के नाते मेरा ये नियम ही है की किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना है तो पहले उसका दृष्टिकोण उसी से समझ लूँ और जिस हद तक उसके अनूकूल होना संभव हो उस हद तक अनुकूल हो जाऊँ। दक्षिण अफ्रीका मे मैंने सदा इस नियम का पालन किया है और यहाँ भी ऐसा ही करने वाला हूँ।" मुझे लगता है गांधी के सत्याग्रह के उपरोक्त दिग्दर्शी सिद्धान्त से आपको और आपके मित्र आन्दोलनकारियों को दिशा लेनी चाहिए। गांधी सत्याग्रह का प्रयोग हृदय परिवर्तन के लिए ही करते थे न की दवाब लाने के लिए, उनका स्वाभाविक विश्वास था की सब एक ही ईश्वर की संतान है और उनमे सुधार ला के काम हो सकता है। इसीलिए तो एक बार नेटाल मे उन्होने गोरों के खिलाफ, मुकदमा चलाने से इंकार कर दिया जबकि जब गोरों ने उनपे हमला किया था । इस इंकार के बाद गोरे इतना शर्मिंदा हुये की कई के विचार गांधीके प्रति बदल गए और वो उनकी बातों को सुनने लगे। किसानों को भी यही सूत्र अपनाना होगा ताकि वह और सरकार एक पेज पर आ सकें. गांधी के सत्याग्रह के दूसरे दिग्दर्शी सिद्धांतो मे था कि “सत्य का आग्रही रूढ़ि से चिपटकर ही न कोई काम करे, वह अपने विचारो पे ही न हठ पूर्वक डटा रहे , हमेशा यह मानकर चले की उसमे भी दोष हो सकता है और जब कभी भी दोष भी दोष का ज्ञान हो जाए भारी से भारी जोखिमों को उठाकर भी उसे स्वीकार करे और प्रायश्चित भी करे”. जबकि इस आंदोलन के दौरान हठ का प्रभाव दिखा। हालांकि सरकार की तरफ से भी गलतियाँ हुईं, फिर भी कई ऐसे मौके आए की बात बनती आ रही थी और कई खूबसूरत मोड़ आ रहे थे जिससे आंदोलन को लंबा और दीर्घायु रखा जा सकता था जब तक की एक सर्वमान्य कानून नहीं आ जाता, यहाँ पर यदि अति आवेश मे चूक हुयी और आपकी टीम हठ पे अड़ी रही तो एक अच्छे आन्दोलन का असफल होना लोकतन्त्र के लिए अच्छा नहीं होगा । आपका दवाब की आप ही की बात मानी जाए और जस का तस मान लिया जाए, कानून रद्द किया जाय आपको और आपके आन्दोलन को गांधी के सिद्ध्नातों से अलग करता है । गांधी को अपने सत्याग्रह पे इतना विश्वास था की वो आपकी तरह ठगे जाने से बिलकुल नहीं डरते थे।गांधी ने अपने सत्याग्रह के तीसरे दिग्दर्शी सिद्धांतों मे ये बातें विलायत मे सोराब जी से कहीं थी की “सत्याग्रही तो ठगे जाने के लिए ही जन्म लेता है, लेकिन अंत मे तो वही ठगा जाता है जो ठगने वाला होता है। मुझे तो कभी भी ठगे जाने का भय नहीं रहता है और ईश्वर की न्यायबुद्धि पे मुझे पूरा विश्वास है ।" ऐसे थे गांधी और उनका सत्याग्रह। मैंने ये पत्र आपको इसलिए लिखा की गांधी के सत्य के प्रयोगों को मर्म आपके सामने ला सकूँ, लेखक के रूप मे मैने तथ्यों के संकलन को यांत्रिकता प्रदान की है , लेकिन यकीन मानिए की संपूर्णता मे पता नहीं इस तथ्यात्मक यांत्रिक लेख कैसा गतिमान आशय ले के आए मेरा आशय गांधीके सत्य की शक्ति को उजागर करना और किसानों के साथ न्याय दिलाना था ताकि संवाद कायम हो और विवाद ख़त्म हो। मेरी मंशा है की आप और आपके आन्दोलनकारी मित्र इन दिग्दर्शी सिद्ध्नातों से प्रेरणा लें और खुद से स्वतंत्र निर्णय लें, उन्हें योगेन्द्र यादव या अन्य विचारकों के दबाब में नहीं आना चाहिए अपने विवेक से निर्णय करना चाहिए. मैंने भी बिल पढ़ा है और यह वर्षों से मेरे सहित स्वामीनाथन कमेटी और यहाँ तक की किसानों और आज के विपक्ष के नेताओं की भी यही मांग थी की बिचौलियों को खत्म किया जाय और किसानों को बाजार से डायरेक्ट किया जाय. इस बिल ने यही किया है और उम्मीद से ज्यादे ही बाजार से डायरेक्ट किया है, अब उन्हें फसल के लिए दरवाजे दरवाजे मंडी मंडी नहीं टहलना है खरीददार दरवाजे पर आएगा. अतः बिल को समग्रता में समझ कर किसानों को निर्णय लेना पड़ेगा. यह कानून वर्षों के मंथन, स्वामीनाथन कमेटी के अलावा कांग्रेस द्वारा भी पूर्व में किये गए प्रस्तावों को समाहित कर बनाया गया है अतः शत प्रतिशत गलत हो ऐसा हो नहीं सकता यह उन्हें समझना चाहिए. हाँ यदि कुछ क्लाज छूट गए हैं, भ्रम पैदा करने वाले हैं किताबी ज्यादे हैं व्यवहार में फेल होने वाले हैं ऐसे बिन्दुवों