कृषि ऋण माफी अच्छा या बुरा




आपको याद होगा जब आरक्षण की परिकल्पना हुई थी तो यह शुरुवात के सीमित वर्षों के लिए था, लेकिन इसे राजनीती का ऐसा रंग लगा कि इसे बदलना तो दूर अब तो छूने से भी राजनैतिक पार्टियाँ १० बार सोचती हैं फिर सोचती हैं की छुए या नहीं. ठीक वही हाल अब कृषि ऋण माफ़ी का है, जिस तरह से यह चुनाव जीतने की गारंटी बनता जा रहा है, एक दिन यह भारतीय राजनीती एवं अर्थव्यवस्था के लिए सरदर्द साबित होगा. लोग चुनावी जीत के फ़ॉर्मूले के तौर पर इसका इस्तेमाल करने लगेंगे और ऋण लेने वाले इस भ्रम में की हो सकता है कि भविष्य में यह माफ़ ही हो जाये तो नियमित भरकर बेवकूफ क्यूँ बनें? और भुगतान करना ही बंद कर दें,और इस प्रवृत्ति से इसके न भुगतान करने की प्रवृत्ति और आवृत्ति दोनों बढती जाएगी. बिजनेस लोन माफ़ी और इसकी माफ़ी की तुलना अगर करना है तो लॉजिकल ग्राउंड पर करना पड़ेगा. सारे उद्योगपतियों के ऋण नहीं माफ़ होते हैं,माफ़ होने से पहले एक लॉजिकल प्रक्रिया होती है, उसी प्रक्रिया का कृषि ऋण माफ़ी में इस्तेमाल करना पड़ेगा, सीधे सीधे ऋण माफ़ी किसानों को ही कमजोर करेंगे. साथ ही चुनाव आयोग को यह नियम लाना पड़ेगा की किसी पार्टी के घोषणा पत्र या भाषण में ऐसे कृषि ऋण माफ़ी का वादा ना हो अन्यथा यह आगे चलकर देश के चुनावी राजनीती को नुक्सान पहुंचाएगा.

कृषि ऋण माफ़ी को लॉजिकल बनाने से पहले औद्योगिक ऋण लोन के डिफ़ॉल्ट और कृषि ऋण के डिफ़ॉल्ट को समझना पड़ेगा. औद्योगिक ऋण के डिफ़ॉल्ट दो तरह के होते हैं पहला वह जो व्यापारिक और व्यापारिक वातावरण के परिवर्तन के कारण होता है और दूसरा वह है जिसमे डिफाल्टर जानबूझकर ऋण नहीं चुकाता है. बैंक डिफ़ॉल्ट ऋण का इस आधार पर विश्लेषण करता है कौन से जानबूझकर डिफ़ॉल्ट किये गए हैं और कौन व्यापारिक कारणों से हो गया है, जिन खातेदारों के ऋण व्यापारिक कारणों से डिफ़ॉल्ट हुए हैं बैंक उन्हें किश्त चुकाने में छूट देता है या उनकी भुगतान की राशि कम करता है लेकिन १००% माफ़ नहीं करता है वहीँ दूसरी तरफ जिन्होंने जानबूझकर डिफ़ॉल्ट किया है उनके खिलाफ क़ानूनी प्रक्रिया शुरू करता है. साथ ही इस निर्णय तक पहुँचने में बैंकों की और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की खुद की एक निश्चित प्रक्रिया है जिसका कि वो पालन करते हैं.

वहीँ दूसरी तरफ कृषि ऋण माफ़ी प्रायः चुनावी घोषणा से शुरू होता है, और इसमें ऋणवार या प्रभावित क्षेत्रवार निश्चित प्रक्रिया का अभाव होता है जिसमें दोनों तरह के ऋण लेने वालों को समान लाभ पहुँच जाता है एक जिसे वाकई ऋण माफ़ी की जरुरत थी और दूसरा जो ऋण माफ़ी का रणनीति की तरह इस्तेमाल करता है. कृषि ऋण माफ़ी की बकायदे एक प्रक्रिया रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की तरफ से भी घोषित करनी चाहिए और चुनाव आयोग को इस पर संज्ञान लेना चाहिए यदि यह चुनाव जीतने के फ़ॉर्मूले के तौर पर विकसित हो रहा है.

