वामपंथ और वामान्धता

धारा 370 और 35A पर भारत सरकार के निर्णय के बाद सोशल मीडिया पर इसके विरोध करने वालों की संख्या काफी आक्रामक हो गई और वो देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के प्रति घृणा के निचले स्तर पर पहुँच गए. जब सबकी प्रोफाइल खंगाली तो ज्यादेतर वामपंथी मित्र निकले या वो निकले जिन्हें इन मित्रों की भाषा और पोस्ट सूट करती थी. इनके पोस्ट जो इनकी सोच को परिलक्षित करता है उसे आप पढेंगे तो आप सहसा इन्हें वामांध ही कहेंगे. जैसे धर्म का मर्म न समझने वाला कोई अज्ञानी कट्टर धर्मांध कहलाता है वैसे वामपंथ का मर्म न समझने वाले ये अवामपंथी कट्टर के लिए वामांध शब्द ही मुफीद है. हालाँकि इस शब्द की रचना अचानक ही मेरे मुंह से निकली और मैंने गूगल और यहाँ वहां कई जगह ढूंढा तो यह शब्द मुझे कहीं दिखाई नहीं दिया लेकिन इस शब्द अपने आप में स्वतः और सहज रूप में अंधभक्त भारतीय वामपंथियों को परिलक्षित करता है तो इसका प्रयोग करना मैंने शुरू कर दियाअंधभक्त वामपंथी वामांध और ऐसी आदत वामान्धता.

मै वामपंथ का अंध विरोधी नहीं, मेरे कई अच्छे मित्र हैं जो वामपंथी है और स्वस्थ बहस करते हैं हमारी आपस के विचारों के अंतर से कभी कटुता नहीं आती. कई बार ये ऐसे मुद्दों के लिए लड़ते हैं जिसके लिए कोई आगे नहीं आता, लेकिन इसके बावजूद भारतीय वामान्ध वामपंथ सुविधानुसार चुनाववाद का शिकार है क्यों की इसे प्रतिक्रियात्मक समाज से भय है और इसे समर्थन की दरकार है. वह चुनाव करता है कब और कहाँ किसको बोलना है और कहाँ चुप रहना है. स्वअन्वेषण  के चक्कर में सत्य से दूर चला गया है और विरोध के पात्रों का सुविधानुसार चयन कर लिया है इन्होने. व्यक्तिवाद विरोध अब इनका प्रिय विषय है और मार्क्स के चिंतन को ये भूल चुके हैं. इन्हें अन्त्योदय में वामपंथ के सिद्धांत नहीं दिखाई देतेइन्हें सुपर रिच कर प्रणाली और एस्टेट ड्यूटी में वामपंथ के सिद्धांत नहीं दिखाई देतेइन्हें तीन तलाक के भारतीय वर्जन की समाप्ति में वामपंथ के सिद्धांत नहीं दिखाई देतेइन्हें 370 और ३५के खात्मे से कश्मीर के जन को अधिकार मिलेंगे उनमे वामपंथ के सिद्धांत नहीं दिखाई देते. इन्हें इसके लागू करने वाला पात्र और उसका धर्म दिखाई देता है. पहले यह पात्रों और पक्षों का चयन करते हैं फिर उसका विरोध मीमांसा शुरू करते हैं. जज लोया क्यूँ मरे कैसे मरे से ज्यादे इनके विश्लेषण की सुई यही सिद्ध करने में लगी थी की जज लोया और अमित शाह की कड़ी जोड़ी जाई. सत्य अन्वेषण की जगह पात्र और पक्ष का पूर्व निर्धारण कर आगे बढ़ने के कारण इनके आँख पर तो परदा रहता ही रहता है ये अपने पाठकों के आँखों पर भी पूरा परदा डालने का प्रयास करते है.

