गिरता रुपैया


पिछले हफ्ते एक डॉलर के मुकाबले रूपया ६९ रूपया तक पहुँच गया और यह अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है. सरकार का मानना है कि यह अभी और गिर सकता है,नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का कहना है कि रुपये की कमजोरी चिंता का कारण नहीं है क्योंकि वास्तविक मुद्रा विनिमय दर के संदर्भ में भारतीय मुद्रा का मूल्यांकन अभी भी ठीक है और इस बिंदु पर सरकार द्वारा किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप के का कोई सवाल नहीं है क्योंकि वास्तविक मुद्रा विनिमय दर के हिसाब से रुपया अभी भी 5-7% से अधिक है। जबकि उद्योगों के संगठन एसोचैम का कहना है रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और वित्त मंत्रालय को यह सुनिश्चित करने के लिए की यह और न गिरे इसलिए वह पिक्चर में आयें और मिलकर काम करें ताकि मौजूदा स्तर से रुपये में और गिरावट न हो। बाजार जानकारों का मानना है कि इस बार स्थिति उतनी बुरी नहीं होगी जितनी २००८ या २०१३ में हुई थी क्यूँ की व्यापारियों ने हेजिंग का पर्याप्त कवर लिया हुआ है.

2013 में पिछले मुद्रा संकट के दौरान,  अमेरिकी डॉलर में डील करने वाले आयातकों, पोर्टफोलियो निवेशकों और ऋण लेने वालों में से कई ने अमेरिकी डॉलर की पर्याप्त खरीद के बिना ही दायित्व बढ़ा लिया था और जब मुद्रा तेजी से गिरने लगी तो निवेशकों ने अपने होल्डिंग्स को समाप्त होते हुए देखा और विदेशी उधार के साथ अपने बकाये में ऊँची छलांग देखी। २००८ और २०१३ के सबक को याद करते हुए जब हेजिंग ज्यादे नहीं होने के कारण उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ रही थी , आज के समय में आयातकों ने अपनी हेजिंग की अवधि और राशि में वृद्धि की है अब अपने बाकियों को इससे नियंत्रित करने के लिए ज्यादातर ने अब खरीद के साथ दो महीने के फॉरवर्ड अनुबंध भी कर रक्खे हैं. करेंसी में व्यापार करने वालों का भी मानना है की बिना हेजिंग वाले विदेशी विनिमय पिछले महीनों में 15% तक गिर गएँ हैं इसलिए इस अवमूल्यन के जोखिम अब उतने नहीं रह गए हैं. हालांकि कुछ विशेषज्ञों का अभी भी मानना विदेशी मुद्रा भुगतान (ईसीबी उधारकर्ताओं और आयातकों) द्वारा हेजिंग का प्रतिशत विदेशी मुद्रा प्राप्तियों (निर्यातकों) की तुलना में बहुत कम है और अमेरिका चीन के खतरनाक वैश्विक व्यापार युद्ध को देखते हुए, आयातकों और उधारकर्ताओं को किसी भी संकट के प्रभाव से बचने के लिए अपने हेजिंग में और वृद्धि करनी चाहिए। अमेरिका और चीन के बीच चले इस व्यापार युद्ध में चीन पर यह आरोप भी लगते रहें है की चीन गुपचुप तरीके से अपने करेंसी का अवमूल्यन कर रहा है ताकि विश्व बाजार में अपने निर्यात को बढ़ा कर सामानों को सस्ता कर अपना कब्ज़ा बढ़ा सके. अतीत में, चीन ने इससे इनकार किया था , लेकिन चीन द्वारा मुद्रा अवमूल्यन का प्रयोग कर इसका वैश्विक अर्थव्यवस्था में लाभ उठाने आरोप इस बार खास डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा ही लगाया गया है।

बढ़ती कच्चे तेल की कीमतों के साथ रुपये के मूल्य में अवमूल्यन भारत को "आयातित मुद्रास्फीति" का शिकार बना सकता है। हमारे अर्थव्यवस्था पर एक तेल व्यापार का भारी असर होता है और यह हमारे आयात बिल का लगभग 80 प्रतिशत होता है। कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से मुद्रास्फीति बढ़ जाती है और व्यापार घाटे में वृद्धि हो जाती है विदेशी पूंजी निवेशक संशकित हो जाते हैं पूंजी का बाह्य गमन बढ़ जाता है और यह फिर रुपये पे दबाब बनाता है और एक चक्र का यह शिकार हो सकता है.

