इकॉनमी की प्रसव पीड़ा

पिछले सप्ताह माननीय वित्त मंत्री ने आखिर मान ही लिया संसद में की इकॉनमी १६-१७ में स्लो डाउन थी. २०१४-१५ में ७.५ तो २०१५-१६ में ८ और २०१६-१७ में ७.१, मतलब २०१४-१५ से भी नीचे चली गई थी. हालांकि इसके काउंटर में IMF के बयान का हवाला देकर अपना बचाव करते हैं कि भारत की इकॉनमी विश्व में तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था के रूप में दुसरे स्थान पर है. अब सवाल उठता है की जब इकॉनमी की जीडीपी दर ७.५ से ८ पे गई थी, तेल के दाम लगातार गिर रहे थे तो अपने आप में यह सुखद संयोग था फिर इसे ७.१ पे लाकर पटकने की क्या जरुरत थी. मेरे ख्याल में सरकार को मेगा सुधार के रूप में GST ही सिर्फ लाना चाहिए था. तुरंत तुरंत एक साथ  दो बड़े सुधारों की प्रसव पीड़ा शायद इकॉनमी सह नहीं पायी, ऐसा होता भी है जब जुड़वाँ बच्चे होने हो तो खतरा बहुत बढ़ जाता है और अतिरिक्त तैयारी और सावधानी की जरुरत होती है जिसमे वित्त मंत्रालय चूकता दिखाई दिया जो कि जग जाहिर है.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि धीमी आर्थिक विकास, उद्योग, और सेवा क्षेत्रों में हुई कम वृद्धि के कई कारण हैं जिसमे संरचनात्मक, बाहरी, वित्तीय और मौद्रिक कारक भी है। उनके अनुसार 2016 में वैश्विक आर्थिक विकास की निम्न दर, जीडीपी अनुपात में सकल फिक्स्ड निवेश में कमी के साथ साथ, कॉरपोरेट क्षेत्र की बैलेंस शीटों का कमजोर होना, उद्योग क्षेत्र में कम ऋण वृद्धि जैसे कुछ खास कारण थे कम वृद्धि दर के.

 

हालाँकि संसद में उन्होंने कहा कि सरकार ने अर्थव्यवस्था के विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न उपाय किये है जिनमें विनिर्माण, उत्पादन और परिवहन के लिए ठोस उपाय, साथ ही साथ अन्य शहरी और ग्रामीण बुनियादी ढांचे, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश नीति में व्यापक सुधार और विशेष कपड़ा उद्योग के लिए पैकेज आदि आदि है. उनके अनुसार सरकार ने 2017-18 बजट में विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न उपायों की घोषणा भी की थी जिसमें बुनियादी ढांचे के विकास को बढ़ावा देने के लिए किफायती आवास के लिए बुनियादी ढांचे की स्थिति, राजमार्ग निर्माण के लिए उच्च आवंटन और तटीय कनेक्टिविटी पर ध्यान केंद्रित किया गया था। "राजमार्ग के विकास के लिए, भारतमाला परियोजना शुरू की गई है। सरकार ने बैंक के पुनर्पूंजीकरण के लिए एक चरणबद्ध कार्यक्रम शुरू किया है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए पूंजी लगाने की जरूरत है, जिससे बैंकों को ऋण देने को प्रोत्साहित करने की उम्मीद है आदि आदि.

हालाँकि सरकार के प्रयास तो ऊपर से ठीक दिखाई दे रहें हैं लेकिन ये सब दीर्घकालिक हैं, इकॉनमी को अभी तुरंत दर्द निवारक इंजेक्शन चाहिए क्यूँ की नोटबंदी और GST जैसे दो बड़े सुधार रुपी ऑपरेशन एक के बाद एक हो गए हैं. इकॉनमी को अगर स्लो डाउन से बचाना है तो सबसे पहले समझना होगा की दिक्कत क्या है. पहली दिक्कत है की पूरा बाजार कॅश फ्लो की दिक्कत से जूझ रहा है. लोगों की बैलेंस शीट की साइज़ तो बढती जा रही है लेकिन उसमें एक बड़ा हिस्सा देनदारियों का है जिसका संग्रह धीमा है और जब तक यह देनदारियों का भुगतान चालू नहीं होगा मुद्रा का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर नहीं होगा. अर्थव्यवस्था के सुचारू रूप से चलने के लिए आवश्यक है की मुद्रा का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर हो और उत्पादन के साधनों का विकास और निवेश इस प्रकार का हो की मौजूदा आबादी उसमें समायोजित हो जाये. यंत्रीकरण और ऑटोमेशन संतुलन की मात्रा में होना चाहिए जितने से आप तकनीक के अद्यतन आउटपुट का इस्तेमाल कर सकें बकिया मानव बल के इस्तेमाल पर जोर देना चाहिए. सरकार को व्यापारियों को भी वह ताकत देना चाहिए जैसी ताकत  सरकार के पास है अगर उसका टैक्स का पैसा बाकी रह जाये तो.

