महिला सीट, राजनीति और हमारी सोच


भारतीय राजनीती में महिला सशक्तिकरण के लिए आवश्यक प्रावधान किए हैं उनमें से एक है राजनैतिक अवसर के रूप में महिलावों को चुनाव लड़ने का अवसर देना. देश के नीति नियंतावों को मालूम था की स्वेच्छा से इन महिलावों का राजनीती में प्रवेश और चुनाव लड़ना मौजूदा परिवेश में थोडा कठिन है इसलिए चुनाव में कुछ प्रतिशत की सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाती रही हैं,ताकि इसी बहाने महिलावों की राजनीती में अनिवार्य भागीदारी हो जाये.

 

बीते कई चुनावों में हमने और आपने भी देखा होगा की जब कोई महिला प्रत्याशी होती है तो इसके साथ कुछ नए नए विशेषण पैदा हो जाते हैं जैसे की अगर महिला प्रधान/चेयरमैन की प्रत्याशी है तो पति को प्रधान/चेयरमैन पति कहा जायेगा और महिला को “पत्नी फलाने की” कहा जायेगा. ठीक इसी तरह अगर किसी की माँ प्रत्याशी है तो प्रत्याशी “माता फलाने की” का प्रचार किया जायेगा. इस प्रचार में माता या पत्नी से ज्यादे गाढ़े और प्रभावशाली ढंग से पुत्र या पति का नाम होता है और प्रचार होता है ना कि उस महिला के .

हद तो तब हो गई जब फेसबुक पे एक दिन मैंने देखा की मेरे ही एकप्रबुद्ध मित्र ने अपने युवा मित्र को वोट देने के लिए जनता को बधाई देरहे थे और कह रहे थे कि युवा पर अगर क्षेत्र की जनता ने विश्वास करके वोट दिया है तो उनका वोट उन सब युवा के ऊपर कर्ज है और ये युवा कर्ज को सूद समेत समय समय पर वापस करेंगे.जब मैं इस मामले की तह तक गया तो पता चला कि प्रत्याशी महिला थी और एक युवा की माता थी. यह फेसबुक पोस्ट पढ़ कर के मैं बहुत दुखी हुआ. दुखी इसलिए हुआ की वह माँ जिसने इस योग्य युवा को ९ महीने अपने पेट में रक्खा, कई सालों तक गोद में रक्खा, उसे रहना, चलना, बोलना और जीना सिखाया उसे एक बच्चे से युवा एवं इंसान बनाया आज उस महिला की पहचान खो गई है. जो महिला पूरा चुनाव लड़ी हो, रैलियां की हो, गलियों का भ्रमण की हो उसके बावजूद भी जब वोटरों को धन्यवाद् देने की बारी आई तो समाज द्वारा कहा गया की जो लोग युवा को वोट दिए हैं उनका धन्यवाद्, क्यूँ नहीं माना गया की ये वोट उस महिला को भी तो खुद के उसके पहचान और व्यवहार के कारण भी मिल सकते हैं? उस महिला का भी तो कुछ वजूद हो सकता है? तो क्यों ना ये धन्यवाद् नोट एक पुत्र की तरफ से उसकी माता को वोट देने के जनता को धन्यवाद् के रूप में लिखा जाता, क्यूँ यहाँ समाज में यही मान लिया गया कि वोट तो उस युवा पुत्र को ही मिले हैं? माता तो बस डमी प्रत्याशी थी . यह समझ लीजिये महिला की जगह उसके पुत्र को वोट देने की अपील करना ना सिर्फ महिला का अपमान है यह बाबा साहेब आंबेडकर के द्वारा बनाये गए संविधान और समानता के अधिकार की मूल भावना के खिलाफ है.

 

हालाँकि मैं इस लेख के माध्यम से अपने मित्र के उस पोस्ट को सिर्फ सन्दर्भ के लिए ही लिया हूँ ताकि वस्तुस्थिति बताई जा सके, क्यूँ की यह हालत कमोबेश सब जगह है. मेट्रो शहरों में थोडा कम है ऐसी असमानता लेकिन छोटे गाँव और कस्बों में ये असमानता बड़े पैमाने पे पाई जाती है. मेरे जानकारी में, मेरे रिश्तेदारों में भी बहुत महिलाएं चुनाव लड़ती हैं और जीतती हैं लेकिन तथ्य यही है की मौजूदा समाज जिसमें हम सब लोग आते हैं वह यही मानता है की यह चुनाव वह महिला नहीं लड़ रही है यह चुनाव या तो उस महिला का पति लड़ रहा है या उसका पुत्र लड़ रहा है.

