गोरखपुर रविकिशन और योगी आदित्यनाथ


योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर के लिए इतना कर दिया है जितना अब तक के गोरखपुर के इतिहास में नहीं हुआ है. रवि किशन को लगी लगाई फसल मिल गई है, देखना है कि वह इसका उपयोग कैसा करते हैं. बेहतर होता की कोई स्थानीय होता , लेकिन अब रवि किशन सामने हैं. गोरखपुर सीट पे हार राष्ट्रीय राजनीती में पार्टी के अन्दर और बाहर योगी विरोधियों को मौका दे देगी और वो लोग योगी आदित्यनाथ को कमजोर करना चाहेंगे. गोरखपुर के लिए इतना कुछ करने और गोरखपुर को इतना कुछ मिलने के बाद, गोरखपुरवासियों के लिए भी ये बहुत दुविधापूर्ण स्थिति होगी और वो योगी आदित्यनाथ की हार होते हुए नहीं देखना चाहेंगे , सांसद विकल्प के रूप में योगी आदित्यनाथ उनके मन मस्तिष्क पर इतना रच बस गए हैं कि वह उनके विकल्प रूप में किसी को देख ही नहीं पा रही है, कारण है कि अपने संसदीय कार्यकाल में सर्वाधिक क्रियाशील , जनता से प्रतिदिन रूबरू होना, हर जगह उपलब्ध रहना, सड़क से संसद तक आन्दोलन कर योगी आदित्यनाथ गोरखपुर की पहचान बन गये हैं. यह बड़ा मुश्किल है की कोई दूसरा योगी आदित्यनाथ बन जाए और यही सबसे बड़ी चुनौती रवि किशन की होगी कि शायद जनता उन्हें योगी के विकल्प के रूप में स्वीकार न कर पाए.

रवि किशन की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती उनकी फ़िल्मी छवि और फिल्मों में निभाए जाने वाले किरदार के फोटोग्राफ होंगे जो उनके विरोधी प्रचारित करेंगे. गोरखपुर यूपी का एक प्रगतिशील बौद्धिक और साहित्यिक शहर है, वहां का प्रबुद्ध एवं साहित्यिक वर्ग शायद "जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा" को अपनी पहचान बनाने वाले को अपना नेता बनाने में हिचकिचाए.

तीसरा संकट जो रवि किशन को होगा वह होगा उनका हालिया अवधी भोजपुरी अकादमी की मांग. गोरखपुर खांटी भोजपुरी का गढ़ और केंद्र रहा है, रवि किशन खुद ही भोजपुरी के आधार पर अपना करियर बनाये हैं लेकिन बीजेपी में जब उन्होंने पहली राजनैतिक लिखित मांग की तो उन्होंने भोजपुरी भाषा के ४ करोड़ हिस्से को अवधी के रूप में रेखांकित कर उसे अवधी भाषा का नाम दे दिया, जबकि अवधी भोजपुरी से अलग नहीं उसी का एक प्रकार है. अपने गृह जनपद और आज़मगढ़ तक को उन्होंने अवधी भाषा का क्षेत्र बता दिया, लाजमी है की वह गोरखपुर भोजपुरी के केंद्र से इन सब क्षेत्रों को अलग कर रहे थे और इसका सम्मिलित केंद्र लखनऊ की मांग कर रहे थे ताकि इन्हें अवधी प्रभुत्व का लाभ मिले और गोरखपुर का दबदबा कम हो ऐसे में ऐसी बड़ी राजनैतिक भूल करने के बाद वापस उसी गोरखपुर में लड़ाई लड़ना इन्हें अनचाहे प्रश्नों और परिस्थितयों का सामना करा सकता है.