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ऐसे किसानों को जिनके यहाँ सूखा बाढ़ या कोई प्राकृतिक आपदा आई है जिसके कारण उनके फसल नष्ट हो गए हों या ऐसे किसानों को जिनके तैयार फसल बिक न पा रही हो सरकारी उदासीनता से वहां तो ऋण माफ़ी बनता है, लेकिन जहाँ ऐसे कारण न मौजूद हो वहां पर ऋण माफ़ी होने से देश की बैंकिंग व्यवस्था और अर्थव्यवस्था दोनों को लॉन्ग टर्म में नुकसान होगा.

सरकार को इसके अलावा दुसरे विकल्पों पर कार्य करना पड़ेगा जिससे की किसान आत्मनिर्भर बनें उन्हें पर्याप्त लाभ हो और ऋण वापसी के लिए सक्षम हो. मसलन कृषि सहकारिता पर कार्य करें. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि में भी स्वतंत्र खेतियाँ ही ज्यादे हैं, लोग छोटे छोटे जोत और बिखरे हुए अलग अलग जोत पर कार्य करते हैं जिससे उनकी कृषि लागत भी अधिक आती है और परिवहन से लगायत बाजार पर भी उनका नियंत्रण नहीं रह पाता है. यदि इसकी जगह किसान महाराष्ट्र की कृषि सहकारिता को अपना लें तो सहकारिता खेती के माध्यम से ना केवल उनकी कृषि लागत कम हो जाएगी वरन बाजार में एक बड़े आपूर्तिकर्ता के रूप में होने पर बाजार और मूल्य पर नियंत्रण रख पाने में सक्षम हो पाएंगे. देश के अन्य किसानों को अगर विकसित होना है तो आवास, व्यवसाय से लेकर कृषि तक में सहकारिता को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा और इसके लिए वहां की राज्य सरकारों को भी इस सकारिता को सशक्त करना पड़ेगा अन्यथा उन्हें विकास के लिए ज्यादे संघर्ष करना पड़ेगा.

इसके साथ ही सरकारों की मशीनरी को भी कृषि को लेकर व्यावहारिक एप्रोच लाना पड़ेगा, एक उदाहरण है उत्तर भारत के एक जिले में किसानों ने अपने खेत में गन्ना खूब पैदा कर लिया क्यूँ कि वहां कॅश क्रॉप में यही प्रमुख कॅश क्रॉप है, अब इतना ज्यादे गन्ना हो गया की चीनी मीलों ने लेना बंद कर दिया अब उस गन्ने का वो क्या करें बाद में आग लगा देते हैं, क्यों की बोते समय तक तो उनके पास यह डेटा तो था ही नहीं की यह गन्ना उत्पादन इस वर्ष अतिरिक्त उत्पादन हो जायेगा जिसके लिए खरीददार मिलना मुश्किल हो जायेगा,क्यूँ की वह किसान है किसानी जानते हैं , व्यापारिक चातुर्य का उनके अन्दर अभाव होता है. कई बार तो सरकारी मशीनरी उनके गन्ने को बगल के चीनी मिल की जगह दूर वाले चीनी मिल पे गन्ना गिराने को कह देती है जिस कारण से उनकी लागत ही अधिक हो जाती है और नुकसान उठाते हैं.

किसान ठीक इसी प्रकार का धोखा केले, प्याज, आलू और पिपरमिंट की खेती में भी पाते हैं, जब बोते हैं तो उनका अनुमान कुछ और रहता है और जब फसल पक कर तैयार होती है तो बाजार का माहौल कुछ और हो जाता है जिसके कारण न उनकी सिर्फ कमर टूटती है वरन यह ऋण का भार भी उनके लिए बड़ा संकट होता है. इसलिए बैंकों द्वारा ऋण माफ़ी करना बुरा नहीं है लेकिन अपात्रों का ऋण माफ़ी बुरा है, और इसके लिए पूरी एक मानक प्रक्रिया बननी चाहिए और इसमें इसके निर्धारण के लिए एक कृषि विशेषज्ञ अधिकारी नियुक्त करने चाहिए. किसानों के ऋण को लेकर एक और संकट है, जो ऋण वो बैंक से लिए होते हैं उसका तो सरकारी विधि से हल निकल आता है लेकिन जो ऋण वो महाजन और साहुकारों से लिए रहते हैं उससे वह निकल नहीं पाते हैं. अतः कृषि ऋण माफ़ी किसानों के लिए एक पेन किलर तो हो सकता है लेकिन सम्पूर्ण इलाज नहीं और इससे जितना बचा जा सकता है उतना बचा जाना चाहिए और प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए कि सुपात्रों को ही माफ़ी मिले.  

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