कृषि ऋण माफी : राज्य अपने वित्त की व्यवस्था कैसे करे ?


देश के माननीय वित्त मंत्री का यह दो टूक बयान कि राज्य कृषि ऋण माफी के लिए संसाधन खुद जुटाएँ केंद्र इसमें सहायता नहीं करेगा चौंकाने वाला था, क्यूँ की इनका यह दो टूक बयान इस संघीय ढांचे में केंद्र के प्रधान मंत्री के बयान के विपरीत था। पिछले यूपी के चुनाव मे माननीय प्रधान मंत्री ने घूम घूम के हर जगह जाकर कहा था की हम किसानों के ऋण माफ करेंगे और ऐसा कहते वक़्त वह देश के लिए केंद्र मे प्रधान मंत्री थे और हर यूपी का मतदाता उनका भाषण बीजेपी के सिर्फ एक नेता के रूप में नहीं सुन रहा था, मतदाता कि मनस्थिति मे वोट के लिए निर्णय देते वक़्त उनका केंद्र मे प्रधान मंत्री रहना एक महत्वपूर्ण कारक था । और जब माननीय वित्त मंत्री ने बोला तो ऐसा तो हो नहीं सकता की माननीय पीएम और वित्त मंत्री के बीच संवादहीनता हो, या माननीय पीएम और पार्टी के बीच संवादहीनता हो जो की आगामी चुनाव के लिए पार्टी की घोषणाएँ तय करती हैं। ऐसी परिस्थिति में माननीय पीएम एवं बीजेपी पार्टी को अपना मत स्पष्ट करना चाहिए कि इस मसले पे उनकी क्या राय है?
माननीय वित्त मंत्री का बयान ऐसे समय में और महत्वपूर्ण हो जाता है जब वस्तुवों पे लगने वाले कर का ज्यादेतर निर्णय अब जीएसटी काउंसिल करेगी जिसमे मीटिंग के लिए कोरम अब 50% है मतलब कुछ निर्णय जो की राज्यों में विपणन होनेवाले वस्तुवों से संबन्धित है, उसमे जीएसटी काउंसिल के आधे सदस्यों की अनुपस्थिति मे भी निर्णय हो सकता है। जब एक तरफ राज्यों के वित्तीय अधिकार केंद्रीकृत हो रहे हैं, किसानों कोऋण माफी के लिए आवाहन किया जा रहा हो ऐसे समय मे केंद्र के द्वारा राज्यों को तन्हा छोड़ देना राज्यों को संकट में डालने जैसा है। ऐसा नहीं है कि राज्यों में होने वाले सौदों पर केंद्र टैक्स नहीं लेती है। अब तक तो राज्यों मे होने वाले उत्पादन पर केंद्र ही उत्पाद शुल्क लेती रही है, और तो और सेवा पर तो राज्य सरकार कर भी नहीं लगा सकती थी जबकि सेवा तो राज्य मे घटित होता था। अब तक जो केंद्र का खजाना भरा है वह तो सेवा कर, उत्पाद कर और आय कर के संग्रहण से ही भरा है, तब वित्त मंत्री कैसे इंकार कर सकते हैं?
किसानों के उत्पाद तो पूरे देश के बाजार में आपूर्ति किए जाते हैं। उनके उत्पाद पे बहुत से व्यापारी और फूड प्रोसेसिंग उद्योग राष्ट्रव्यापी व्यापार करते हैं, कई राज्यों में वैट, एक्साइज़ और आय कर भी देते हैं तो किसान सिर्फ राज्य का विषय कैसे हो गया, किसान तो राष्ट्र का विषय है। ऐसे समय में जब मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में किसान आंदोलित है और जहां बीजेपी की ही सरकार है ऐसे में यह रवैया सोचनीय है।
किसान इस देश का नागरिक है और आर्थिक शृंखला का सबसे प्राथमिक उत्पादक है। आप सोने के व्यापारियों के लिए चिंतित हो कि क्या जीएसटी दर रक्खी जाए, लेकिन किसानों के प्रश्न पर इसे राज्य के हवाले छोड़ देने कि बात करते हो। केंद्र को यह सोचना चाहिए कि किसानों कि आय दुगुना करने कि घोषणा के बाद, क्यूँ आज भी किसान आंदोलित हैं या आत्म हत्या कर रहे हैं।
दरअसल समस्या कि जड़ पकड़ी ही नहीं गई है और स्वामीनाथन कमेटी कि अनुसंशाओं लागू न करना इसका कारण है। स्वामीनाथन कमेटी रिपोर्ट के पैरा संख्या 1.12.(xiii) में उन्होने संस्तुति कि थी कि केन्द्रीय कृषि मंत्रालय कि आर्थिक एवं सांख्यिकीय निदेशालय द्वारा प्रकाशित कृषि प्रगति को अब किसान परिवार के नेट आय से मापन करना चाहिए, और कृषि उत्पादन दर के साथ साथ रिपोर्ट में कृषि आय वृद्धि दर को भी बताना चाहिए तभी तस्वीर और दृष्टि स्पष्ट होगी। सरकारें अगर स्वामीनाथन आयोग कि रिपोर्ट मान लेती तो आज ऋण माफी कि नौबत नहीं आती। लगभग सभी मूलभूत प्रश्नों का समाधान उन्होने दिया था जिसमे किसानों के परिवार बीमा शुरू करने कि बात कही थी जिसमे स्वास्थ्य बीमा भी शामिल था, मूल्य संतुलन के लिए फंड कि बात थी आदि आदि।