भारतीय वामपंथ में एक नई श्रेणी है वामांध श्रेणीऐसे  वामपंथियों का आप विश्लेषण करेंगे तो आप पाएंगे की एक सिरे से सब हिंदुत्व का विरोध करते हैंक्यों की इनके वामपंथ के फ़ॉर्मूले में समानता वर्ग संघर्ष से आएगी और भारतीय समाज में इन्होने बिना किसी अध्ययन और मेहनत के रेडीमेड वर्ग ढूंढ लिया है और अपनी थोएरी की सिद्धता उसपर उड़ेल रहें हैं. बिना धर्म का मर्म जाने इन्होने धर्म में कालांतर में घुस आई बिमारियों को ही असली धर्म कहना शुरू कर उस धर्म से पलायन को लोगों को प्रेरित करते रहे. इनके दर्शन और लेख पढ़िए काफी विश्लेषण पूर्ण और विस्तृत पाएंगे जिसमें अपने मतलब की परमाणु से भी छोटी बारीकियों को पकड़ कर उसे खोलकर रख देंगे ये लेकिन जब हिन्दू धर्म की बात आती है तो इसे इसके मर्म में न जाकर इसमें कालांतर में घुस आई बिमारियों के आधार पर ही लोगों से संवाद करना शुरू कर देंगे और बजाय इस आवरण को हटा धर्म का वास्तविक स्वरुप दिखाने के, धर्म का परित्याग या पलायन की तरफ प्रेरित करते रहते हैं. इन्हें ये तक नहीं मालूम है की हिन्दू कोई धर्म नहीं है यह आदि कालीन मूर्तिपूजक सभ्यता है जिसमें मूर्तिपूजा करने और आस्तिक होने की भी बाध्यता नहीं है. इसके प्रचलन में जो प्रावधान हैं वह जन्म विवाह बरही मुंडन विवाह और मृत्यु से ही सम्बंधित हैंइन संस्कारों के अलावा यह आदि धर्म कोई नियम प्रस्तावित नहीं करता. बाकी जो चीजें इस धर्म के नाम पर व्याप्त हैं वह सामाजिक नियम हैं जिसे समय समय पर तत्कालीन समाज ने बनाया और बदला. जरुरी नहीं की जो आज सामाजिक अभ्यास हैं वो १०० साल पहले हो या 1000 साल पहले हों या १०० साल बाद भी हों. मॉरिशस जैसे हिन्दू समाज में तो जाति है ही नहींफिर भी वो हिन्दू ही कहलाते हैं. सामाजिक अभ्यास में सती प्रथा धर्म का हिस्सा नहीं था सामाजिक अभ्यास के नाम पर घुस आई बुराई थीसमय ने समाप्त किया नए समाज ने स्वीकार कियाबाल विवाह समय ने समाप्त किया नए समाज ने स्वीकार कियाजाती प्रथा समय समाप्त कर रहा है नया समाज स्वीकार कर रहा है आगे के ५० सालों के बाद जात पात की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी बशर्ते आरक्षण के लाभ के लिए कोई इसे जबरदस्ती बनाये न रखना चाहे. एक और पहलू इस आदि धर्म में वर्णों का उल्लेख है जातियों का उल्लेख नहीं हैप्रचलित जाति प्रथा आधुनिक समाज व्यवस्था की देन है. वर्ण कर्मों से जोड़कर सामाजिक व्यवस्था कायम करने के लिए बनाई गई थी और यह व्यापक वर्गीकरण था जो जन्म से नहीं कर्म से निर्धारित होता था.

लेकिन हमारे वामपंथी मित्र इस बाह्य आवरण के नीचे नहीं जाना चाहते. भारत में ज्यादेतर वामपंथी आपको हिन्दू नाम के मिल जायेंगे जो सदैव हिन्दू आदि धर्म का विरोध करते हुए पाएंगे लेकिन कदाचित ही आप पाएंगे की उन्होंने अपना सरनेम जिससे उनका धर्म और मौजूदा सामाजिक अभ्यास के हिसाब से जो जातिसूचक सरनेम है उसे हटाया होयहाँ तक चलो उनका नाम उनके पिता ने रक्खा हो जब उनका वश न चला हो लेकिन कानूनी रूप से नाम बदलने का अधिकार है उनके पासउन्हें अपने बच्चे का नामकरण का अधिकार है उनके पासतो वह फिर क्यूँ जातिसूचक सरनेम का इस्तेमाल करते हैं वोये दोहरा द्वन्द जो उनके अभ्यास में है और उनके चिंतन में भी है.

