शांति ही उन्नति है

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: । वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:, सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि ॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥ यजुर्वेद के इस शांति पाठ मन्त्र को आप पढेंगे तो आप पाएंगे की इसमें इश्वर से शांति बनाये रखने की प्रार्थना की गई है. इसका आशय यह हुआ की जीवन और पृथ्वी का अनंतिम उद्देश्य शांति ही है उथल पुथल या युद्ध नहीं, भागम भाग तनाव नहीं, पैसों की बेतहाशा दौड़ नहीं. इस मन्त्र में बताया गया है की जगत के समस्त जीवों, वनस्पतियों और प्रकृति में शांति बनी रहे इसीकी प्रार्थना की गई है. इसका शाब्दिक अर्थ निकालें तो इसमें कहा गया है कि हे परमात्मा स्वरुप चारों तरफ शांति हो, वायु में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हो, जल में शांति हो, औषधियों में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवता शांत हों, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारो ओर शांति हो, परमपिता परमेश्वर शांति हो, शांति हो, शांति हो.



इस मंत्र का अर्थ यह बताता है कि हवा में भी सभी स्तरों पर शांति की आवश्यकता होती है, हमारी प्रगति का मतलब वायु की गुणवत्ता और वायु संतुलन को नुकसान नहीं होना चाहिए, ग्रहों में शांति का मतलब है कि हमें ग्रह संतुलन को नहीं मारना चाहिए, पृथ्वी पर शांति का अर्थ है पृथ्वी के इको संतुलन का सम्मान करना प्रकृति, पर्यावरण, मानव और भगवान के अन्य जीवों के बीच संतुलन शामिल है ताकि जीवन लंबा रह सके, पानी में शांति का मतलब है कि हमें प्रदूषण नहीं करना चाहिए और इसे जहरीला नहीं बनाना चाहिए, जड़ी-बूटियों में शांति का मतलब है कि हमें औषधीय की विधि और डीएनए में बदलाव नहीं करना चाहिए पौधों और विनाश के लिए प्राणियों के बेहतर उपयोग के लिए उन्हें रखें, पौधों में शांति का मतलब है कि हमें पौधों के डीएनए में परिवर्तन नहीं करना चाहिए और रसायनों के विभिन्न उपयोगों के माध्यम से इस जहरीले नहीं बनाना चाहिए, दुनिया में शांति का मतलब है दुनिया में संतुष्टि और खुशी की स्थापना मनुष्य, पौधे, पशु और पर्यावरण और लोगों, समाज और राष्ट्रों के बीच, ईश्वर को शांत रखने का अर्थ है कि प्राणी का सम्मान करें और भगवान को स्वीकार करें, ब्राह्मण को शांति दें ज्ञान और ज्ञानवान व्यक्ति का सम्मान करते हैं, और इसके माध्यम से हर जगह शांति बनाए रखते हैं।

अगर आप आज पृथ्वी पर देखें तो पाएंगे की सब ओर वैज्ञानिक विकास तो हो रहा है लेकिन शांति कहीं नहीं हैं. ना तो व्यक्ति सुखी है, ना तो परिवार, ना गाँव ना समाज और ना राष्ट्र. विकास और शक्ति इकट्ठी करने की दौड़ ने सबको अशांत कर दिया है. व्यक्ति अपने घर में शक्तिशाली होना चाहता है तो वहीँ कुछ लोग परिवार, गाँव, समाज और राष्ट्र में शक्ति संपन्न होना चाहते हैं. विकास का क्रम टकराहट का निर्माण कर रहा है. एक राष्ट्र दुसरे राष्ट्र से शक्ति संपन्न होना चाहते हैं. जीवों और पृथ्वी का पारिस्थितिकीय संतुलन डगमगा गया है, मनुष्य जाति खुद इतनी शक्तिशाली हो गई है की उसने अपने इश्वर भी अपने जैसे गढ़ लिए हैं और इश्वर की दूसरी संतान जैसे की अन्य जंतु एवं जीवों को तुच्छ समझने लगा है, वह लगातार उनका भक्षण करने लगा है, यह जानते हुए भी कि उनमें भी जान और भावनाएं हैं. इस तरह विकास, विलासिता और शक्तिशाली बनने की इस होड़ ने इस पृथ्वी का संतुलन खो दिया है और पृथ्वी पर अशांति बढ़ा दी है. पृथ्वी पर चाहे परमाणु बम से किया गया विनाश हो या कोरोना वायरस का प्रहार हो कहीं न कहीं इसमें विकास की दौड़ में मनुष्य द्वारा शांति के सूत्र में किया गया छेड़छाड़ है और जब तक इस तरह की छेड़छाड़ की जाती रहेगी पृथ्वी पर इससे भी बड़े बड़े संकट आने की सम्भावना है. यह असंतुलन खुद पृथ्वी पर या ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के आस्तित्व पर खतरा पैदा सकती है.

