सनातन अर्थशास्त्र भारत की अर्थ रीढ़ है


विश्व प्रसिद्द अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अभी हाल में कहा कि “भारत ने २०१४ से अर्थव्यवस्था के मामले में गलत छलांग लगा ली है और सरकार असमानता और जाति व्यवस्था के मुद्दों की अनदेखी कर रही है. अनुसूचित जनजातियों को अलग रखा जा रहा है. उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों के समूह हैंजो टॉयलेट और गंदगी हाथों से साफ करते हैं. उनकी मांग और जरूरतों की अनदेखी की जा रही है. मुझे लगता है उन्हें इतना चिन्हित व्यक्तिगत कमेन्ट देने से बचना चाहिए था आज परिस्थिति बदली है अब टॉयलेट और गंदगी हाथों से लगभग नहीं साफ़ की जाती है, सरकार बड़े पैमाने पर स्वच्छता अभियान और टॉयलेट योजना लागू कर रही है जिससे रोजगार और इस हालात से मुक्ति दोनों का लक्ष्य प्राप्त हो रहा है. आजादी के बाद पहली बार यह २०१४ से टॉयलेट एवं स्वच्छता सरकार की नीति के स्तर पर मुख्य योजना में शामिल हो सका है. चुनिन्दा तस्वीरें भारत जैसे बृहद इकॉनमी के लिए बेस वाक्य नहीं बन सकते हैं, हां सरकारों का तो प्रयास इन चुनिन्दा तस्वीरों को भी बदलने की होनी चाहिए, लेकिन कमोबेश ऐसे हालात तो हर देश में हैं जहाँ विकास कई जगह नहीं पहुँच पाया है या कम पहुंचा है. दरअसल भारत ने अर्थव्यवस्था में उल्टी छलांग २०१४ से नहीं लगाई, इसने कई बार उलटी छलांग लगाई और इसके मूल कारण भारत में विदेशों से आये विदेशी शासक ही रहे. भारतीय अर्थव्यवस्था में उल्टी गंगा तब बही, जब भारत को एशिया के लुटेरों के द्वारा लूटा गया, जब गाय को अंग्रेजों द्वारा कृषि आधार से निकालकर उसे बृहद आधार पर खाने में इस्तेमाल किया गया और इसकी शिक्षा नीति को बदला गया.
पहले मुस्लिम आक्रमणकारी और बाद में जब अंग्रेज भारत आये तो उन्होंने भारतीय समाज पर शासन करने की दृष्टि से कृषि और गाय एवं गुरुकुल को टारगेट किया. स्लॉटर हाउस बनायेगौ मांस का इस्तेमाल ब्रिटिश सैनिकों द्वारा भोजन के रूप में होने एवं  इसका इंग्लैंड में कारोबार के रूप में इस्तेमाल होने से तत्कालीन समय में भारतीय कृषि को एक बड़े कृषि एवं आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा. अपने इस हमले के द्वारा अंग्रेजों ने भारत के आर्थिक मूल पे तगड़ी चोट कर भारत की पूरी कृषि आधारित मूल आर्थिक व्यवस्था को नष्ट कर दिया था जिसकी मार आज तक जारी है।
भारत के दर्शन अहं ब्रह्मास्मि पे चोट किया गया. इस वाक्य का अर्थ है मैं ही ब्रह्म हूँ या मुझमें ब्रह्म की सर्व शक्तियां हैं  इसका सार है कि व्यक्ति के अन्दर सर्व संभावनाएं हैं कई तो जन्म से हैं और कई उसने अर्जित की है , सिर्फ उसपे दृष्टि डालनी है, उसे जागृत करना है और उसे गतिमान बनाना है. अंग्रेजों ने इस सूत्र वाक्य पे चोट करते हुए कौशल विकास की जगह मैकाले की स्लाइस नुमा शिक्षा नीति को आगे बढाया जिसका हश्र ये है की हमारे करोड़ों युवा बिना यह जाने की ग्रेजुएट की पढाई से कौन सा कौशल विकास होगा सिर्फ पढ़े जा रहें हैं, दरअसल भारत की उल्टी गंगा तब बही थी जब अंग्रेजों ने यहाँ की शिक्षा पद्वति अपने लिए नौकर पैदा करने के लिए बनाई थी ना कि कौशल एवं उद्यमी पैदा करने की और सरकारों ने आज़ादी के बाद उसे ही लागू रक्खा. जबकि अब भारत द्वारा कौशल विकास का बढ़ावा दिया जा रहा है जिसके माध्यम से पुरातन रोजगार आधारित जाति व्यवस्था या अन्य कारण से भी किसी के अन्दर हुनर का विकास हुआ है तो वह उस कुशलता को आधिकारिक तौर पर रोजगार का माध्यम  बना सकता है.