जैसे एक धर्मांध व्यक्ति का धर्म से कोई लेना देना नहीं और सबसे बड़ा अधार्मिक होता है वैसे इन वामान्धों का भी वामपंथ से कोई लेना देना नहीं और ये सबसे बड़े अ-वामपंथी होते हैं. इनका कहना होता है की धार्मिक लोग जड़ता और रुढिवादिता का शिकार होते हैं लेकिन इन्होने खुद ही अपने विचारधारा को एक पंथ बना लिया है जो एक बंद माहौल में चली गई है समय के साथ अपनी कसौटी को कसने के बजाय ये दुसरे की चीजों को अपने जड़ कसौटियों पर कसते हैं और रिजेक्ट कर उसकी बारीक मीमांसा करते हैं. भारतीय वामपंथी जिन्होंने अपने पुरे वर्ग संघर्ष विमर्श को भारतीय हिन्दू  समाज में सहज उपलब्ध वर्ग के कारण इसे धार्मिक घृणा का रूप दे दिया है दरअसल उन्होंने वामपंथ के मूल से अपनी आँखें मूँद ली हैं जो कहता है की वामपंथ का मुख्य उद्देश्य बराबरी पर आधारित सामाजिकआर्थिकराजनैतिक व्यवस्था की स्थापना करना है. मार्क्स की विचारधारा सामाजिक चेतना को ऊपर उठाकर समाज गठन के मूल में अर्थ व्यवस्था के प्रभाव को अनिवार्य रूप से स्वीकार कर उसका अध्ययन करती है.

वामपंथ का दर्शन जिस काल में पैदा हुआ था वह औद्योगिक क्रांति का दौर था और यंत्रो के प्रयोग ने मानवीय श्रम में कटौती करना चालू कर दिया था और रोजगार के व्यापक अवसर और आयाम उपलब्ध नहीं थे. ऐसे काल में मार्क्स ने जो सिद्धांत प्रतिपादित किये व समयानुकूल और वैज्ञानिक थे जिसके मूल में समाज में आर्थिक समानता लाना था जिसके कारण से ही समाज में सामाजिक और राजनैतिक समानता लाइ जा सकती है ऐसा उनका मानना था. कार्ल मार्क्स ने कभी नहीं कहा की जो मैंने लिख दिया या बोल दिया है वह इस्लाम के कुरान की तरह है जिसकी व्याख्या आलोचना या समय बदलने के हिसाब से उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता हैपरिवर्तन को आवश्यक बताते हुए मार्क्स ने खुद कहा था की जो एक चीज निश्चित है वह यह है की मै खुद मार्क्सवादी नहीं हूँ. लेकिन भारत का वामांध वामपंथी समाज आज कार्ल मार्क्स के ही पीठ में चाक़ू घोंप रहा हँ क्यों की उसे सुविधाजनक विरोध करना हैमार्क्स की तरह क्रांति और आन्दोलन में खुद को नहीं झोंकना है रेडीमेड उपलब्ध समाज में ही कोई न कोई क्रांति पैदा करना है.

