आरबीआई बनाम सरकार


आज देश के आर्थिक परिदृश्य में जो माहौल दिखाई दे रहा है उससे ऐसा प्रतीत होता है की आरबीआई और सरकार आमने सामने हैं. इस दृश्यमान विभेद की शुरुआत हुई आरबीआई के डिप्टी गवर्नर के स्पीच से जिसमें उन्होंने इशारों इशारों में अर्जेंटीना का उदाहरण देते हुए ये बात कही थी की जब देश के केंद्रीय बैंक में सरकारों का हस्तक्षेप बढ़ जाता है तो आर्थिक परिदृश्य का क्या हाल होता है, और देखते ही देखते यह विषय अब राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन गया है और इसमें पूर्व गवर्नर रघुराम राजन भी कूद गए हैं.
इस विषय में मेरा मानना है कि आरबीआई को थोडा लचीला होना पड़ेगा. कोई देश वर्तमान में यदि त्राहिमाम त्राहिमाम कर रहा, तो उस समय उस देश का केंद्रीय बैंक लॉन्ग टर्म प्लानिंग के नाम पर अपने उपचार रूपी कदम को रोक नहीं सकता है. यदि देश में बैंकों का NPA बढ़ रहा है तो इसमें बैंकों का ही नहीं आरबीआई की भी कमी है. आज तक के बैंकिंग व्यवहार जो आरबीआई के ही दिशानिर्देशों के हिसाब से चल रहे थे उन्होंने ऋण वितरण प्रणाली में ऋण के फोड़े का निर्माण कर लिया था जिसे एक दिन फटना ही था. देश के बैंकों ने अपने आपको बड़े बड़े लोन देने पर ज्यादे फोकस कर लिया और उन बड़े ऋण लेने वाली पार्टियों के प्रति उदार भी बने रहे जिसके कारण कोई अपने ब्रांड की सिक्यूरिटी पे ऋण उठा ले गया तो कोई फर्जी स्टॉक पर ऋण उठा ले गया. पुरे देश के एक ऋण का बड़ा हिस्सा देश के बड़े कॉर्पोरेट के पास जमा होता गया और ऋण की प्रोफाइल असंतुलित होकर जोखिम का निर्माण करने लगी, जिसका किला अब धीरे धीरे ढहने लगा जब एक के बाद एक बड़े कॉर्पोरेट के लोन डिफ़ॉल्ट होने लगे.
पेशे में सीए होने के कारण करीब मैंने 150 से अधिक ग्रामीण बैंकों की सालाना वैधानिक ऑडिट, ५ से अधिक राष्ट्रीयकृत बैंकों की आतंरिक एवं वैधानिक ऑडिट की है जो की उत्तर प्रदेश की शाखाएं थी. वहां मैंने देखा है ऋण लेने वाला तो ऋण लेने वाला पैसा जमा करने वाला भी बैंक को भगवान ही समझता था और जो आज के शहरी बैंकों का परिदृश जहाँ ग्राहक भगवान है वो परिदृश्य तो बिलकुल नदारद ही था. बहुत से छोटे शहरों, कस्बों और गाँव के युवा बैंकों के दरवाजे का चक्कर काटते काटते थक जाते थे उन्हें लोन नहीं प्राप्त होता था. कईयों को कई सरकारी स्कीम का पता नहीं होता था और जिन थोड़े लोगों को प्रधानमंत्री रोजगार योजना जैसे ऋण का पता होता था जिसमे सिक्यूरिटी नहीं लेनी होती थी उनसे भी बैंक वाले कोई न कोई डिपाजिट करवा लेते थे. बहुत से स्टार्ट अप छोटे शहरों कस्बों और गाँवो में इसलिए मर जाते हैं या अपनी आँख नहीं खोल पाते है क्यूँ कि वहां की बैंक उन्हें सपोर्ट नहीं करती है. अगर देश के बैंक अपने ऋण प्रोफाइल को MSME/SME/Large Enterprises में ठीक और न्यायपूर्ण अनुपात में बांटते तो इनका रिस्क प्रोफाइल भी बंटता, MSME/SME के फंडिंग के कारण क्रयशक्ति निचले हाथों में पहुंचती जिससे Large Enterprises को ही अंत में फायदा पहुंचता और उससे जो बड़े लोन डिफ़ॉल्ट हो रहें हैं वो भी कम हो जाता.