 

आज हम इक्कीसवीं सदी में हैं आधुनिकता , महिला सशक्तिकरण और समानता की बड़ी बड़ी बातें करते हैं और दूसरी तरफ जब कोई महिला अपना वजूद बनाने निकलती है भले ही उसे ऐसा अधिकार सरकार की नीतियों के वजह से मिला हो, हमारी सोच और हम उसे खींच के उसके पहचान को उसके पति और पुत्र के नीचे लाकर खड़ा कर देते हैं, यह कितनी विडम्बना है हमारी सोच की.

 

इस तरह की मानसिकता भविष्य की प्रसाशनिक समस्यावों की ओर भी इशारा करती है, जो ये बताती है की चुनाव जितने के बाद उस नगर का प्रशासन भी वह महिला नहीं उसका पति और पुत्र ही चलाएगा. बिना किसी संवैधानिक अधिकार के मेयर और चेयरमैन पद के सारे अधिकार और आदेश उस प्रधान या चेयरमैन पति या पुत्र द्वारा ही दिए जायेंगे. यहाँ तक की जो नगर के प्रशासनिक अधिकारी होते हैं वह भी उस महिला को चेयरमैन या प्रधान न समझते हुए उस पुत्र या पति की बात मान रहे होंगे. यह एक तरह का प्रशासनिक विफलता और संविधान को दिया जाने वाला धोखा और लोकतंत्र के साथ खेली जाने वाली आंखमिचौली है.

 

इस समस्या का एक दुखद पहलु यह है की देश में बहुत से महिला प्रधान चेयरमैन और सभासद जिनके हस्ताक्षर इस मौजूदा व्यवस्था में ले लिए जाते हैं को यह पता ही नहीं होता है की इस हस्ताक्षर से कौन सा काम हो रहा है. जाने अनजाने में वह किसी न किसी काम के सम्बन्ध में पक्षकार हो जाती हैं. भगवान न करे अगर किसी दिन कोई वित्तीय गड़बड़ी हो जाती है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी उस महिला की ही मानी जाएगी तकनीकी आधार पर न की उसके पति या पुत्र की. क्यूँ की सारे पेपर, चेक आदि पर तो हस्ताक्षर उस महिला की हैं, ऐसी दशा में वह महिला अपराधी मान ली जाएगी जिसे पूरा व्यवस्था चुनाव से लेकर अपराधी घोषित किये जाने तक तो चेयरमैन या प्रधान मान ही नहीं रहा होता है लेकिन जैसे ही कोई अपराध या पाप सर पे लेना होता है तो यह महिला फिर इस्तेमाल कर ली जाती है.

इस गड़बड़ी से रोकने के लिए चुनाव आयोग को आगे आना चाहिए और कुछ कड़े कानून बनाने चाहिए जैसे की चुनाव के पोस्टर और बैनर में फलाने की पत्नी, फलाने की माता आदि विशेषणों को लिखने का निषेध हो. विजय के बाद यदि निर्वाचित महिला का पति या पुत्र सरकारी कार्यों एवं कार्यक्रमों में अपने आपको बढ़ चढ़ के दिखा रहा हो या हस्तक्षेप कर रहा हो तो इसे सरकारी कार्य में हस्तक्षेप मानते ही प्रशासन द्वारा अपनी पहल पे ही इसके खिलाफ कारवाई करना चाहिए. जब तक ऐसे कड़े कानून और कदम नहीं उठाये जायेंगे तब तक राजनीती में महिलावों को दिए जाने वाले अवसरों पे भी पुरुषवादी सोच ऐसे ही हावी रहेगी.

 

मौजूदा यूपी के नगर निकाय चुनाव में बड़े पैमाने पे महिला प्रत्याशी जीत के आई हैं और समाज की इस समस्या का सामना अब आये दिन प्रशासन को करना है, प्रशासन को अपने पहल पे ही इस सम्बन्ध में कुछ दिशानिर्देश बनाने चाहिए ताकि सामजिक सोच रुपी इस बीमारी का निराकरण किया जा सके.

 

 

 

Comments