मैं, मेरी कहानी, आरक्षण और वीपी सिंह


*मैं_मेरी_कहानी_आरक्षण_और_वीपी_सिंह*

पढाई के दौरान कक्षा १ से लेकर बीकॉम तक मेरा हमेशा से रैंक आता रहा है. कक्षा १ से लेकर १२ तक मैं हमेशा सिर्फ कक्षा में ही प्रथम नहीं आता लगभग मेरी याददाश्त दुरुस्त है तो हमेशा स्कूल भी टॉप करता था. सिर्फ बीकॉम में विश्वविद्यालय में सेकंड रैंक आई और प्रथम रैंक एक पप्रोफ़ेसर साहब के पुत्र को आई. इसके बाद मैंने सीए गोरखपुर, लखनऊ से किया वो भी बिना कोचिंग के, जिसमें मैं सीए तो बन गया लेकिन रैंक नहीं ले आ पाया था.

शुरू से ही मेरी अभिरुचि भौतिक विज्ञानं में और अंक गणित में रही है और आज भी मेरी रूचि इसी विषय में रही है. मेरे पिता जी भी विज्ञानं अध्यापक थे और उनके पास भौतिक रसायन एवं जीव विज्ञानं के किताबों की हर पब्लिकेशन की स्पेसिमेन कॉपी किताब प्रति वर्ष आ जाती थी. गर्मियों की छुट्टी में खाली रहने के दौरान कक्षा ६, ७ एवं ८ में ही मैंने कक्षा ९ एवं १० एवं ११ एवं १२ के महत्वपूर्ण विज्ञानं के चैप्टर कई बार पढ़ लिए थे, क्यूँ की उसके संक्षिप्त चैप्टर कक्षा ६, ७ एवं ८ में भी थे. अतः ९ वीं एवं १० वीं के दौरान कभी भी मैं विज्ञानं को लेकर असहज नहीं था क्यूँ की सब पढाया पढाया था.
१९९० का दौर था और अपनी पढाई के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव कक्षा ९ वीं में था, वीपी सिंह ने मंडल कमीशन लागू कर दिया था और पुरे देश में आरक्षण विरोध के आन्दोलन शुरू हो गए थे और दिल्ली में देशबंधु कॉलेज के बीकॉम के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह का प्रयास किया था. किशोरावस्था के उस दौर ममे जब जोश बहुत ज्यादे था, यह घटना डरावनी और विचलित कर देने वाली थी. तब जायसवाल बिरादरी आरक्षण के दायरे में नहीं आती थी. चारो तरफ से ऐसी खबरे आने लगीं थी की, अमुक आरक्षित वर्ग का लड़का १० अंक पाया और उसका IIT में सिलेक्शन हो गया CPMT में सिलेक्शन हो गया और सवर्ण लड़का ९०% पाकर भी चयनित नहीं हुआ.
कक्षा ९ वह मोड़ होता है जहाँ एक छात्र अपना करियर चुनता है. मेरे अन्दर एक डर और भावना बैठ गई थी की मैं कितना भी प्रयास कर लूं इस आरक्षण के कारण मेरा IIT में सिलेक्शन नहीं होने वाला है, कोई मुझसे कमजोर छात्र मेरे से भी काफी कम नंबर लायेगा और उसका सिलेक्शन हो जायेगा और मेरा समय और मौका बरबाद हो जायेगा.
और इस डर और भावना के कारण मैंने अपने पडोसी, बड़े भाई और मित्र जो की बैंक में काम करते थे जिनका नाम दुर्गा चरण निश्चल था उनसे सहायता ली. उनके द्वारा पता चला की IIT और CPMT के समक्ष CA नाम की एक परीक्षा होती है जो आल इंडिया बेसिस पर होती है और भारत का सबसे कठिन एग्जाम होता है. चूँकि पढने में मैं तेज था तो मेरा जूनून था कि मैं भारत का सबसे टफ कम्पटीशन ही दूंगा. जब IIT और CPMT में भविष्य नहीं दिख रहा था तो मेरी तलाश CA पर आकर ख़त्म हुई.