पूंजीवादी अर्थशास्त्र की बजाय सरकार को सामाजिक न्यायिक अर्थशास्त्र पे ध्यान देना चाहिए और अजैविक कारक की बजाय जैविक कारक को कितना लाभ हस्तांतरण हो रहा है वह देखना चाहिए.

अर्थशास्त्र मे मशीन और तकनीक मे भावनाएँ नहीं होती है अतः इनको प्रोग्राम निश्चित कर के चलाया जा सकता है  लेकिन जैविक निवेशक के दो हिस्से मालिक और श्रमिक को प्रोत्साहन की बहुत जरूरत होती है जो उत्पादन और लाभ से सीधे जुड़ी होनी चाहिए। आज के आधुनिक दौर मे मशीन के बढ़ते प्रयोग को नकारा नहीं जा सकता है लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है की मशीन के प्रयोग ने श्रम के बड़े हिस्से का रोजगार कम किया है। जरूरत है इस गैप को न्यायसंगत बना के न्यायपूर्ण वितरण करने की ताकि मशीन के प्रयोग से होने वाली रोजगार की कमी की क्षतिपूर्ति की जाए। और जब तक ऐसा कर के देश के बड़े हिस्से को समायोजित नहीं किया जायेगा स्लो डाउन की समस्या हमेशा बनी रहेगा.

 

हजारों साल से जब भी कभी अकाल पड़ता था या कोई प्रकोप आता था शासकवर्ग बड़े बड़े निर्माण कराने लगाते थे जिससे एक तरफ तो उनके महल खड़े हो जाते थे तो दूसरी तरफ मजदूरी के रूप में पैसा जनता में पहुँच जाता था जिसे वो खरीददारी में इस्तेमाल करते थे लेकिन इसका बुरा पहलू यह था की यह खर्चे वह अपने महल बनाने में खर्च करते थे ना की उत्पादन के साधनों के निर्माण में. मंदी के दौर से निपटने के लिए गारंटी रोजगार योजना कई देशों ने अपनाया शुरू में भारत ने भी अपनाया लेकिन इसके क्रियान्यवन में शुरुवाती दौर में गैर जरुरी कार्य कराये गए जिसे बाद में आने वाली सरकारों ने सुधारा. मौजूदा दौर में सरकार को अगर इकॉनमी की रफ़्तार बढ़ानी है तो तीन चीज करनी पड़ेगी, पहला मनरेगा का वैज्ञानिक तरीके से प्रयोग कर इसकी राशि को बढ़ा देना और सरकार के या पीपीपी के जितने भी बड़े प्रोजेक्ट चल रहें हो उन सब को मनरेगा से कनेक्ट किया जाएँ चाहे वो शहरी हो या ग्रामीण. शहरी क्षेत्र के मनरेगा राशि को ग्रामीण मनरेगा से थोडा ज्यादे रखना चाहिए ताकि शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में श्रम वितरण का संतुलन बना रहे और उद्योगों में श्रम की कमी का संकट न आये. दूसरा सरकार को चिंतन कर के ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए ताकि किसानों को फसल बिक्री पे नकदी जल्दी मिले और उनके फसल का बीमा भी उनके लागत के हिसाब से मिले. किसानों द्वारा उत्पादित स्टॉक को बीमित योग्य स्टॉक मानते हुए इसको बैंकों द्वारा एवं अन्य द्वारा प्रतिभूति में स्वीकार करना भी नकदी का प्रवाह बढ़ाएगा. गन्ना मिलों की पर्चियां जैसे पहले नकद की पर्याय मानी जाती थी वैसे किसान उत्पादों के संग्रह पे सरकार द्वारा जारी की गई पर्चियों की स्वीकार्यता या जल्दी नकदी रूपांतरण से ही ग्रामीण क्षेत्रों में नकदी का प्रवाह बढाया जा सकता है.

 

और तीसरा सरकार को बैंकों को बोलना पड़ेगा की वह कुटीर उद्योगों एवं व्यवसाय को ऋण देने में हीलाहवाली न करें एसडीएम् की निगरानी में सरकारी योजनावों या बैंकों की योजनावों के सारे ऋण कुटीर उद्योगों एवं व्यापार को आसानी से उपलब्ध हो यह सुनिश्चित कराएँ चाहे इसके लिए बैंक ऋण मेला ही क्यूँ न लगाना पड़े. बैंकों को भी देनदारी डिसकाउंटिंग की स्कीम लानी पड़ेगी जो वह अन्तराष्ट्रीय व्यापार में उपलब्ध कराते हैं जब तक जम गई देनदारियों को पिघलाया नहीं जायेगा इकोनोमी के प्रवाह की बर्फ ऐसे ही जमी रहेगी. और सरकार जब तक इन अल्पकालिक इंजेक्शन को नहीं लगाएगी दीर्घकालिक योजनावों की प्रसव पीड़ा भारी पड़ जाएगी.

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