नोटबंदी और जीएसटी के बाद का देश


आज मुंबई में पेट्रोल 80 रुपये लीटर पहुँच गया है, और महंगाई भी बढ़ती जा रही है। आजकल पेट्रोल और डीजल की कीमतें साल 2014 के बाद सबसे ऊंची स्तर पर पहुंच गई है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें तीन साल पहले के मुकाबले जबकि आधी हो गई है, लेकिन बावजूद इसके देश में पेट्रोल, डीजल की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है. गौर करने योग्य तथ्य है कि नई सरकार के आने के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम लगभग  53 फीसदी तक कम हो गए हैं, लेकिन पेट्रोल डीजल के दाम घटने की बजाय बढ़ते ही जा रहें है. इसके पीछे अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि इसका मुख्य कारण सरकार ने पेट्रोल, डीजल पर एक्साइज ड्यूटी कई गुना बढ़ा दी है. और इस ड्यूटि को जीएसटी से भी बाहर रख दिया है।

हाल ही में एक लोकल सर्वे नाम की वैबसाइट ने एक सर्वे जारी किए हैं जो जीएसटी के बाद महंगाई के अध्ययन हैं। इस साइट के मुताबिक जीएसटी के बाद 51% उपभोक्ता का मानना है की महंगाई बढ़ गई वहीं 47% ने माना है की मेडिकल खर्चे बढ़ गए हैं। 54% लोगों ने माना है की ओवर आल उनके खर्च बढ़ गए हैं। 39% लोगों ने अभी भी माना है कि ट्रेडर अभी भी नकद में व्यवहार कर रहें हैं और जीएसटी के बिल भी नहीं दे रहे हैं। यह सर्वे वैबसाइट ने जीएसटी के क्रियान्वयन के 2 माह के बाद किया जिसमें 20000 उपभोक्ताओं के 45000 वोट प्राप्त हुए।
 
जीएसटी लॉंच से पहले सबकी यही उम्मीदें जगाईं गई थी और सबने यही उम्मीदें लगाई भी थी कि महंगाई कम होंगी लेकिन बीते माह मे वो उम्मीदें अभी परवान नहीं चढ़ सकीं और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक भी ऊपर भाग गया जुलाई और अगस्त माह में । हालांकि इसके लिए कई कारण हैं और उनमें से एक  परिवहन लागत भी है । जीएसटी के कार्यान्वयन और ईंधन की कीमतों में वृद्धि के बाद और कागजी अन्य औपचारिकतावों के चलते परिवहनकर्ताओं ने अपनी लागत बढ़ा दी है। मंत्रालय कि माने तो महंगाई सूचकांक में बढ़ोतरी का मुख्य कारण खाद्य पदार्थो जैसे सब्जियां, अनाज, दूध-आधारित उत्पाद, मांस और मछली की कीमतों में हुई बढ़ोतरी के कारण हुई है. खुदरा दुकानदार भी अब कम छूट देकर उत्पादों को एमआरपी के करीब बेचने की कोशिश कर रहे हैं। अभी कई खुदरा विक्रेताओं ने उन उत्पादों की कीमतों में कमी नहीं की है, जिन पर करों में कमी आई है, जिससे रेट गिरने से जो लाभ उपभोक्ताओं को जाना चाहिए था वह जा नहीं रहा है और उन पर वो बोझ पड़ रहा है। कई विभाग और मंत्रालयों ने तो अपने ठेकेदारों को बोल दिया है कि भाई ठेके के मूल्यों का पुनर्निरीक्षण करो और गिरे हुए कीमतों का फायदा दो नहीं तो विभाग फिर से टेंडर कराएगा। दिक्कत यह है कि कानून में एंटी प्रोफिटीरिंग का विधान तो डाला गया है और विभाग और मंत्रालय ठेकेदार से इसे पालन करने के लिए बाध्य कर पा रहें हैं लेकिन ऐसा कोई विकल्प और जानकारी उपभोक्ता के पास नहीं है। 
 
अब सवाल यह उठता है कि अगर महंगाई ही नहीं घटी तो इस जीएसटी से हासिल क्या हुआ। व्यापारियों का टैक्स का हिसाब सरल हुआ कि सरकार का टैक्स का हिसाब सरल हुआ।
 