मार्क्स का जो द्वंदात्मक भौतिकवाद है उसके अनुसार संसार का आधार भौतिक तत्व या पदार्थ है, जो कई रूप धारण करता है और यह अपने एक आन्तरिक विरोध द्वारा संचालित होता है, विकास की यह प्रक्रिया एक बिंदु पर आकर विस्फोट करती है, और यही क्रांति है जिसे टाला नहीं जा सकता. आंतरिक विरोध और संघर्ष द्वारा ही परिवर्तन संभव है और वाद प्रतिवाद और संवाद ये तीन अवस्थाएं ही द्वंदात्मक भौतिकवाद है. भारत में जो आदि हिन्दू धर्म है वह बकायदे नास्तिकता को स्वीकार करती है और नास्तिकों से कोई घृणा नहीं है उसेकोई पूजा करे न करे कोई इश्वर को माने न माने कोई बाध्यता नहीं है. भारतीय हिन्दू समाज में जो सामाजिक बुराइयाँ धर्म का आवरण ओढ़ के आई थी उसे नेहरु के हिन्दू कोड बिलबाबा साहेब आंबेडकर के संविधान ने अपने प्रहार से भोथरा कर दिया था और भारतीय कानून के तहत वो सुधार के राह पर है जो एक समय के बाद बिलकुल ख़त्म हो जाएँगी. लेकिन इसी भारत में जो मुस्लिम समाज की सामाजिक बुराइयाँ है उनके प्रति इन वामांध वामपंथियों की कलमें सेलेक्टिव हो जाती हैं. चाहे शाहबानो का प्रकरण हो या तीन तलाक का मसला भारत के वामांध वामपंथी इस मसले पे चुप ही रह जाते हैं क्यों की इससे इनके सेलेक्टिविज्म को खतरा पैदा हो जाता हैये जो सुविधानुसार चुनाववाद है इनका ये इनके द्वारा मार्क्स को दी गई गाली है जिसने अपने सिद्धांत को मानव समाज के व्यापक हित के लिए बनाया था ना की सिर्फ हिन्दू समाज के लिए. किसी भी वामांध वामपंथी को कुरान के उन आयातों और अभ्यास में व्यापक बहस की क्रांति छेड़ते आप नहीं पाएंगे जो की समयानूकुल नहीं हैआप उन्हें सुरह बकरह के आयात संख्या २२३ पे बहस करते हुए नहीं पाएंगे की जिसमें कहा गया है की औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं, तुम्हे अनुमति है जैसे चाहों अपनी खेतियों में जाओंजबकि मार्क्स का खुद मानना था की महान सामाजिक बदलाव बिना महिलाओं के उत्थान के असंभव है और किसी भी समाज की प्रगति महिलाओं को मिले स्थान से नापी जा सकती है, आज के ऐसे वामपंथी कभी चर्चा नहीं करेंगे कि हिन्दू आदि धर्म में महिलाओं को देवी बोला गया है. ये कभी इस बात पर बहस करते हुए नहीं पाये जाएंगे की इस्लाम का समाज जो एक बंद माहौल में जी रहा है और जिसके जीवन का आधार कुरान है उस कुरान की समीक्षा या उसमें बदलाव उसे अल्लाह की वाणी बोलकर बंद कर दिया गया है पे बहस किया जाय. पूरी दुनिया में कुरान में वर्णित जिहाद (धर्मयुद्ध) का अपने हिसाब से मतलब निकालकर आतंकवादी जैसे विश्व में आतंक फैला रहें है उसपे आप इन्हें बौद्धिक संगोष्ठी या सेमिनार करते नहीं पाओगे. हिन्दू आदि धर्म में गीता को इश्वर की वाणी बताया गया है और जिहाद (धर्मयुद्ध) को उसमें भी जायज बताया गया हँ लेकिन यह इश्वर की वाणी के नाम पर  जिहाद के नाम पर हिन्दू आदि समाज ने कभी भी इसे धार्मिक विस्तारवाद की मुहीम नहीं बनाया जबकि गजवा ए हिन्द बकायदे एक आन्दोलन है जिसपर यह नव वामांध वर्ग आपको आँख मूंदे दिखेगा.



