ऑटो उद्योग एवं संकट



 

 ऑटो उद्योग और संकट


इस समय भारत में ऑटो उद्योग भारी संकट से गुजर रहा है. फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन ने बताया कि भारत में पिछले तीन माह के दौरान ऑटोमोबाइल डीलरशिप स्टोर से करीब दो लाख लोगों को नौकरियों से निकाला गया है। फाडा के अनुसार अगले कुछ माह में इस ट्रेंड में सुधार के आसार नहीं दिख रहें हैं और लगता है इससे इस सेक्टर में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ेगी।

फाडा ने इस मामले में सरकार से तत्काल प्रभाव से कदम उठाने की बता कही। इन कटौतियों में सबसे ज्यादे कटौती फ्रंट सेल्स सेक्टर में हुई हैं। और यदि यही ट्रेंड जारी रहता है तो इसका क्रमिक प्रभाव न सिर्फ सेल्स बल्कि उत्पादन एवं टेक्निकल जॉब पर भी पड़ेगा। क्योंकि यदि बिक्री कम तो सर्विस कम फिर उत्पादन भी कम होगा यदि डीलर के पास स्टॉक रहता है तो। फाडा के अनुसार देश में करीब 15 हजार डीलर्स के 26 हजार ऑटोमोबाइल शोरूम काम कर रहें हैं और इसमें करीब करीब 25 लाख लोग सीधे तौर पर नौकरी से जुड़े हैं, जबकि 25 लाख लोग अप्रत्यक्ष रूप से। उत्पादन और बिखरे हुए संगठित और असंगठित सर्विस सेण्टर और गैरेज को जोड़ दें तो संख्या करोड़ों में पहुँच जाएगी. इस संकट  के कारण अब निर्माण यूनिट से भी छंटनी की खबर आने लगी हैं। और इंडस्ट्री की बड़ी ऑटो निर्माता कंपनियां और उनके मालिक अब सरकार से मदद की गुहार लगा रही हैं। भारतीय ऑटो निर्माता कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा  ने ऑटो सेक्टर को लेकर अपनी गंभीर चिंता जाहिर की। कंपनी ने कहा कि घरेलू ऑटो सेक्टर में नौकरी जाने का खतरा बढ़ गया है अतः सरकार को तत्काल प्रभाव से टैक्स में कटौती और अन्य तरीकों से ऑटो इंडस्ट्री की मदद करनी चाहिए। इस समय ऑटो निर्माता कंपनियों एवं डीलरों के सामने बिक्री कम होने से बैंकों का कर्ज चुकाने की समस्या खड़ी हो गई है। कर्ज न चुका पाने की वजह से महिंद्रा एंड महिंद्रा के साथ ही मारुति सुजुकी, टाटा मोटर्स जैसी कंपनियों के सामने प्रोडक्शन में कटौती करने या फिर अस्थायी तौर पर प्लांट बंद करने का विकल्प ही रह गया है। महिंद्रा एंड महिंद्रा कंपनी के अनुसार प्राइस गिरने की वजह से वो केवल मार्जिन मेनटेन करने में सक्षम हैं। ऐसी परिस्थिति में सरकार जीएसटी रेट में कटौती कर राहत दे सकती है। Reuters के एक रिपोर्ट के मुताबिक इस साल अप्रैल से अब तक आटोमेकर्स, पार्ट मैन्युफैक्चरिंग और डीलर्स से जुड़े क्षेत्र के करीब 3.50 लाख लोग बेरोजगार हो गए हैं।

उद्योग विशेषज्ञों के अनुसार ऐसी मंदी जारी रही तो पार्ट्स मेकर, सप्लायर, डीलर और अनआर्गेनाइज सेक्टर के कामगार के रोजगार पर बड़ा संकट आ सकता है। हिदुस्थान में इस बिक्री में कमी का सीधा असर टायर इंडस्ट्री पर भी पड़ा है और  उनकी भी मुसीबतें बढ़ गई हैं। रेटिंग एजेंसी इकरा के अनुसार मांग में कमी की वजह से साल 2019-20 के लिए टायर इंडस्ट्री की अनुमानित रेवेन्यू ग्रोथ रेट में 3 से 4 प्रतिशत की कटौती की जा सकती है. खबरों के अनुसार उपभोग घटने से आई सुस्ती के मद्देनजर वाहन दिग्गज मारुति ने 1,000 अस्थायी कर्मचारियों की छंटनी कर दी है और नई भर्तियों को रोकने की योजना बनाई है। इसके अलावा कंपनी इससे निपटने के लिए लागत में कटौती के अन्य उपाय तलाश रही है।  बिक्री कम होने से इस सेक्टर में "अस्थायी कर्मचारी सबसे पहले प्रभावित होते हैं और इस मामले में भी ऐसा ही हुआ।" उद्योग के जानकारों का कहना है कि माह-दर-माह बिक्री गिरने और डीलरशिप पर इन्वेंट्री के बढ़ने से न सिर्फ मारुति सुजुकी, बल्कि अन्य वाहन कंपनियों को भी उत्पादन कम करना पड़ा है, जिसके कारण फैक्ट्री और खुदरा स्तर पर नौकरियां कम हो गई हैं।