महंगाई कम नहीं होने कि वजह से ऐसा लगता है कि नोटबंदी के बाद जीएसटी सरकार और देश के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है इसी कारण राज्यों के वित्त मंत्रियों ने हैदराबाद में हुई जीएसटी काउंसिल की बैठक में इस टैक्स सुधार से जुड़े बहुत से सारे सवाल उठाए । और राज्य सरकारों की ओर से उठाए गए इन मसलों को समझते हुए ही जीएसटी काउंसिल ने सेल्स रिटर्न या जीएसटीआर-1 दाखिल करने की तारीख 10 अक्टूबर तक बढ़ा दी है और तो और जीएसटी काउंसिल ने 30 उत्पादों पर टैक्स में भी कटौती की है। यह सब दर्शाता है कि जीएसटी जैसे टैक्स सुधार को नोटबंदी जैसी जल्दबाज़ी में ही उठा दिया गया। जीएसटी निश्चित तौर पर एक अच्छी प्रणाली हो सकती थी यदि इसे थोड़ी और तैयारी से उठाया जाता। इसे भी वैसे ही लागू किया गया जैसे नोटबंदी लागू किया गया।

नोटबंदी के भले ही दावे किए गए कि यह लंबी तैयारी के बाद लागू किया गया है लेकिन पूर्व गवर्नर ने यह स्पष्ट कर दिया कि उनके रहते यह उनकी जानकारी में नहीं था। मतलब साफ है कि इसकी भी उतनी तैयारी नहीं कि गई थी जितनी कि जानी चाहिए थी, मसला साफ है कि इस आधी अधूरी तैयारी के कारण ही नकली नोट वाले भी अपने नोट असली करा लिए बैंकों के आगे लगी भीड़ का फायदा उठा के एक तरह से तो यह नकली नोट वालों के लिए एमनेस्टी स्कीम हो गई। हालांकि नकली नोट वालों के लिए यह एमनेस्टी स्कीम कितनी हुई यह तब पता चलेगा जब पुलिस द्वारा जमा कराये गए नोटों को अलग कर देंगे। नोटबंदी के बाद कई दावे किए गए थे और अनुमान भी लगाया गया था कि लगभग 2 लाख रुपये जमा नहीं होंगे और यह सरकार का लाभ हो जाएगा जिसे फिर से अर्थव्यवस्था में लगा के उसे बूस्ट कर दिया जाएगा, हालांकि यह भी नहीं हुआ और लगभग 99% पैसा बैंकिंग सिस्टम में वापस गया, जिसका मतलब है कि ब्लैक मनी वालों ने भी अपना पैसा बैंक में जमा करा दिया। यहाँ एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि बैंक में पैसा जमा हो जाने से कोई पैसा वैधानिक या सफ़ेद नहीं हो जाता है, सिर्फ होता यह है कि वह नकद इकॉनमी के बजाय बैंकिंग इकॉनमी में जाएगा। और जिसने भी एक तय सीमा के ऊपर पैसा जमा कराया है उसे आयकर विभाग के पूछे गए सवालों का जबाब देना पड़ेगा। अगर 99% रुपया वापस गया है तो नोटबंदी के ब्लैक इकॉनमी पे प्रभाव का आंकलन वैसे भी तुरंत नहीं हो सकता है इसे पता लगने में कम से कम और एक साल लगेंगे जब तक कि सारे नोटिसों का जबाब और उसका विश्लेषण आयकर विभाग प्राप्त नहीं कर लेता है। नोटबंदी के तुरंत बाद वित्तीय वर्ष मार्च 2017 है जिसके रिटर्न सितंबर 2017 तक जाने हैं और जिसके स्क्रूटिनि कि नोटिस सितंबर 2018 तक सकती है और उसके बाद अगले मार्च 2019 तक इस स्क्रूटिनि के परिणाम आएंगे। लाज़मी है कि नोटबंदी के असल प्रभाव मार्च 2019 के आसपास आएंगे और उस वक़्त चुनाव भी नजदीक गए होंगे। नोटबंदी से तो सरकार के शॉर्ट टर्म इच्छित परिणाम तो नहीं आए लेकिन लॉन्ग टर्म परिणाम ब्लैक मनी पे आएंगे जरूर जब खातों में पड़ी रकम का जबाब आएगा।

सरकार कि एक मंशा और थी कि इकॉनमी ज्यादेतर डिजिटल हो जाएगी लेकिन बैंकों कि काली नजर लगता है सरकार कि इस मंशा पे भी पानी फेरेगी। आज देश के करोड़ों व्यापारी ऐसे हैं जिनका रोज का फुटकर का या नकद का व्यापार है औ आजकल बैंक नकदी जमा और एटीएम निकासी मे धड़ाधड़ चार्ज बढ़ा रही है अब अगर बैंक नकदी आवक या नकदी निकासी पे ही बैंक चार्ज लगा देगी तो लोग बैंक में पैसा क्यों जमा करेंगे और , फिर से रुपया नकद की इकॉनमी में चला जायेगा, डिजिटल इकॉनमी कैसे होगी। सरकार को इसपे सोच के बैंकों को दिशानिर्देश देना चाहिए।

नोटबंदी और जीएसटी के बाद देश इसी कशमकश में फंसा हुआ है, अब उसे आराम चाहिए।
  



Comments