ताबड़तोड़ आर्थिक सुधार बोले तो ताबड़तोड़ दवाई


इसा पूर्व के सिकंदर के आक्रमण और उस समय से ही चाणक्य द्वारा एकीकृत भारतीय गणराज्य का स्वप्न देखा जा रहा था. इसके बाद भारत में इस्लामिक आक्रमण हुए, फिर ईस्ट इंडिया कंपनी आई, तत्पश्चात ब्रितानी हुकूमत आई सब आये और भारत को प्रभावित करते रहे. यह देश लगातार कई सौ सालों से आक्रमण , ईस्ट इंडिया कंपनी के लालची शासन और अंग्रेजों की गुलामी में रहा है, निश्चित है इस देश के व्यवस्था और जनचर्या में कई ऐसी चीजें होंगी जो इन कारणों से अब धीरे धीरे व्यवस्था एवं जनमानस की आदत बन गई होगी. इसलिए यह कहना की देश की व्यवस्था की हालत ७० सालों के कारण हुई हो यह गलत होगा. आज देश जहाँ खड़ा है इसमें सदियों से जड़ की गई आदतें और जन व्यवहार है. इसे ताबड़तोड़ नहीं ठीक किया जा सकता है. सदियों से चली आ रही व्यवस्था के बदलाव के लिए पांच साल भी पर्याप्त नहीं होता है. जो लोग वर्तमान हालात को बीते ७० सालों की देन बता रहें हैं दरअसल यह सैकड़ों सालों की आदत है जिसे बीमारी के रूप में रेखांकित किया जा रहा है उसे आप रातोरांत नहीं बदल सकते. इसलिए अगर कोई इसे बदलने का प्रण लेता है तो उसे इसे एक राजनेता की तरह सोचना होगा ताकि हर ५ साल बाद होने वाले चुनावों में वह रिपीट हो सके नहीं तो यदि वह रिपीट नहीं हुवा तो उसके सभी सुधार आधी अधूरी मेडिकेशन की तरह फेल होने जैसे हो जायेंगे साइड इफ़ेक्ट बहुत बड़ा होगा और सब सुधार धरे के धरे रह जायेंगे और इस देश को उसके काल में ली गई सुधारों की प्रसव पीड़ा भारी पड़ेगी और संतान के रूप में प्राप्त इकॉनमी भी मृतप्राय हो जाएगी.
सरकार के ताबड़तोड़ आर्थिक सुधारों को समझाने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ अगर किसी मरीज को लम्बी और बड़ी बीमारी हो जाए तो कुशल डॉक्टर उसे पेन किलर नहीं देता है , सर्वप्रथम वह डॉक्टर अपना समय बीमारी के शोध विश्लेषण एवं डायग्नोसिस में लगाता है और जब बीमारी का निश्चित पता चल जाता है तब जाकर वह इलाज शुरू करता है वह भी दवाइयों एवं इलाज के सारे साइड इफेक्ट्स को जान लेने के बाद. वह ऐसे मियादी बीमारी के लिए चरणबद्ध तरीके से इलाज करता है और उसमें वह नियत करता है की अमुक समय के बाद यह दवा और अमुक समय के बाद यह दवा दी जाएगी. हर दवा का चरण निर्धारित होता है और वह कभी भी ताबड़तोड़ दवा नहीं देता है जैसे कि यदि यह दवा नहीं चल रहा है तो यह दे दे या वह दे दे. और साथ साथ दवा शुरू करने से पहले दवा देने के तरीकों और सुरक्षात्मक क़दमों की पहले व्यवस्था कर लेता है.
नोटबंदी निश्चित रूप से एक अच्छी दवा थी वर्षों से जड़ जमाये काले धन को समाप्त करने के लिए. लेकिन माननीय प्रधान मंत्री के दृढ इच्छा के बावजूद मशीनरी ने उन्हें वह सपोर्ट नहीं दिया, ना तो करेंसी समय से एटीएम में पहुँच पायी ना तो करेंसी ही समय से छप पाई, कई जगह आधी छपी करेंसी छप गई, जिससे काले धन के चोरों को कुछ मोहलत मिल गई साथ में नेपाल के साथ वहां पे पड़ी भारतीय करेंसी का कोई समझौता न होने से भी कई काले धन वालों को रास्ता मिल गया और सुनने में यह भी आया है की तारीख बीत जाने के बाद कोई समझौता न होने के कारण नेपाल में पड़ी करेंसी पे अभी तक कोई निर्णय नहीं हो पाने के कारण भारत का कुछ काला धन नेपाल चला गया है. मीडिया खबरों की माने तो वहां आज भी धड़ल्ले से १० प्रतिशत पर पुरानी भारतीय करेंसी बदली जा रही है. नोटबंदी एक अच्छी दवा है या यूँ कहें की कैंसर की तरह जड़ जमा चुके काले धन की इकॉनमी के लिए कीमोथेरपी है, लेकिन जिस तरह कीमोथेरपी के लिए कुशल डॉक्टर, कुशल प्रशिक्षण, कुशल तैयारी और शरीर के इम्यून सिस्टम की जरुरत होती है वैसी ही कुशल तैयारी , कुशल डॉक्टर और देश के इम्यून सिस्टम की जरुरत थी. सिर्फ यहाँ एक के निर्णय की जरुरत नहीं थी सर्वांगीण तैयारी की जरुरत थी. अकुशल तैयारी के कारण ही नोटबंदी जैसी दवा के ट्रीटमेंट के बाद भी देश को संभलने में ज्यादे वक़्त लगा.
और अभी देश उस इलाज से संभल ही रहा था कि देश को आर्थिक इलाज का दूसरा डोज भी लग गया जीएसटी का. यह नोटबंदी से भी बड़ा इलाज था जिसमे एक झटके से देश के और राज्यों के कई कानून एक कानून में समाहित होने वाले थे और इससे देश के व्यापार का स्वरुप बदलने वाला था. इसे भी सरकार ने बिना एमनेस्टी के जल्दबाजी में लांच कर दिया और धीरे धीरे सुधार करते करते इसे सही पटरी पे ला रही है. देश के व्यापारी नोटबंदी और जीएसटी से अपने आपको संगत में ला ही रहे थे कि देश में एनसीएलटी के मुकदमों की भी संख्या बढ़ने लगी. अब लेनदार अपने बकाया वसूली के लिए एनसीएलटी का दरवाजा खटखटाने लगे और देश की कई कंपनियों के ऊपर उनके समापन का खतरा मंडराने लगा. देश के व्यापारी को लगने लगा की अचानक से देश के सारे कानून उसके सामने आ के खड़े हो गए हैं. वस्तुतः और कानूनन यह सब सही है लेकिन देश का व्यापारी वर्ग इसका अभ्यस्त नहीं है, इन सभी सुधारों के डोज के बीच उसे सँभलने के लिए भी थोडा वक़्त चाहिए.अगर वसूली कानून को सख्त बनाना था तो एक साल से पुराने बकाया को राजकीय बकाया का स्टेटस देके उसकी वसूली निश्चित ब्याज सहित कर देते और एक समयावधि के बाद नहीं होता तो उसे राजस्व बकाये में ट्रान्सफर कर देते. दरअसल सरकार की मंशा पे कोई शक नहीं कर रहा है लेकिन सरकार की तेजी और जल्दबाजी से देश की पुरानी और जड़ जमा चुकी व्यवस्था के परिवर्तन की जो प्रसव पीड़ा है वो असहय होती जा रही है. न्यू वर्ल्ड वेल्थ की रिपोर्ट की मानें तो २०१७ में  7,000 सुपर रिच भारतीयों विदेशों में स्थानांतरित हो गए। 2016 में, यह आंकड़ा 6,000 था, जबकि 2015 में, यह आंकड़ा 4000 था। हालांकि, रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह आउटफ्लो "चिंता" का विषय नहीं हैं, क्यूँ की नए सुपर रिच पैदा भी हो रहें हैं. लेकिन इसमें एक चिंता का विषय तो है की यह संख्या २०१५ के मुकाबले बढ़ रही है वह भी तब जब सरकार इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस के श्रेष्ठ होने का दावा कर रही है.