आज किसानों के सामने संकट सिर्फ उत्पादन का नहीं है, अपने उत्पादन को बेचने का है। अंतर यह है कि सरकार किसानों के उत्पादन को देखती है और किसान अपनी आय को देखता है। दोनों कि दृष्टि का यही अंतर जिसे सरकार कि नीतियाँ पकड़ नहीं पा रही हैं, ही आज के मौजूदा संकट का कारण है। आज एक किसान कोई फसल लगाता है तो यह वर्तमान में चल रही औसत बिक्री दर को ध्यान में रख कर लगाता है जैसे मसलन मान लीजिये कि किसी किसान ने केला लगाया कि जब यह केला बिकेगा तो उसे कम से कम 10 रुपये किलो मिलेंगे, और इसी उम्मीद में उसने उस केले पे 5 रुपये खर्च भी कर दिये, अब जब केला बनकर तैयार हो गया तो पता चला कि बाजार मे केला इतना आ गया कि केला 3 रुपये किलो में बिकने लगा। कहाँ वह 5 रुपये लाभ कि आशा कर रहा था, इस लाभ कि आशा मे कुछ खर्चे कर लिए थे, कुछ उधारी समान खरीद ली थी और कुछ कर्जा भी ले लिया था, अब लाभ तो हुआ नहीं अब तो लागत भी नहीं निकली उल्टा 2 रुपये और नुकसान हो गया, अब वह यह नुकसान कि भरपाई कैसे करे, उधार कैसे चुकाए, ऋण कैसे चुकाए, अपने परिवार कि खुशियाँ और स्वास्थ्य कि सुरक्षा कैसे करे। एक किसान अपने हुनर में पारंगत किसान तो हो सकता है वह बाजार का एक्सपर्ट बिज़नसमैन तो नहीं हो सकता है। और उसका बिज़नसमैन वाला हिस्सा कमजोर होना, और देश के अन्य बिज़नसमैन, काला बाजार वाले, मुनाफाखोर वालों का चतुर होना उसको भारी पड़ता है। सरकार को इसके मूल्य संतुलन, इसके लागत के साथ लाभ कि गारंटी और इसके विपणन वाले हिस्से पे काम करना चाहिए। अगर माल बिकेगा तो किसान दुगुना तिगुना पैदा कर लेगा क्यूँ कि वह अपने हुनर मे माहिर है, उसे सपोर्ट चाहिए तो बिज़नस हुनर कि। दूसरा दिक्कत यह है कि सरकार किसान बीमा को अभी भी व्यावहारिक बना नहीं पाई है ताकि किसान को उसके वास्तविक नुकसान कि कम से कम क्षतिपूर्ति तो मिल सके। कितना हास्यास्पद है अगर एक फसल महीने कि 5 तारीख को खेत मे जल जाती है तो उसके वास्तविक बिक्री मूल्य का क्लेम पटवारी कि कलम और उसके आसपास एक निश्चित क्षेत्र में हुए फसल के नुकसान और एक अधिकारी कि संस्तुति से जुड़ी हैं वही अगर वही फसल 6 तारीख को किसी व्यापारी के गोदाम मे चली जाती है और वहाँ आग लगती है तो उसे वास्तविक क्षति के बराबर पूरे नुकसान कि क्षति पूर्ति होती है और वह बीमा कंपनी के सर्वेयर के द्वारा ही मिलती है, यहाँ पटवारी अधिकारी और अन्य सरकारी व्यवस्थाएं नहीं आती है, देखिये कैसे एक दिन मे फसल कि किस्मत बदल जाती है। मौजूदा व्यवस्थाएं ऐसी हैं कि किसान को फायदा कम और व्यापारी को फायदा ज्यादा है।
माननीय पीएम ने अरुणान्चल प्रदेश में कहा कि अगर आम बेचते हैं तो कम मूल्य मिलता है और जब उसी आम से आचार बनाते हैं तो ज्यादे लाभ मिलता है। लेकिन क्या माननीय पीएम नहीं जानते है किं आम किसान पैदा करता है और आचार व्यापारी पैदा करता है। उनका आवाहन किसानों के लिए था या वह व्यापारियों को अधिक लाभ का संकेत दे रहे थे। क्या आचार बनाने वाला जो कई गुना लाभ कमाता है वह आम उत्पादक को लाभ ट्रान्सफर करेगा क्या? आम वाले को तो वही मिलेगा जो उस दिन बाजार का भाव होगा। आलू चिप्स खाद्य शृंखला का एक उदाहरण सटीक होगा इसे समझने के लिए। एक आलू जो कि 5 रुपये किलो किसान से खरीदा जाता है वह चिप्स के रूप में 1000 रुपये किलों के हिसाब से बिकता है। इस आलू चिप्स खाद्य शृंखला में 5 रुपये किसान को वह भी खर्चा काट दें तो 2 रुपये किसान को मिलते हैं और 995 रुपये बाजार ले लेता है। इस 995 रुपये में सिर्फ व्यापारी और सरकार कर के माध्यम से बांटते हैं और किसान को मिलता है सिर्फ 2 रुपये में। अब आप देखें माननीय पीएम ने जिस खाद्य शृंखला का आवाहन किया था उसमे तो किसान को तो 1000 रुपये में से 2 रुपये ही मिल रहें हैं, बकिया तो व्यापारी और सरकार कमा रही है।
बस यही दृष्टिकोण का अंतर ही मौजूदा संकट का कारण है, सरकार बीमारी कि नब्ज पकड़ ही नहीं पा रही है कि किसान आय चाहता है केवल उत्पादन नहीं, और वह इधर उधर का इलाज कर रही है। 
लेखक
पंकज जायसवाल

लेखक आर्थिक सामाजिक विश्लेषक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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