१९९२ में राजनाथ सिंह ने नक़ल अध्यादेश लागू हो गया था, प्रदेश में पहली बार सभी छात्र डरे हुए थे, क्यों की उसके पहले बोर्ड के एग्जाम में नक़ल का बोलबाला था, पुलिस के साए में एग्जाम होने थे और नक़ल संज्ञेय अपराध घोषित हो चूका था. हालाँकि मैं निश्चिंत था क्यूँ की मैंने सेलेक्टिव स्टडी की जगह पूरी की पूरी किताब और कई पब्लिकेशन की किताब पढ़ ली थी. सारे पेपर अच्छे हुए. मेरे स्कूल में लगभग २०० बच्चे विज्ञानं वर्ग से हाई स्कूल में थे सिर्फ १३ पास हुए थे जिसमें से एक मैं था और ७२% के साथ मैंने स्कूल टॉप किया था. पुरे प्रदेश का रिजल्ट १३% ही बना था. जब ११ वीं में एडमिशन के लिए तबके प्रदेश के नंबर वन स्कूल महात्मा गाँधी इंटर कॉलेज गोरखपुर में कॉमर्स में एडमिशन लेने गया तो क्लास टीचर से लेकर मैथ के टीचर श्री भुलई प्रसाद आश्चर्य में थे. मेरे पिता जी तो अंतिम समय तक बोलते रहे बेटा की साइंस ले लो, उस कॉलेज के केमिस्ट्री टीचर ने १० बार बोला होगा की साइंस ले लो, जबकि उस कॉलेज में साइंस में एडमिशन सिफारिश से हो रहा था और मुझे मेरे नंबर इस माहौल में भी गाँव क्षेत्र में पढने के बावजूद आने पर सामने से ऑफर हो रहे थे. भुलई प्रसाद जी और मेरे पापा तो छमाही एग्जाम तक इस आशा में थे की शायद मैं थक हार के विज्ञानं ले लूँगा क्यूँ की मेरे रूचि के विषय थे. लेकिन मैं आरक्षण की कहानी से इतना डरा हुआ था की मुझे आरक्षण मुक्त एक ही कम्पटीशन दिख रहा था और वो था सीए और मैंने सीए करने की ठान ली थी और जब सीए ही करना था तो उसकी पढाई ११ से क्यूँ नहीं.
फिर मैंने अपने अरुचिकर विषय से इंटर किया, दोनों वर्ष कक्षा और कॉमर्स संवर्ग के कॉलेज भी टॉप करता गया लेकिन कभी रूचि पैदा नहीं हुई, शुरू से कुछ न कुछ रिसर्च खोज करने का जूनून था जिसका स्कोप कामर्स में दिख नहीं रहा था. बीकॉम भी किया यूनिवर्सिटी में रैंक भी आई, लेकिन विज्ञानं की पढाई की कमी खलती रही. सीए भी बन गया, लेकिन फिजिक्स के प्रति लगाव आज भी है, लेकिन मेरी पहचान सीए के नाते कॉमर्स से बन गई तो उस विषय पर मुझे कोई गंभीरता से लेता नहीं. इसीलिए आज तक आप पाएंगे की मेरी सर्किल दोस्त और मेरा लेखन सीए से ज्यादे अन्य विषयों पर ही रहता है, क्यूँ की रिसर्च करने का मन है, अकाउंट में उसकी सम्भावना नहीं है. बीकॉम के पढाई के दौरान सिर्फ एक आस बंधी थी जब अर्थशास्त्र का परिभाषा पढ़ा और तभी मैंने इसकी एक नई परिभाषा के खोज का जूनून पाल लिया.
