जीएसटी : ग्रामकोष बनाम राजकोष


जीएसटी 1 जुलाई से लागू हुआ और पूरे देश में इसका ज़ोर शोर से प्रचार हुआ और बिना किसी बड़े विरोध के ये लगभग लागू हुआ। इसके अच्छे और बुरे परिणाम तो आने वाले वक़्त में पता चलेगा लेकिन इस कर प्रणाली से देश में डेस्टिनेशन बेस्ड कर प्रणाली की शुरुवात हो गई। अब इस प्रणाली से ये पता चल सकेगा की एक टैक्स क्लस्टर से कितना कर का संग्रह हुआ। मैं उम्मीद करता हूँ कर संग्रह का यह डाटा अब आम नागरिकों के लिए भी आरटीआई के माध्यम से उपलब्ध रहेगा। पूर्व के कर प्रणाली कर संग्रह सूचना को लेकर यह समस्या थी जिसके कारण हमारे गावों और कस्बों के लोगों ने कभी ये सरकार से सवाल किया ही नहीं की आप हमसे विभिन्न कारों के माध्यम से कितना लेते हो और बदले मे कितना वापस देते हो मेहनतकश गाँव के किसानों को ये अहसास ही नहीं है की अपनी ज़मीनों को कृषि योग्य रख के एक तरफ वो मानवता के साथ वो कितना बड़ा अहसान कर रहें है जबकि दूसरी तरफ डीजल ट्रैक्टर एवं अन्य खरीद पर वो सरकार को अप्रत्यक्ष के रूप मे टैक्स दे रहे हैं।

वास्तव में सरकार को हर कृषि योग्य जमीन को क्षतिपूर्ति स्वरूप की सब्सिडि किसानो और ग्रामीणों को देनी चाहिए यदि वो गैर कृषि जमीन में बदलने का चार्ज लेते हैं तो, क्यों कि जहां एक तरफ शहरों में लोग ज़मीनों के कारोबार से करोड़पति हो रहे हैं वही दूसरी तरफ वो अपनी ज़मीनों को गैर कृषि योग्य जमीन मे ना बदल के एक तरह से लाभ का अवसर त्याग करते हैं जिसका मूल्यांकन कर कोई क्षतिपूर्ति नहीं करता है । राजकोष के पैरोकारों को प्रजाकोष का ये त्याग दिखाई ही नहीं देता, क्यूँ कोई ग्रामीण खेती करे वो चाहे तो एक एकड़ खेत 10 लाख मे बेच के आराम से ब्याज 75000 साल का कमा ले लेकिन देश के पेट का ठेका लेने के बाद भी उन्हे 75000 नहीं मिलता अलबत्ता सरकार द्वारा अहसान का एहसास जरूर मिलता है । अगर किसानों के अवसर त्याग कि कीमत ही जोड़ी जाए तो पूरी कर्ज माफी और सब्सिडि भी कम पड़ेंगे इसकी भरपाई करने के लिए।

जीएसटी के इस नए दौर ने जबाबदेही का एक सूचना प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया है, अब वक़्त आ गया है की ग्राम और नगर पंचायतें वित्तीय रूप से भी अपने अधिकारों को बात करें तभी ग्राम स्वराज्य आ सकता है और पंचायतों को पूर्ण स्वतन्त्रता मिल सकती है। वो पूछें जब कर संग्रह आंकड़े के हिसाब से हमारे पंचायत से इतना संग्रह हुआ है तो उसका कितना प्रतिशत कहाँ कहाँ खर्च हुआ इसकी जानकारी सरकार देवे।

अगर आप किसानों के लाभ अवसर त्याग के नुकसान कि बात छोड़ दें तो, तो भी अनुमानतः औसतन प्रति ग्रामीण से सरकार 5000 रुपये प्रति वर्ष विभिन्न अप्रत्यक्ष और सेवाओं के माध्यम से लेती है और यही आंकड़ा कस्बों के लिए प्रति व्यक्ति 7500/- छोटे शहरो के लिए 11000 और नोएडा जैसे शहर के लिए 20000 है, ये अनुमान ही हैं वास्तविक नहीं भी हो सकते हैं लेकिन आंकड़े इसके आसपास या इससे ज्यादे ही होंगे क्यूँ कि आजकल खानपान के अलावा कई तरह कि ख़रीदों के माध्यम से नागरिक टैक्स देते हैं, हाँ लेकिन सरकार के आंकड़े को समझने के लिए ये अनुमान काफी हैं।