धर्म अफीम है इसे मार्क्स ने कहा लेकिन इसे सिर्फ एक ही धर्म के लिए तो नहीं कहा थाउन्होंने कहा था की लोगों की ख़ुशी के लिए पहली आवश्यकता धर्मं का अंत है तो सलेक्टिव होके तो नहीं कहा था व्यापक रूप से कहा थाउनके अनुसार समय सब कुछ है इन्सान कुछ भी नहीं समय का सिर्फ एक शव है. दरअसल मार्क्स का चिंतन मानव समाज विकास क्रम को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न है जिसका मूल ही है की जड़ नहीं होनाजबकि भारतीय वामांध वामपंथी इसे एक पंथ का रूप देते हुए जड़ता का शिकार हो गए हैं.  सुविधानुसार चुनाववाद का ये कैसे इस्तेमाल करते हैं इसकी एक बानगी एक वामपंथी मित्र के पोस्ट में देख लीजिये जिसमें उन्होंने धारा 370 को प्रभाव शुन्य होने की प्रतिक्रिया में कहा था कि “ कश्मीर का असल मसला शेख़ अब्दुल्ला द्वारा हिंदू पंडित ज़मींदारों से बिना मुआवज़ा ज़मीन छीनकर ग़रीब काश्तकारों को देने से ही शुरू हो गया था!! यह कोई अजीब बात नहीं है कि इतिहास में इन्हीं पंडतों की पंडताई से तंग आकर वहाँ का मेहनतकश हिंदू तबक़ा ही मुस्लिम बना थाजो हिंदू बनने से पहले बौद्ध भी थे। अबवो ज़मीन वापस छीनी जाएगी। इसकी और भी मिसालें हैं। सिक्ख भी हिंदू मेहनतकश जातियों से बने है। उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया। लेकिन हिंदूमत में उनको इंसाफ़ मिलने की उम्मीद नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपना धर्म ही नया चला लिया। औरंगज़ेब से गुरु गोविंद सिंह की लड़ाई करवाने वालेउनकी माता गूजरी और दोनों छोटे साहिबज़ादों की मुखबिरी करके पकड़वाने वाले भी हिंदू ही थे!”  इस पुरे वाक्य को पढ़िए बहुत ही चालाकी से सुविधानुसार चुनाववाद का इस्तेमाल किया गया है कश्मीर समस्या की मुख्य जड़ कश्मीरी पंडित हैं और औरंगजेब को जबरदस्ती साजिशन गुरु गोबिंद सिंह से लड़वाया गया मतलब औरंगजेब विलेन नहीं उसके मुखबिर थे और वो हिन्दू थेसिख धर्म की स्थापना हिन्दुओं के शोषण के कारण हुई आदि आदि.


कार्ल मार्क्स अध्यात्मवाद की जगह भौतिकवाद को जगह देते हुए कल्पित इश्वर के स्थान पर मानव को केंद्र मानकर चलते हैं जिसके उत्थान में ही उनका दर्शन झलकता हैऔर ऐसे विचार का हिन्दू दर्शन में कोई विरोध नहीं है यहाँ साकार निरंकार और नास्तिक तीनों का स्थान है जो अन्य धर्मो में नहीं है . दरअसल भारत में वामपंथ अपने सुविधानुसार चुनाववाद के कारण वामपंथ के मूल उद्देश्य बराबरी पर आधारित सामाजिकआर्थिकराजनैतिक व्यवस्था की स्थापना से भटक गया है और उसे अपने पंथ की सिद्धि साबित करने के लिए हिन्दू समाज जैसी प्रयोगस्थली मिल गई हैउसे इस भारत के दुसरे बहुसंख्यक समाज और विश्व भर में फैले दुसरे बहुसंख्यक समाज इस्लाम में समानता स्थापित करने के लिए कोई चिंतन नहीं है . भारत के व्यापक समाज में जब भी इस्लाम की चर्चा होती है उसे इंसानियत और भाई चारे का धर्म बताया जाता है इन्ही वामान्धों के द्वारा जबकि कई जगह दीखता है कि व्यवहार किताब से नीचे उतर ही नहीं पाया यहाँ तक की किताब में औरतों को खेती जैसा बताना बताता है की इसे इंसानियत के व्यापक कसौटी के लिए चिंतन मुद्दों में शामिल किया जाना चाहिए लेकिन यहाँ हमारा वामांध मित्र समाज मौन है. किताबी आदर्श पे ही जाना है तो आप हिन्दू समाज के वसुधैव कुटुम्बकम सर्ब जन हिताय सर्व जन सुखाय का ही प्रचार प्रसार करो लेकिन यदि आप एक समाज की बुराई का इतना मीमांसा और चिंतन करते हो और दुसरे पे आँख मूंदे रहते हो तो सवाल उठेंगे ही. आप आधुनिक काल में एक मस्जिद के ढांचे के गिर जाने पर रोने लगते हो लेकिन सदियों में ध्वस्त किये गए मंदिरों पर कोई बहस नहीं करते हो और आँख मूँद लेते हो तो दुःख होता हैइतिहास और समाज में इतना सेलेक्टिविक्ज्म हो जाना मार्क्स को गाली देने जैसा है.

