आर्थिक रिपोर्टिंग की असलियत

अभी हाल में देखा गया है की मीडिया के द्वारा की गई कई आर्थिक रिपोर्टिंग चैलेंज हो गई हैं. आजकल जो सबसे अधिक चर्चित आर्थिक रिपोर्टिंग है वो है एनपीए एवं ट्रस्ट का मतलब टैक्स छुपाना, यूपी का इन्वेस्टर समिट एवं विकास दर. देश का एक बड़ा हिस्सा अपने अपने काम में लगा रहता है और इस व्यस्तता में वो भी वो अपनी जानकारी वृद्धि के लिए समाचारों पर ही निर्भर रहता है और कई बार उन बातों को सच मान लेता है जो मीडिया या टीवी चैनल उसे दिखाते हैं. और टीवी चैनलों का तो प्रस्तुतीकरण भी ऐसा होता है की जैसे लगता है कि बात एकदम सही हो. जबसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रस्तुतीकरण ९० के दशक के मनोहर एवं नूतन कहानियां जैसा हो गया है जिसमे खबर के साथ नाटकीयता मसाला और रोमांच के अलंकार भर दिए गए हैं तबसे न्यूज़ कंटेंट कम और सनसनी पे फोकस ज्यादे हो गया है २४ घंटे और ब्रेकिंग के दबाब ने भी रिपोर्टिंग की मारक क्षमता को कम किया है. देश के सम्पूर्ण मीडिया जगत को इस पर मंथन करना चाहिए साथ में संचार मंत्रालय को भी.
 
एक मामला अभी अभी मीडिया में चर्चित हुआ है वह है की टैक्स छुपाने के लिए ट्रस्ट का इस्तेमाल होता है. जब हम न्यूज़ में यह एंगल लेते हैं तो प्रथम दृष्टया यह लगता है की ट्रस्ट मतलब टैक्स मुक्त आय और सरकार को टैक्स नहीं मिलना है, लेकिन लोग इस हिस्से को नहीं देख पाते हैं कि ट्रस्ट के कारण सरकार को आय के एक तिहाई हिस्से का ही नुक्सान होता है लेकिन वह ट्रस्ट वाला तो अपने दो तिहाई हिस्से का नुक्सान करता है क्यूँ कि चैरिटेबल ट्रस्ट से पैसा तो निजी खर्चे या ट्रस्ट के ऑब्जेक्ट के अलावा अन्य ऑब्जेक्ट के लिए तो कोई निकाल ही नहीं सकता है, तो अपने हिस्से का दुगुना नुक्सान तो वह ट्रस्ट वाला भी कर रहा है केवल सरकार ही नहीं कर रही है. साथ ही आयकर की धारा 2(15) ने तो अब प्रतिबंधित भी कर दिया है कि यदि कोई ट्रस्ट व्यापार वा वाणिज्य करता है भले ही उस लाभ का इस्तेमाल चैरिटेबल ही करता हो , उस व्यापार या वाणिज्य की प्राप्तियां केवल उसी सीमा तक चैरिटेबल मानी जाएँगी जो उस ट्रस्ट की सभी कुल प्राप्तियों के  २० प्रतिशत के अन्दर का दायरा है, इस प्रकार कानून ने तो ट्रस्ट के हाथ स्वतः ही बाँध दिए हैं तो कैसे एक सिद्धांत के तौर पर कोई ट्रस्ट का इस्तेमाल कर टैक्स को बचा सकता है जब की उस प्राप्ति पे ट्रस्ट बनाने से ही उसके निजी अधिकार ख़त्म हो जाते हैं और मीडिया इसे हैडलाइन बना देती है.

ठीक वैसा ही २G के केस में हुआ  मीडिया ने बड़ी राशि को ही इतना मुद्दा बना दिया की पूरा देश उसी राशि में उलझा रहा जबकि बाद में अदालत ने कहा, "यह संकेत देने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सामग्री नहीं है कि तत्कालीन प्रधान मंत्री को गुमराह किया गया था या तथ्यों को उसके बारे में गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था” और कोर्ट ने मुद्दे को पकड़ते हुए टिप्पणी भी की कि “अदालत के विचार में, नीतियों के साथ-साथ स्पेक्ट्रम आवंटन दिशानिर्देशों में स्पष्टता की कमी के कारण भ्रम और बढ़ गया” . और साथ ही कहा की "जब विभाग के अधिकारी स्वयं विभागीय दिशानिर्देशों और उनकी शब्दावली को समझ नहीं पाते हैं, तो वे इसके उल्लंघन के लिए कंपनियों / अन्य लोगों को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं," अदालत ने स्पष्ट कहा की "सबसे बुरी बात" यह है कि यह जानने के बावजूद कि किसी शब्द विशेष का अर्थ अस्पष्ट एवं समस्याओं को पैदा करने वाला हो सकता है DOT द्वारा ऐसी स्थिति को दूर करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया । उदाहरण के लिए, तत्काल मामले में, विवाद का बड़ा हिस्सा खंड 8 की व्याख्या से संबंधित है, जिसमें "सहयोगी", "प्रमोटर", "हिस्सेदारी" आदि शब्द इस्तेमाल किए गए थे लेकिन डीओटी में ही कोई भी इसका अर्थ नहीं जानता था जबकि तथ्य यह था कि यह दिशानिर्देश डीओटी द्वारा ही तैयार किए गए थे। और कोर्ट की कार्यवाही में इन शब्दों की व्याख्या को निर्धारित करने में समस्या आ रही है क्यों की कभी भी DOT द्वारा इस शब्द को परिभाषित करने के लिए कदम नहीं उठाया गया. कोर्ट की कड़ी टिप्पणी थी कि ऐसी परिस्थितियों के लिए डीओटी अधिकारी स्वयं ही पूरी गंदगी के लिए जिम्मेदार हैं, ". अब आप अदालत की इस टिप्पणी को पढ़िए और उस समय के मीडिया रिपोर्टिंग को देखिये कितना अंतर पाते हैं आप. आपकी राय एक समय विशेष के हिसाब से कितनी अलग हो जाती है जब एक ही मामले के सम्बन्ध में आप दो अलग अलग समयों पर अलग फैक्ट को पाते हैं.