उद्योग समूहों का जो मत है उनके अनुसार बिक्री में कमी वाहन की कीमत में बढ़ोत्तरी, ग्रामीण इलाकों में डिमांड की कमी, टायर की डिमांड में कम, नए वाहनों की बिक्री में कमी एवं इनपुट कास्ट में बढ़ोत्तरी है. हालाँकि इसमें कुछ और बातें भी जानने योग्य है. वाहन की बिक्री कम होगी इसका पूर्वानुमान ऑटो उद्योगों को पहले ही कर लेना चाहिए था और तदनुसार अपनी उत्पादन और विपणन नीति बनाई जानी चाहिए. सरकार तकनीक , जनसुविधा एवं पर्यावरण की कीमत पर उद्योगों को सरंक्षण नहीं दे सकती है. आज यदि जियो, मोबाइल क्षेत्र में तकनीक की दक्षता के कारण बाजार में सस्ता विकल्प देकर अपनी जगह बनाता है तो इसकी शिकायत वोडाफोन या एयरटेल या टाटा स्काई नहीं कर सकती हैं. बदलते वक़्त की आहट को सूंघने एवं सुनने का काम उद्योगों को लगातार करते रहना चाहिए नहीं तो तकनीक क्षेत्र में बदलाव एक झटके से बड़े बड़े दिग्गजों को ख़त्म सकता है और लाखों रोजगार पर संकट खड़ा कर सकता है. उद्योगों के इस तरह बंद होने का एक कारण उद्योग अपने रिसर्च पर खर्च नहीं कर सकते है. आज से कुछ साल पहले मेरु टैक्सी एवं टैब कैब टैक्सी का बोलबाला था और उन्होंने भारी निवेश कर रक्खे थे, उन्होंने समय से आहट पहचानने में देर की और एप आधारित टैक्सी ने जगह बना ली आज भारी निवेश होने के बावजूद ये दोनों कम्पनियों को अपना व्यापार समेटना पड़ा, अब वह इसकी शिकायत सरकार से नहीं कर सकती बदलते वक़्त को उन्होंने नहीं पहचाना.

 

ऑटो उद्योग में गिरावट का जो प्रमुख कारण ऑटो उद्योग को सूंघ लेना चाहिए था वह यह था की इस सेगमेंट में एक बड़ी खरीद ब्लैक मनी से होती थी और जब नोटबंदी के बाद उपजे नगदी संकट से  इसपर रोक लगी और डिजिटल मनी का चलन बढ़ा और बड़ी गाडी खरीद की जानकारी आयकर विभाग को जाने लगी तो वह खरीददार अब सतर्क हो गए जो पहले नगद में गाड़ियाँ ख़रीदा करते थे. दूसरा जो कारण इन्हें सरकार की वाहन नीति को समझना चाहिए था सरकार घोषित रूप से इलेक्ट्रिकल व्हीकल को बढ़ावा दे रही है, निजी खरीद में तो इसके इन्फ्रा विकास के बाद तेजी आएगी लेकिन सरकारी खरीद में इलेक्ट्रिकल व्हीकल खरीद की मात्रा बढ़ गई जिसने पूर्व के पारम्परिक मोटर व्हीकल की सरकारी मांग को कम कर दिया. स्थानीय परिवहन में भी अब ई-रिक्शा को सरकार प्रमोट कर रही है जिससे पुराने ऑटो व्हीकल की मांग कम हो गई. सरकार ने माल वाहन की मान्य क्षमता को भी करीब २०% बढ़ा दिया जिससे मौजूदा मालवाहन गाड़ियाँ अब पहले से २०% ज्यादे भार ढो सकती हैं तो माल ढोने की बढ़ोत्तरी के लिए नई गाड़ी की भला जरुरत क्यूँ पड़े. देश के कई शहरों में मेट्रो के विस्तार ने भी कारों के चलन को कम कर दिया और मुंबई शहर में मेट्रो के लम्बे जाल के बाद कारों की संख्या अभी और घटेगी. पिछले दो सालों से उबर और ओला प्रयोग करने की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, शहरों में बढ़ते पार्किंग की समस्या, ड्राईवर न मिलने की समस्या, बढ़ते पेट्रोल और गाडी खर्च की जगह अब शहरों की बड़ी आबादी उबर और ओला से चल रही है और जब से इसने पूलिंग और शेयरिंग सुविधा जोड़ी है डेली कार्यालय जाने वाले अब इसका उपयोग ज्यादे करने लगे हैं, जिसके कारण अब कोई नया वाहन खरीदने या पुराने को बदलने की सोच नहीं रहा है. लोगों द्वारा एप आधारित टैक्सी यूज करने और नई कार न खरीदने की सोच के कारण जो बिक्री में गिरावट हुई वह ओला और उबर की गाड़ी खरीद से कहीं ज्यादे है. और ये सारी बातें खुले डोमेन में उपलब्ध हैं कोई सीक्रेट हैं, तकनीक, बाजार, नियमन और सरकार की स्थिति को भांपने में यदि औटो उद्योग चूकता है तो सिर्फ GST घटाने से यह संकट दूर नहीं होने वाला, नई तकनीक और नई सोच के साथ किफायती गाड़ियाँ नई विपणन रणनीति एवं मांग के हिसाब से उन्हें लानी पड़ेंगी, क्यों की वक़्त अब बदल चूका है और ग्राहक के पास सस्ता विकल्प है. और सरकार को भी सिर्फ जीएसटी नहीं अनिवार्य वाहन क्रशिंग नीति लागू करनी पड़ेगी जिसमें डीजल गाड़ियों को १० साल और पेट्रोल गाड़ियों को १५ साल में क्रश करना अनिवार्य बना देना चाहिए अन्यथा इतना बड़ा सेक्टर उपरोक्त कारणों से बेरोजगार होने के कगार पर आएगा और तत्काल में कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है अपने पास.

 

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