मार्क्स के सिद्धांत की संसार में अशांति और असंतोष का कारण गरीबों और अमीरों के बीच बड़ी होती खाई हैसे हटाकर आप उसे हिन्दू बनाम हिन्दू दलितहिन्दू बनाम मुस्लिम बनाम बौद्ध पता नहीं क्या क्या बना देते हो. मार्क्स के सिद्धांत जिसके अनुसार परिवर्तन के लिए पहले शांतिपूर्वक क्रांति करनी चाहिए तथा दुसरे चरण में सशस्त्र करना चाहिएगाँधी जैसा प्रमाण होने के बावजूद भी आप कम पढ़े लिखे समाज को अपने उद्वेलित विचारों से पहले चरण में ही नक्सली बना देते हो जबकि मार्क्स कहते हैं की सशस्त्र क्रांति दूसरा चरण है. भारत का वामांध वामपंथी कार्ल मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद ऐतिहासिक भौतिकवाद वर्ग संघर्ष राज्य सिद्धांत और अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत के लिए प्रयोगस्थली हिन्दू को ही बनाना चाहता है क्यों की वह सुविधानुसार चुनाववाद में विश्वास करता है दुसरे धर्म का चुनाव और उस धर्म की प्रतिक्रिया उन्हें संकट में डाल सकती है. अपने प्रमुख पात्र पूंजीपति जमींदार उद्योगपति से उठकर भारत का यह वर्ग अब इसे धर्म के चश्मे में उतार लिया है उसे अब हिन्दू पूंजीपति हिन्दू जमींदार व हिन्दू उद्योगपति दिखाई देता है जैसे उस मित्र को गुरु गोविन्द सिंह का हिन्दू मुखबिर दिखाई दे गया था. उसे अब निजी स्वामित्व की समाप्ति पे चर्चा नहीं करना है उसे हिंदुत्व समाप्ति में ज्यादे रूचि है. मार्क्स के पात्र बुर्जुवा और सर्वहारा थे और उसका मानना था कि सामंतवाद की राख से जन्मा आधुनिक बुर्जुआ समाज वर्ग–संघर्ष की अनिवार्यता से बच नहीं सकता. उस समय तक उसके बीच से शोषण की नई स्थितियांनए वर्ग और नए–नए संघर्ष जन्मते ही रहते हैं. हमारा युगजो असल में बुर्जुआ समाज का युग हैइसका प्रमुख गुण वर्ग–प्रतिद्विंद्वता है. वर्गीय प्रतिद्विंद्वता के निरंतर बढ़ते क्रम में संपूर्ण समाज दो परस्पर विरोधीदुश्मनों की भांति एक–दूसरे के आमने–सामने डटे हुए वर्गों में बंटता ही जाता है.उन वर्गों का नाम है—बुर्जुआ और सर्वहारा.  

बुर्जुआ का आशय नवोदित पूंजीपतियोंउत्पादक कारखाना मालिकों तथा अपने उद्यमों में मजदूरों को नौकरी पर रखने वाले नियोक्ताओं से है. जबकि सर्वहारा का अभिप्राय उन आधुनिक श्रमजीवी मजदूरों से है जिनके पास सिवाय अपने श्रम केआमदनी/उत्पादन का कोई और जरिया नहीं हैअतएव अपनी आजीविका के लिए श्रम बेचना उनकी विवशता है.’ भारत के वामांध वामपंथी ने मार्क्स के इन पात्रों में धर्म का तड़का लगा के भारत के समाज युवाओं को पेश किया है.


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