एक उदाहरण से समझते हैं कि ग्रामीण स्तर पे सरकार कितना वसूल करती है अगर ग्राम सभा की आबादी 3000 है और कितना उनको इसके बदले मे सरकार की तरफ से कितना देती है देती है। अगर प्रति व्यक्ति विभिन्न प्रकार के करों के माध्यम से जिनमे जीएसटी इवान अन्य कर शामिल है कि वसूली औसतन 5000 रुपए प्रति व्यक्ति हो तो सालाना 1.50 करोड़ कि वसूली सरकार करती है।
सरकार जो 1.50 करोड़ एक गाँव से वसूलती है उसके बदले अपनी तरफ से सरकार देती है एक पुलिस का चौकीदार, एक प्राइमरी स्कूल, प्रति वर्ष औसतन पाँच से दस बीस लाख का फ़ंड। अब गांवों में हॉस्पिटल तो है नहीं और सड़क तो कभी कभी ही बनाती है। अन्य कृषि संबंधी सरकारी कार्यों को जोड़ दे तो ये भी 12 लाख से ज्यादे नहीं आएगा और इस तरह वो सिर्फ देती है चालीस से पचास  लाख, बाकी के 100 लाख कहाँ ले जाती है, आपने तो कभी पूछा ही नहीं। दरअसल वो उससे नोएडा की सड़क बनाती है, लखनऊ की मेट्रो बनाती है और वो सिर्फ और सिर्फ इसलिए की नोएडा और लखनऊ वाले सवाल करते हैं, उनके पैरोकार ( सांसद और विधायक ) सवाल करते हैं, आप तो करते नहीं हैं, आपका पैरोकार तो करता नहीं है। इसलिए आपको मिलता है अर्थव्यवस्था में झुनझुना, आपके ही पैसे से नियुक्त हुवे कर्मचारियों के पास आपको लगानी पड़ती है दौड़ क्यूँ की आपको एहसास ही नहीं है की सरकार आपकी ट्रस्टी, सरकारी कर्मचारी आपके सेवक और आप ही देश के मालिक हैं।

इतने राजस्व संग्रह के बाद सरकार ग्राम प्रधान या पंचायत अध्यक्ष से आशा तो बहुत करती है लेकिन उसे देती क्या है मामूली कुछ हजार कि तनख्वाह। तो सरकार इतने कम तनख्वाह तनख्वाह के उससे काम की उम्मीद और उसके ऊपर ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकती है, जब उसकी वित्तीय जरूरतें उसके तनख्वाह से पूरी नहीं होंगी तो वह इधर उधर हाथ मारने के लिए विवश होगा ही। वास्तव में सरकार की ग्रामीण नीतियाँ वित्तीय स्तर पे व्यवहारिक नहीं प्रतीत होती हैं।

दरअसल सबने आपको गवांर समझा है, जाति का, धर्म का वोट बैंक बना के रक्खा है आपको कभी एहसास ही नहीं होने देता है की उन्हे आपने ही नियुक्त किया है, वे आपके सेवक ही हैं उससे ज्यादे कुछ नहीं लेकिन आप तो कभी सवाल नहीं करते हैं । आप को लगता है की हमारा पैरोकार ( विधायक और सांसद ) कोई बड़ा बाबू ही बन सकता है।  और तो और सरकार आपसे शुद्ध बनिए की तरह बात करती है, बार बार अपने जेब (राजकोषीय घाटा) की बात करती है, अपनी विवरणी तो आपको देती नहीं है, आपसे, एक एक व्यक्ति से आय कि विवरणी मांगती है, बिजली 24 घंटे देती नहीं है और कहेगी कि ऑनलाइन ही विवरण देना और यदि आप नहीं भर पाये तो आपके उपर कर अपराधी होने कि तलवार लटकती रहे, और यदि सरकार का पैसा आपने रोक दिया तो ब्याज भी दो, पेनाल्टी भी दो और अगर ज्यादे बाकी लगा दिया तो गैर जमानती वारंट के साथ जेल भी जावो, भले आप अपना पैसा अपने देनदारों से न वसूल पाएँ हों सत्ता आपके पीछे आपके ही पैसे से पोषित कर्मचारियों को लगा देगी आपसे वसूली करने के लिए और फिर भी जताती है कि वो अहसान कर रही है सब्सिडि का, दरअसल प्रजातन्त्र में व्यवस्था को  प्रजाकोष से कोई मतलब ही नहीं है उसे चाहिए शाही खजाना ।

अब सवाल आपको करने पड़ेंगे, ग्राम स्तर की वित्तीय स्वतन्त्रता आपको लेनी पड़ेगी, यह ठीक है की आप कर लगाने वाले अधिकरण नहीं हो सकते लेकिन आपके गावों द्वारा उपभोग के माध्यम से दिये जाने वाले कर और उसके रिटर्न मे सरकार क्या दे रही है उसका हिसाब तो करना ही पड़ेगा नहीं तो सरकार बार बार आपको आँख तरेरेगी और आप अपने पैरोकार के यहाँ लाइन लगाएंगे और आपको ये एहसास भी नहीं दिलाया जाएगा की आप ही प्रजातन्त्र मे मालिक हैं और आपका कोष पहले है।


Comments