ये ऊपर तो हो गया रूपए के अवमूल्यन का  तकनीकी विश्लेषण और उसपर विशेषज्ञों की राय. एक आम आदमी को इतने तकनीकी जानकारी में पड़ने का वक़्त नहीं होता है उसे तो लगता है कि रूपया कमजोर हो रहा है तो इसका मतलब देश की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है, महंगाई बढ़ेगी आदि आदि. तो आइये समझते हैं की अवमूल्यन दरअसल होता क्या है और इसके क्या फायदे एवं नुकसान हैं. अवमूल्यन मतलब जब कोई अपने देश की मुद्रा का किसी अन्य मुद्रा, मुद्राओं के समूह या मानक के सापेक्ष जान बूझकर उसका मूल्य नीचे रखता है तो उसे अवमूल्यन कहते हैं। कई बार इसे मुद्राह्रास समझ लिया जाता है जबकि दोनों दो अलग अवस्थाएं हैं. अवमूल्यन को मुद्रा जारी करने वाली सरकार जानबूझकर निर्णय लेती है जबकि मूल्यह्रास गैर-सरकारी गतिविधियों का नतीजा होता है। सरकारें कई बार व्यापार असंतुलन का मुकाबला करने के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करती हैं क्योंकि यह निर्यात की लागत को कम करता है, और उन्हें वैश्विक बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धी बनाता है, बदले में, आयात की लागत बढ़ जाती है ताकि घरेलू उपभोक्ता विदेशी खरीद कम और घरेलू खरीद ज्यादे करें। इससे निर्यात बढ़ता है और आयात हतोत्साहित होता है, यह व्यापार घाटे को कम करने के साथ साथ बैलेंस ऑफ़ पेमेंट को भी मजबूत करता है। सरकार कई बार कमजोर मुद्रा नीति
को प्रोत्साहित करती है यदि उसके पास सरकार द्वारा जारी किए गए बहुत से संप्रभु ऋण हैं और यदि ऋण भुगतान फिक्स हैं, तो कमजोर मुद्रा, समय के साथ इन तय भुगतानों को प्रभावी रूप से कम महंगा बनाता जाता है, हालाँकि यह रणनीति असफल हो जाती है यदि सरकार ने फॉरेन बांड ज्यादे इशू कर दिए हैं तो।

संक्षेप में कहें तो सरकारें आर्थिक नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मुद्रा अवमूल्यन का उपयोग करती हैं। बाकी दुनिया के सापेक्ष कमजोर मुद्रा होने से निर्यात को बढ़ावा देने, व्यापार घाटे को कम करने और अपने सरकारी ऋणों पर ब्याज भुगतान की लागत को कम करने में इससे उन्हें मदद मिलती है। हालांकि, अवमूल्यन के कुछ नकारात्मक प्रभाव हैं। आयात की कीमत में वृद्धि घरेलू उद्योगों की रक्षा करती है, लेकिन विदेशी प्रतिस्पर्धा  और उनके गुणवत्ता के दबाव के अभाव में हो सकता है कि वे गुणवत्ता से समझौता कर लें। आयात के सापेक्ष उच्च निर्यात भी कुल मांग में वृद्धि कर सकता है, जिससे उच्च सकल घरेलू उत्पाद और मुद्रास्फीति दोनों बढ़ सकता है. ये वैश्विक बाजारों में अनिश्चितता पैदा करते हैं जो संपत्ति बाजारों को गिरा सकता है और मंदी ला सकता है। देश एक मुद्रा युद्ध में फंस सकता है और यह एक खतरनाक दुष्चक्र भी हो सकता है जिसमें अच्छे से ज्यादा नुकसान होने की भी सम्भावना है।

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