की सूची बना उसपर बात करनी चाहिए बजाय इसके की पूरी कानून वापस ली जाए. बातचीत की प्रक्रिया जो छूट गई थी उसे अभी पूरा कर लें सरकार सामने से आ रही है गांधी की तरह इस मौके को चूकें नहीं इस पर चौका मार लें. बाकियों को अपनी प्रोफाइल बनानी है आप अनाम किसानों को अपना जीवन और परिवार और पीढ़ियों का हित बनाना है. मैंने कानून और रूल दोनों पढ़े साथ में सरकारी प्रेस रिलीज दोनों पढ़ी, कानून और रूल में MSP का उल्लेख नहीं है हालाँकि लिखित प्रेस रिलीज में है ऐसा मैंने भी देखा लेकिन कानून में एक जगह यह स्पष्ट लिखा हुआ है कानून की प्रस्तावना के अनुरूप सरकार रूल एवं रेगुलेशन बनाएगी और मुझे लगता है की MSP शायद इसी के तहत आता होगा इसलिए उसके लिए अलग से क्लाज नहीं रखा. लेकिन चूँकि सरकार प्रेस रिलीज में मौखिक रूप से और आधिकारिक बयान में बार बार यह दुहरा चुकी है की MSP से नीचे कोई किसानों से खरीद नहीं सकता है तो ऐसे में उन्हें इसके क्लाज को ही अलग से एक्ट में स्पष्ट रूप से शामिल कर लेना चाहिए की MSP की पिछली व्यवस्था लागू रहेगी और कोई भी इससे कम के मूल्य में नहीं खरीदेगा और कोई खरीदेगा तो उसे सजा मिलेगी, सरकार जो चीजें प्रेस रिलीज में कह रही है इसे कानून में परिभाषित कर दे. ऐसे में यदि सरकार कानून में MSP के क्लाज को शामिल कर लेती है तो मेरे लिहाज से आन्दोलन का सुखांत यही कर देना चाहिए. यदि MSP के क्लाज को एक्ट में शामिल करने की मांग सरकार द्वारा माने जाने के बावजूद आप कानून वापस लेने पर अड़े रहते हैं तो आप जाने अनजाने में अपने हक़ के खिलाफ बिचौलियों को ही मजबूत कर देंगे. मैंने अपनी आँखों से देखा है की बिचौलिए कैसे किसानों को मंडी से पहले ही तुरंत नकदी भुगतान कर उनका धान गेंहू खरीद लेते थे. मेरे कसबे निचलौल में मंडी है और मैंने देखा था मंडी के रस्ते में कई गल्ले के व्यापारी दरी बिछा के बैठे रहते थे और कई भोले भाले व्यापारियों का का माल मंडी से पहले ही खरीद लेते थे, इस कानून की असल चोट ऐसे दरी बिछाये बिचौलियों पर पड़ी है. आज किसानों के सारे द्वार खोल दिए गए जिससे यह दरी वाले बिचौलिए घबड़ा गए क्यों की इनका एकाधिकार टूट गया. जो लोग किसानों को यह समझा रहें हैं की भण्डारण पर रोक हटने से कॉर्पोरेट उनके फसल का भण्डारण कर उनका दर गिरा देगा, तो उन्हें बता दू की अर्थशास्त्र का साधारण सा नियम है की जब खरीददार बढ़ते और सप्लाई स्थिर रहती है तो सप्लायर को मूल्य ज्यादे मिलता है, और यहां तो सप्लाई तो वही है खरीददार कई स्तर के कई बढ़ गए तो मतलब खरीददार बढ़ गए तो फायदा किसको? आपूर्तिकर्ता को, आपूर्तिकर्ता कौन? किसान, तो फायदा किसको? किसान को. दूसरी बात यदि कोई भण्डारण करता है उससे मध्य वर्ग को नुक्सान होता है क्यों की मूल्य की वसूली उससे होनी है, भण्डारण करने वाला तो किसान से खरीदता है खरीदकर ही भण्डारण करता है इसमें किसान को तो पहले ही पैसा मिल चूका है यहाँ किसान को कोई नुक्सान नहीं है मध्य वर्ग को नुकसान है. दूसरा कोई यह कहे की सीजन में भण्डारण करने वाला माल निकाल किसानों का रेट गिरा देगा तो यह पागलपन की सोच है क्यों की किसानों से दुश्मनी वह अपने ही उत्पाद को ग्रॉस लोस में बेच कर थोड़े ही निकालेगा और व्यापक स्तर पर उसे किसानों से क्या दुश्मनी? अंत में मेरा यही कहना की भविष्य में भी आन्दोलनों को लोकतंत्र में ज़िंदा रखने के लिए आप दोनों पक्षों को समझौते पर आना जरुरी है दोनों को यथोचित लचीला होना जरुरी है और इस आन्दोलन का कड़वा स्वाद होने की जगह सुखांत होना जरुरी है. सादर आपका शुभचिंतक, गांधी के सिद्ध्नातों से आपको दिशा देने का एक लघु प्रयास पंकज गाँधी जायसवाल आर्थिक एवं सामजिक विश्लेषक

Comments

Ashok Gupta said…
A lot of good steps to nurture the family & the leadership of farmers with the truly based on Gandhian thought, are appreciative in nature.
I think the farmers must take initiative to discuss with the'ours govt.'& thus revive the domain of democracy system.
Regards:
Ashok Gupta