रिज़र्व बैंक का यह रूख की सरकारें शोर्ट टर्म सोचती हैं और उन्हें स्थिरता और लॉन्ग टर्म देखना पड़ता है से पूर्ण रूप से सहमत नहीं हुआ जा सकता है. भारत की कोई भी संस्था चाहे कितनी भी स्वायत्त हो जाए उसे कार्य संविधान के तहत ही करना होता है. संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा होता हँ “हम भारत के लोग”, सरकार इन्ही भारत के लोगों की प्रतिनिधि संस्था होती है तो आप सरकार को बाय पास कैसे कर सकते हैं, सरकार को बाय पास करने का मतलब आप जनता के मैंडेट को बाय पास कर रहें हैं और अंत में जनता को बाय पास कर रहें हैं. कोई भी केंद्रीय बैंक कैसे ये अंदाजा लगा सकती है की जो सरकार में बैठा है वो छोटा सोचता है और वो लम्बा सोचते हैं. भारत जैसे गणतंत्र देश में अगर शासन प्रणाली ने चुनाव व्यवस्था को स्वीकार किया है तो आरबीआई को भी स्वीकार करना पड़ेगा . उसे पब्लिक डोमेन में इस बात के संकेत नहीं छोड़ने चाहीये की सरकारें चुनाव के कारण शोर्ट टर्म सोचती हैं और आरबीआई लम्बा सोचती है. कोई भी केंद्रीय बैंक देश के संविधान से परे जाके अपने आपको स्वायत्त नहीं समझ सकती है.
नोटबंदी के समय भी आरबीआई की अक्षमता बाहर आई थी, ऐसा हो ही नहीं सकता था की बिना आरबीआई की जानकारी के नोटबंदी के घोषणा की गई हो, ऐसे में आरबीआई ने नोटबंदी के बाद उपजे हालात के लिए खुद को तैयार क्यूँ नहीं किया था? नोटों के नई साइज़ के हिसाब से एटीएम का केलिबेरेशन क्यों नहीं किया था, नोट का साइज़ या डिजाईन तो आरबीआई ने ही फाइनल किया था तो क्या यह तथ्य उसके पास नहीं थे की एटीएम को केलिबेरेट करने की जरुरत आन पड़ सकती है. किसी भी देश का केंद्रीय सीनेट नीतियाँ बना सकता है लेकिन लागू करने की जिम्मेदारी तो संस्थाओं पर ही रहती है जिसमे आरबीआई ने अपनी पूरी तैयारी नहीं दिखाई थी. नोट जमा होने के बाद सम्पूर्ण जोड़ का समाधान भी कम अविश्वसनीय नहीं है. ९९% से ज्यादे नोट वापस आ जाने, नेपाल में पड़ी करेंसी, कई देशों में छिट पुट पड़ी करेंसी, कई तो अभी दिवाली की सफाई में निकल रहें हैं को यदि जोड़ के समाधान पत्र बनाया जाय तो जोड़ आता है इसकी भी जबाबदेही आरबीआई को लेनी पड़ेगी की कितने छपे, कितने आये और कितने नहीं आ पाए तो क्यूँ नहीं आ पाए.   
अगर देश के कुल ऋण का प्रोफाइल ख़राब हुआ है तो इसमें आरबीआई का भी दोष है की उसने MSME/SME के ऋण के लिए प्रोत्साहित नहीं किया, वह ऐसी नीतियाँ नहीं बना सकी थी जिससे वास्तविक जरूरतमंद को ही ऋण मिले, बैंक लोगों के दरवाजें का के जरुरतमंदों को ऋण बाँट सके जिससे कि बड़े बड़े फ्रॉड रोकें जा सकें. आज छोटे शहरों कस्बों और गाँवों में रोजगार और क्रयशक्ति नहीं है तो इसके पीछे बैंको का भी फेलियर है और उसके पीछे खड़े आरबीआई का भी फेलियर है.
दरअसल अब तक जो व्यवहार में चलन था वह ज्यादेतर बड़े बकायेदारों को ही ऋण देने का था जिसके कारण आज ये जोखिम वर्ग में खड़े हैं. आरबीआई इन हज़ार करोड़ के बकायेदारों को क्यों बचा रहीं हैं, तो फिर ये किसानों को क्यों नहीं बचा पा रहीं है हैं जो मात्र छोटे छोटे लोन के कारण आत्महत्या कर ले रहें हैं. इसे इनकी साख की इतनी चिंता क्यूँ है कि इनके नाम सार्वजानिक नहीं कर पा रहा है. छोटे लोन के डिफाल्टर के साथ जैसा व्यवहार करते हैं और जैसे बेइज्जत उन्हें किया जाता है, उनके घर से गाडी उठा ली जाती है और बकाये वसूली के गुंडे टाइप के कलेक्शन एजेंट भेज के जैसे उनकी सामाजिक साख ख़त्म की जाती है तो बड़े बकायेदारों के साख की इतनी चिंता वाली नीति क्यूँ आ जाती है . आरबीआई बड़े डिफाल्टर का नाम आपको क्यों नहीं बताती है ? इसके जबाब पे आरबीआई को खुद मंथन करना पड़ेगा. यदि प्रधानमंत्री ने ५९ मिनट में लोन और MSME के दरवाजे पर जाकर ऋण देने की जो बात कहीं है यदि इसके साथ आरबीआई और बैंक कदमताल कर ले तों देश का आर्थिक परिदृश्य वाकई में बदल सकता है, जरुरत आरबीआई बनाम सरकार के माहौल की नहीं है जरुरत आरबीआई और सरकार के एक लाइन में सोचने की है.
       

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