विज्ञानं नहीं पढ़ पाने का फ्रस्ट्रेशन आज तक मुझे परेशान करता है और बुरी तरह से प्रभावित करता है. वर्ष २००३ और २००४ में मेरे एक सॉफ्टवेयर इंजिनियर मित्र ने और उसकी सॉफ्टवेयर इंजिनियर पत्नी ने मिल के एक सॉफ्टवेयर कंपनी बनाई, जाड़े की रात और दिल्ली के कटवारिया सराय का एक मकान था और हम सब ने एक कॉमन शपथ लिया की हम एक कंपनी बनायेंगे और उसे विप्रो एवं TCS जैसी कंपनी बनायेंगे, हमने कंपनी बनाई जब कंपनी सेक्रेटरी कंपनी फॉर्म करने आया तो उसने मुझे सूचना दी की ५०००० शेयरों में से मेरे हिस्से सिर्फ १० शेयर किए गए थे क्यों की मैं एक सॉफ्टवेयर इंजिनियर नहीं था और वह कंपनी तो सॉफ्टवेयर कंपनी बननी थी, फिर उसी टीम के साथ मिल कर एक वेब पोर्टल शुरू किया था जिसकी अवधारणा १००%  ठीक वही थी जो आज अमेज़न डॉट कॉम एवं फ्लिप्कार्ट  की है. यह कांसेप्ट हम सब ने मिलकर २००३ एवं २००४ में लांच कर दी थी, सॉफ्टवेयर की प्रोग्रामिंग पूरी उसकी थी क्यूँ की मुझे तो सॉफ्टवेयर आता नहीं था और मेरा योगदान बिज़नस इनपुट था. इसके लिए जब कंपनी बनने की बात आई तो शेयर होल्डिंग नहीं CFO एवं ऑपरेशन का जॉब ऑफर किया गया केवल, उसके पीछे कारण यह था कि यह प्रोजेक्ट आईटी का है एक सीए का काम ऑडिट एवं हिसाब किताब का है तो पंकज तुम्हे इसका हिसाब किताब संभालना होगा, CFO या COO बनना होगा, इसलिए मुझे उस कंपनी में शेयर नहीं मिला क्यूँ कि मैं सॉफ्टवेयर इंजिनियर नहीं था. बाद में उसी कांसेप्ट पर फ्लिपकार्ट ने हजारों करोड़ कमाए और मैं निराश होकर जब सीए ही करना है तो दिल्ली छोड़ सीए की प्रैक्टिस करने मुंबई आ गया, क्यूँ की सीए की प्रैक्टिस के लिए मुंबई मक्का माना जाता है, आज भी जब फ्लिप्कार्ट बन्धुवों के बारे में सुनता हूँ की हजार हजार करोड़ उन्हें मिलते हैं, मन मसोस कर रह जाता हूँ और सामने आता है वीपी सिंह का चेहरा.
मन में एक कसक हमेशा रहती है की टैलेंट को मैं वो मुकाम नहीं दिला पाया हूँ, जिसका कि मेरा टैलेंट हक़दार है. बहुत सारे आईडिया आते हैं लेकिन आईटी बैकग्राउंड नहीं होने की वजह से और जीवन में अन्य प्राथमिकताओं की वजह से छूट जाता है. वर्ष २००९ से मैं कमर्शियल कार पूलिंग का प्रोजेक्ट लेकर कई लोगों से बात किया कि एक ऐसा सॉफ्टवेयर का मेरे पास आईडिया है, जिससे कमर्शियल कार में खाली पड़े जगह को ऑफर कर कर किराया भी सस्ता किया जा सकता है और कैब कम्पनियों को फायदा भी कराया जा सकता है. इसे मैंने अपने पार्टनर को प्रेजेंटेशन दिया, उन्होंने कहा यार सीए पे फोकस करो, फिर एक इन्वेस्टर का जुगाड़ कर दिल्ली में एक सॉफ्टवेयर कंपनी को प्रेजेंटेशन दिया , ४ घंटे की मैराथन मीटिंग भी हुई, लेकिन उसके पास अन्य प्रोजेक्ट भी थे इसलिए इसे बाकी बचे समय के लिए रक्खा, मुंबई में एक सॉफ्टवेयर इंजिनियर मित्र से बात किये थे लेकिन उसके पास अपने प्रोजेक्ट थे खुद उसने भी ध्यान नहीं दिया और अंत में मै थक हार के बैठ गया. बाद में देखा कि ओला और उबर ने अपने एप में शेयरिंग आप्शन लांच कर  दिया और मोबाइल से बुकिंग स्टार्ट हो गई जो की एकदम से वही आईडिया था जिसपे मैं बात कर रहा था और जिसे मैं मेरु कैब या टैब कैब को बेचने की बात कर रहा था. टेक्नोलॉजी का सही समय पे इस्तेमाल नहीं करने ले कारण मेरु और टैब कैब का हजारों करोड़ का इन्वेस्टमेंट डूब गया और मैं उनके पास इसलिए नहीं जा सका क्यूँ की इसके प्रेजेंटेशन के लिए मेरे पास सॉफ्टवेयर इंजिनियर की डिग्री नहीं थी.