आज डंकल जैसे लोग ग्लोबल इकॉनमी की बात करते हैं लेकिन भारत का सनातन चरित्र पहले से ही पूरे विश्व को एक परिवार मानता है। सनातन अर्थशास्त्र में देश सीमा जैसे बंधन कृत्रिम हैं. यदि सभी देश वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा पर परस्पर सौहाद्र और भाईचारे से परिवार की तरह रहें तो आर्थिक असमानता आएगी ही नहीं और सीमाओं का रक्षा खर्च ख़त्म हो जायेगा। वसुधैव कुटुम्बकम का सूत्र पकड़ वैश्विक स्थैतिक संसाधनों को गति देकर ही हम विश्व के 800 करोड़ लोगों के हाथ में काम खुशहाली समृद्धता और शांति ला सकते हैं और इसके द्वारा ही हम आतंकवाद को भी खत्म कर सकते हैं।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत। ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः. भारतीय दर्शन का एक और सूत्र वाक्य है जो बिना उंच नीच जात पात का भेदभाव किये यह निर्देशित करता है कि "सभी सुखी होवेंसभी रोगमुक्त रहेंसभी मङ्गलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।" भारत की उल्टी गंगा तब बही जब हम इन सूत्र वाक्यों को छोड़ बाहर से आई व्यवस्था को अपनाने लगे.

अगली उल्टी छलांग तब लगी जब देश आजाद हुआ तो भारत के मूल चरित्र को छोड़ कर सामाजिक विकास की योजना बनी. देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित तो किया गया लेकिन वामपंथी विचारधारा के प्रभाव होने से अल्पसंख्यक का सहारा पकड़कर अल्पसंख्यक वाले धर्मों को पिछले दरवाजे से संविधान में शामिल किया गया. यदि देश धर्मनिरपेक्ष है तो बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का धार्मिक आधार पर विभेद क्यूँ ? इन दोनों में से एक को पिछले दरवाजे से संविधान में मान्यता दे देना और दुसरे को सांप्रदायिक कह देना ही आज़ादी के बाद हो रही कई समस्याओं में से एक है. धर्मनिरपेक्ष का आशय है की किसी धर्म को कोई विशेष तरजीह नहीं दी जाएगी और शासन की दृष्टि में सब समान रहेंगे, सर्व धर्म सम भाव का पालन होगा. लेकिन आज़ादी के बाद यह तुष्टिकरण का हथियार हो गया जिसने ७१ साल से अल्पसंख्यकों को आज तक पिछड़ा रक्खा, यदि उसी समय से उन्हें इस तुष्टिकरण के लबादे से निकालकर हिन्दुओं से खुली प्रतिस्पर्धा के लिए छोड़े होते तो आज जो उनकी हालत है वैसी नहीं होती, देश का जनसँख्या संतुलन अर्थ की दृष्टि से खुशहाल रहता, उदार की खुली अर्थव्यवस्था यहाँ लागू की जानी चाहिए था जिसे बाद में पूंजीपतियों के लिए लागू कर दिया गया. देश को आज़ादी के समय से ही वामपंथी विचारधारा का इस्तेमाल फ़िल्टर लगाकर करना चाहिए था । वामपंथ से ताल्लुक रखने वाले मार्क्स, लेनिन, माओ ने समय समय पर साम्यता लाने के लिए अपने विकल्प दिये, लेकिन जरूरी नहीं की गणतीय दृष्टि से सही लगने वाली बात हर देश हर काल में सही हो हो सकता है वो मूलता को खो चुकी हों. इसमें भी शोध की गुंजाईश है परंपरावादी न बनते हुए लेनिन, मार्क्स और माओ के विचारधारा से भी आगे जा कर साम्यता का नया सूत्र खोजा जा सकता था। आज़ादी के बाद कई दिनों तक इस विचारधारा के प्रति सॉफ्ट प्रभाव शासन करने वालों का रहा. इनके द्वारा विकसित वैज्ञानिक व्याख्याओं के अनुसार “वर्ग संघर्ष से ही समाज मे आर्थिक समानता आ सकती है” । जबकि सनातन अर्थ द्वंद इससे उलट बात करता है। सनातन अर्थशास्त्र के अनुसार वर्ग संघर्ष एक कृत्रिम अवस्था है समानता प्राप्त करने के लिए। प्रत्येक मानवों के बीच एक संतुष्टि बिन्दु होता है, व्यवस्था का कार्य होता है उस संतुष्टि बिन्दु को पहचानना जब तक कोई व्यक्ति भले ही किसी वर्ग में वर्गीकृत हो वह संघर्ष तभी तक करता है जब तक की वह अपने संतुष्टि बिन्दु को प्राप्त नहीं कर लेता है, एक बार जब वह संतुष्टि बिन्दु को प्राप्त कर लेता है, वह समाज के विभिन्न वर्गों से कोई प्रतिद्वंदिता नहीं करता। इसलिए,मेरा मानना है की उलटी छलांग २०१४ से नहीं वह तो सैकड़ों वर्ष पूर्व लग चुकी थी.

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