तीसरा वर्षों से गोरखपुर को कभी भी बाहरी प्रत्याशी की जरुरत नहीं पड़ी और २४ घंटे उपलब्ध रहने वाले सांसद की गोरखपुर को आदत सी पड़ गई है. रवि किशन ने अभी स्पष्ट नहीं किया है कि वह फिल्मों से अलविदा लेंगे जैसा मनोज तिवारी ने किया ताकि वो शत प्रतिशत राजनीती को दे सकें, जैसे महराजगंज से कांग्रेस प्रत्याशी सुप्रिया श्रीनेत ने अपने और भारत की सबसे आकर्षक पोस्ट ET Now की एग्जीक्यूटिव एडिटर से पहले इस्तीफा दिया फिर राजनीती में प्रवेश किया, ऐसा साहस या बयान रवि किशन ने नहीं दिया, ऐसे में इनकी छवि पार्ट टाइम राजनीतिज्ञ की बन रही है और यही छवि बनती रही तो गोरखपुर की जनता योगी आदित्यनाथ के उत्तराधिकारी के रूप में इनको स्वीकार नहीं करेगी और दुसरे पार्टी को वोट देने की बजाय  मतदान के प्रति उदासीन हो जाएगी .

चौथे गोरखपुर में बीजेपी और योगी आदित्यनाथ का पूरा एक कैडर है उस कैडर के द्वारा रवि किशन को स्वीकार किया जाना और रवि किशन के द्वारा अपनी फ़िल्मी प्रचार टीम की जगह उस कैडर को स्वीकार किया जाना भी एक चुनौती है.

पांचवा ब्राह्मण प्रत्याशी के रूप में इनकी छवि नहीं बन पायी है और उस आधार पर यह वोट को आकर्षित नहीं कर पाएंगे. निषाद वोट ज्यादे संगठित हो सकते हैं और निषाद मतदाता राजनीती में गोरखपुर और कुशीनगर  दो सीट पर आ जाने की मंशा रखेंगे, निषाद को खुश कर गोरखपुर सीट पर उनके वोट की प्रत्याशा में अमित शाह ने उन्हें २ सीट प्राप्त कर लेने का अवसर दे दिया है, निषाद  मतदाता इस अवसर का पूरा लाभ उठाना चाहेंगे. कांग्रेस ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं, हो सकता है की वह राम भुवाल की वोटों में सेंध न लगे और बीजेपी हार जाए इसके लिए कमजोर प्रत्याशी उतार देवे.

कुल मिला के रविकिशन के लिए अवसर और चुनौती दोनों है, राजनीती में लगतार दो चुनाव हारना और वो भी गोरखपुर जैसी सीट जो की बीजेपी की सबसे कन्फर्म सीट मानी जाती है , जहाँ योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अनेकों सौगात दिए हैं, वहां पे हारना रवि का राजनीति और पब्लिक में उनके अस्वीकार्यता का मानदंड हो जायेगा और उनका राजनैतिक करियर पे भी फुल स्टॉप लग सकता है.

जहाँ तक योगी आदित्यनाथ का सवाल है, अब वो राष्ट्रीय नेता हैं, इस सीट से  रवि किशन की जीत हुई तो भी योगी आदित्यनाथ की जीत होगी और यदि मतदाताओं की उदासीनता के कारण हार हुई तो भी योगी आदित्यनाथ की उससे बड़ी जीत मानी जा सकती है, क्यों की जनता के मन मस्तिष्क और प्यार में योगी की दूसरी मूर्ति बैठ ही नहीं सकती, एक ऐसा सन्देश जायेगा जो बताएगा की एक नेता के रूप में गोरखपुर उनसे कितना प्यार करता है, जो किसी भी कीमत पर किसी और को दिल में बसा ही नहीं सकता है.  रवि किशन की जीत योगी आदित्यनाथ की जीत मानी जा सकती है लेकिन हार कतई उनकी हार नहीं उनकी और जनता की बड़ी जीत मानी जा सकती है यदि यह कम मतदान के कारण हुआ तो. इसलिए सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी के लिए मतदाताओं को घर से बाहर निकालना और रवि किशन को अपने इमेज और राजनैतिक गलतियों से पार पाना होगा.

Comments