एक बार मैं दिल्ली में ऑडिट कर रहा था वहां मैंने देखा की स्टाफ ट्रांसपोर्ट पे साल में ८ करोड़ का खर्चा है वर्ष २०१३ की बात होगी. मैंने देखा की लगभग सभी स्टाफ एक एक कैब लेकर घर से आ जा रहें हैं सबको कैब सुविधा मिली हुई थी.  और काउंटर पर आते ही तुरंत गाड़ी चाहिए थी मैंने अपने ऑडिट रिपोर्ट में लिखा की यदि रूट ऑप्टिमाइजेशन का सॉफ्टवेयर और साथ में स्टाफ वेटिंग टाइम बढ़ा दिया जाए तो एक कैब से ३ लोग जायेंगे और ट्रेवल का खर्चा ६०% कम हो जायेगा, और इस बात को उनके स्थानीय मैनेजमेंट ने अपने अपर मैनेजमेंट के सामने अपना प्रेजेंटेशन दिया, उन्होंने सॉफ्टवेयर इंजिनियर हायर किया, लाखों रूपये दिए और अब उनके सालाना ट्रांसपोर्ट खर्च ३ करोड़ के आसपास आ गए. उनके साल के ५ करोड़ बच गए, लेकिन मुझे क्या मिला कुछ नहीं क्यूँ की यहाँ फिर वही बात आ गई की मै सॉफ्टवेयर नहीं बना सकता इसलिए इस कार्य का सारा श्रेय सॉफ्टवेयर इंजिनियर को ही गया.

बीच में ४ दोस्तों के साथ मिलकर पुरे देश के फुटकर दुकानदारों का एक डिजिटल प्लेटफार्म बना के उनके ऑफलाइन सौदे को वहीँ तत्काल ऑनलाइन टैबलेट से रूट कर काउंटर के सौदों को ऑनलाइन सौदे के सारे कूपन छूट एवं डिजिटल बेनिफिट दिला के डिजिटल इंडिया का सपना साकार करने की योजना थी. हमने अपने दोनों सॉफ्टवेयर इंजिनियर मित्रों के साथ खूब मीटिंग की २ साल वक़्त दिया, लेकिन उन्हें कोई और अवसर मिला वो उसपे काम करने लगे और इससे लगभग थोडा  मिलता जुलता स्कीम २ साल बाद मुकेश अम्बानी ने लांच कर दी, और फिर मैं मन मसोस कर रह गया.
कार पार्किंग का प्रोजेक्ट बनाया, लेकिन आगे नहीं बढ़ सका क्यूँ की आईटी का काम नहीं कर सकता, बाद में देखा सेम प्रोजेक्ट किसी और ने लांच कर दिया.