अभी हाल में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में मैंने देखा की उन्होंने बड़े जोर शोर से अपने अंग्रेजी एवं हिंदी चैनल पे ऐसे प्रस्तुतीकरण दे रहे थे जैसे की यूपी इन्वेस्टर समिट में किसी कोरियन कंपनी ने ९०००० करोड़ का MOU किया है. लाजमी है अगर MOU शब्द का इस्तेमाल न्यूज़ चैनल ने किया है तो इसका मतलब है कि पब्लिक यही समझेगी कि वह MOU उस न्यूज़ चैनल ने वेरीफाई किया होगा और उसके बाद ही खबर को टेलीकास्ट किया होगा, जबकि सरकार ने सुनिश्चित किया की ऐसी कोई MOU ९०००० करोड़ की आई ही नहीं थी, यहाँ तक की कार्यक्रम के दौरान यूपी के उद्योगमंत्री ने अपने औद्योगिक आयुक्त से कन्फर्म कर के यह बता भी दिया कि इस तरह का कोई भी MOU हुआ ही नहीं है लेकिन उसके बावजूद भी टीवी चैनल इस खबर को काफी जोर लगा के प्रसारित कर रहा था और चैनल पे बैठे एंकर और ग्राउंड में गए रिपोर्टर का हावभाव देखकर ऐसा लग रहा था की उन्होंने कोई खोजी खबर दूंढ़ ली है. जब इस खबर का श्रोत दूंढा तो पता चला की यह एक अंग्रेजी दैनिक में छपी थी जिसमे उस कोरियन कंपनी के प्रवक्ता का बयान था की उसने यूपी के मुख्यमंत्री से बात की की वह यूपी में निवेश करना चाहते हैं तो मुख्यमंत्री ने उन्हें आश्वासन दिया की शासन हर संभव सहायता करेगा. यहाँ किसी MOU की बात नहीं है एक कोरियन कंपनी के सीईओ की बातचीत पर एक खबर लिखी गई है जिसे कुछ खबर वालों ने इन्वेस्टर समिट से जोड़ते हुए इसे MOU साइन तक ले गए.
आजकल एनपीए की रिपोर्टिंग बहुत ही आक्रामक तौर पर की गई और ज्यादे फोकस राशि के बड़े होने पर ही लगा रहा. दरअसल आर्थिक खबरें बड़ी ही सेंसिटिव होती हैं वह स्थानीय या राष्ट्रीय तौर पर ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय तौर पर भी भारत पे असर डालती हैं. मसलन कोई लोन NPA हुआ इसका मतलब यह नहीं की उसके सारे लोन ख़राब हो गए हैं, RBI के अनुसार NPA के केस में जो श्रेणीकरण है वह खातेदार के हिसाब से है उदाहरण के तौर पर यदि किसी बैंक से आपके कई लोन हैं लेकिन यदि उसमें से कोई एक लोन भी NPA हो गया तो आपके सारे लोन NPA हो जायेंगे क्यूँ की RBI के नियमों के अनुसार खातेदारवाइज NPA दिखाना है. अब इस केस में पता चला की एक लोन के चलते उसके सारे बैंकिंग सौदे प्रभावित हो गए तो यहाँ NPA के नॉर्म की व्यावहारिकता का प्रश्न है. दूसरा आज तक अगर वाकई किसी वाजिब कारणों से लोन NPA हुआ है तो बैंक CDR SDR OTS आदि रास्तों को अपना कर अपने पैसों की वसूली करती थी जो की बकाया की जगह किसी कम राशि पे समझौते होते थे, लेकिन मीडिया में इतना उस विषय को लेकर चर्चा हो जाता है की अब बैंक भी जोखिम लेने से डरती है और इस तरह की स्कीम ऋण धारक से नहीं करती है जिससे तनावग्रस्त लोन और भी संकट में आ जाता है इन कारणों से और बैंकों की अति सतर्कता से भी इकोनोमी स्लो होने का संकट पैदा हो सकता है. ऐसा नहीं है कि मीडिया की सारी रिपोर्टिंग गलत होती है अगर उनके रिपोर्टिंग से सनसनी वाला पार्ट निकाल दिया जाय तो कंटेंट कई बार अच्छे लगते हैं.
एक पाठक के तौर पर हमें खबरों को अपने विवेक के आधार पर अब खुद ही आकलन कर के पढना चाहिए क्यूँ की २४ घंटे एवं ब्रेकिंग न्यूज़ के दबाब के कारण कई बार स्पष्टता नहीं आ पाती है.
 

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