उन्नति का एक उद्देश्य और होता है जो इस सूत्र में हैं . सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत। ऊँ शांतिः शांतिः शांतिःII इसका अर्थ होता है "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मङ्गलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"। विकास के बिन्दु की परिभाषा तो भारतीय पुराण के इस श्लोक में पहले से ही मौजूद है। दरअसल विकास का बिन्दु होता है पारिस्थितिकीय तंत्र का अनुकूलतम बिन्दु जहां पारिस्थितिकीय तंत्र संतुलित होकर आगे की वर्षों की ओर अग्रसर हो और उस ग्रह की और उसके पारिस्थितिकीय तंत्र की आयु लंबी होती जाए। कोई भी ऐसा विकास जो ग्रह और उसके पारिस्थितिकीय तंत्र के विकास को अवरुद्ध करता हो, उसे परेशान करता हो, उससे छेड़छाड़ करता हो वह विकास की उल्टी धारा होगी। किसी भी विकास का भोग उस तत्कालीन समय का पारिस्थितिकीय तंत्र ही करता है। मानव के रूप में हम सौ सौ वर्ष के जीवन काल के उसके भोगकर्ता हैं अगर किसी विकास से हमारा जीवन काल सौ वर्ष से कम होता है, या मानव जीवन ही खतरे में पड़ जाता है तो वह विकास नहीं हो सकता है। यही सूत्र इस ग्रह और ग्रह  के सभी प्राणियों एवं वनस्पतियों एवं प्रकृति पर लागू होता है। प्रकृति अपने आप में स्वयं ही नियंत्रक की भूमिका में होती है अगर कोई विकास प्रकृति को छेड़ते हुए बनाया जाएगा तो कई बार प्रकृति को आगे आकर चाबुक चलाना पड़ता है जिससे मानव जीवन के साथ अन्य प्राणियों को अपनी आहुति देनी पड़ती है, जैसा हम आजकल कोरोना काल में महसूस कर रहें हैं।



वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो पृथ्वी एवं मानव जीवन पर सबसे बड़े खतरे के रूप में ग्लोबल वार्मिंग, ओज़ोन परत की छेद एवं कोरोना का प्रकोप है है।  अगर ग्लोबल वार्मिंग एवं ओज़ोन परत की छेद से आगे आने वाले कुछ सालों में पृथ्वी पर जीवन और जीवन में खासकर के मानव, जंतुओं एवं वनस्पतियों का आस्तित्व ही खत्म हो जाएगा तो ऐसे विकास का कोई मतलब नहीं होता है। इसका सबसे बड़ा अपराधी मानव स्वयं है, क्यूँ की सिर्फ और सिर्फ मानव ने ही बुद्धि के विकास के साथ प्रकृति एवं पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ सबसे ज्यादे प्रयोग किये हैं , ऐसे मानव को कोई भी विकास या भोग तत्काल फायदे एवं पारिस्थितिकीय तंत्र के खिलाफ नहीं करना चाहिए जो इस पृथ्वी का जीवन ही खत्म कर दे और खतरे में डाल दे। जैसे कि परमाणु बम एवं जैविक बम का आविष्कार, आखिरकार इस आविष्कार से क्या फायदा जो मानव जीवन को ही खत्म कर दे इससे ज्यादे और बड़ा ताकतवर आविष्कार तो एक शब्द में समाहित है “भाषा” एवं उसके द्वारा  “संवाद”। संवाद के इस्तेमाल से ही बहुत सी समस्यावों को समाप्त कर सकते हैं, ऐसे में हथियारों का आविष्कार थोड़े ही विकास का पैमाना माना जाएगा। अभी हाल में उत्तरी कोरिया और अमेरिका के बीच होने वाले परमाणु युद्ध की आशंका को संवाद ने ही तो ख़त्म किया. एक छोटा सा देश जहां के सब लोग सुखी एवं प्रसन्न हो भले ही वहां के लोग बुलेट ट्रेन या हवाई जहाज से न घूमते हो उसे किसी भी देश से ज्यादे विकसित कहा जाएगा जहां बुलेट ट्रेन एवं जहाज और बम होने के बाद भी वहाँ के लोग अन्य प्राणी एवं पारिस्थितिकीय तंत्र दुखी, तनाव, रोगयुक्त एवं आसपास की अप्रिय घटनावों से दुखी हो। इसलिए हमें विकास के संतुलन बिंदु को खोजना पड़ेगा ना की सर्वोच्च बिंदु. इसलिए आर्थिक विकास अर्थशास्त्र का शाश्वत उद्देश्य नहीं है, शांति है, शांति ही उन्नति है।

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