मेरे अभिन्न मित्र ने स्मार्ट गाँव का एप लांच किया और उसकी तारीफ़ पीएम मोदी ने भी कर दी क्यूँ की वह डिजिटल इंडिया के लिए एक उदाहरण था प्रवासियों के द्वारा, जबकि हम प्रवासी होते हुए भी यूपी के लिए, अपने गाँव के लिए तमाम काम कर रहें हैं, लेकिन हमें वो पहचान नहीं मिलती है, क्यूँ कि हम उसका आज के वक़्त के हिसाब से डिजिटल नहीं कर सकते क्यूँ की मैंने पढाई IIT या विज्ञानं से नहीं सीए किया है. एक दिन सुबह सुबह मैं उस दोस्त के पास गया, शुभेच्छा से सामने से ऑफर किया की भाई आप मुझे चाहे तो पाने कंपनी का सीईओ बना सकते हो आप आईटी वाला पूरा डोमेन संभालो और हम फील्ड सँभालते हैं क्यों की गाँव का विकास करने के लिए गाँव को समझना पड़ेगा, अपना गाँव ठीक करना अलग बात है लेकिन अपरिचित १०० गाँव को स्मार्ट बनाना अलग टास्क है. तब मेरे दोस्त ने बताया की नहीं हम सिर्फ प्लेटफार्म डेवेलोप पर फोकस कर रहें हैं और यहाँ आईटी का ही मेन काम है, और मेरा आईटी बैकग्राउंड नहीं है. दोस्त ने लेकिन बोला की वह अपने यूएस पार्टनर से बात करेंगे, लेकिन एक दिन बातों बातों में पता चला की सीईओ वो खुद बनेंगे. मैंने दिल में शुभेच्छा दी, क्यूँ की मैं समझ गया था की यह पूरा आईटी का ही प्रोजेक्ट है और मैंने आईटी किया नहीं है.
समय के साथ मैं जब इन घटनाओं का सामना करता हूँ तो मन मसोस कर रह जाता हूँ, सामने वीपी सिंह और मंडल कमीशन का वह वक़्त घूम जाता है जब मैंने विज्ञानं छोड़ कॉमर्स लेने का फैसला किया था. मुझे आज भी लगता है कि मेरा वह फैसला गलत था. हालाँकि आज मैं इस विषय का मास्टर हूँ लेकिन अर्थशास्त्र छोड़ मेरा किसी विषय में रूचि नहीं विकसित हो पाया और इसी सत्य के साथ मैं जीवन में आगे बढ़ रहा हूँ कि मुझे जब भी कोई प्रोजेक्ट करेगा मैक्सिमम CFO या डायरेक्टर फाइनेंस से ज्यादे प्रोजेक्ट नहीं करेगा, सीईओ का पोस्ट आईआईएम या IIT वाले ले जायेंगे. मुझे आज भी लगता है कि यदि मैंने विज्ञानं लिया होता तो बंसल और मार्क जुकरबर्ग से बहुत आगे होता, पैसे के मामले में या स्पेस टेक्नोलॉजी में कोई बड़ा रिसर्च किया होता.
आरक्षण को लेकर मेरा खुद का यही अनुभव है, अच्छा है या बुरा है इसे मेरे वक़्त ने मुझे बताया है. लेकिन मुझे मायावती की यह बात अच्छी लगती है की अब इसे आर्थिक आधार से जोड़ देना चाहिए, 68 साल इस योजना के हो गए हैं कई पीढियां बदल गई हैं, आज यदि इसे आर्थिक आधार पर करते हैं तो दलित और पिछड़ी जातियां जिन्हें वाकई में इसकी जरुरत है वो १००% इस रेंज में आ जाएँगी. आरक्षण आर्थिक प्रगति के लिए ही दलित और पिछड़ी जातियों को दिया गया था, यदि ये आर्थिक पिछड़ेपन से बाहर आ गईं हैं तो इस्पे कब्ज़ा ज़माने की बजाय इन्हें इसे अपने ही जाति के अन्य लोगों को इसे हस्तांतरित करना चाहिए और यह तभी हो सकता है जब इसे आर्थिक आधार से जोड़ा जाये.   

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