सिद्धांततः नोटबंदी हुआ, जीएसटी हुआ या एनसीएलटी कानून को सख्त करना हुआ यह सब अच्छा माना जायेगा, लेकिन भारत जैसे विशाल बहुरंगी बहुसंस्कृति, बहु व्यवहार वाले देश में ताबड़तोड़ इस सुधार को लागु कर देना वैसे ही है जैसे ताबड़तोड़ किसी को एक के बाद एक कई एंटी बायोटिक दवाएं खिला देना वो भी जब मर्ज कई सौ साल पुराना हो. सरकार को इस पर तुरंत ध्यान देना चाहिए क्यूँ की भारत एक राजनैतिक देश है और उसे हर ५ साल में चुनाव के लिए जाना है.भारत सरकार को ऐसे बड़े निर्णय को एक एक राजनेता की तरह सोचते हुए राजनैतिक निर्णय के रूप में लेना चाहिए क्यूँ कि इसका प्रभाव जनता पे और उसके पार्टी के राजनैतिक भविष्य पे पड़ेगा. इस तरह के निर्णय किसी तानाशाही व्यवस्था में लिए जाते तो उस सरकार के लिए चल जाते क्यूँ की वह मान के चलते हैं की उन्हें जनता की भावनावों से चुन के आकर शासन नहीं करना है और वह अपनी लाइफ लम्बी मान के चलते हैं. यहाँ तो भारत में चुनावी लोकतंत्र की व्यवस्था है जहाँ हर पांच साल में आपको जनभावना का सामना करना है और अगर ऐसे ताबड़तोड़ सुधारों से जनता हैरान रही तो वह अगले चुनाव में सरकार बदल भी सकती है. ये तीनों सख्ती एक पांच वर्ष के कार्यकाल में ले लेना एक जोखिम भरा कदम है जिसका सामना अब मौजूदा सरकार को करना पड़ेगा और ताबड़तोड़ सुधारों की जिद उलटी भी पड़ सकती है और कोई भी अंडर कर्रेंट चुनाव से पूर्व अगले टर्म में सरकार को रोक भी सकती है.
    

  
        


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