पैसे की चकाचौंध में कंकाल होती माँ



पैसे की चकाचौंध में कंकाल होतीमाँ


मुंबई के लोखंडवाला में बुढ़ापे के अकेलेपन की शिकार किसी महिला का नाम आशा साहिनी नहीं है, ना ही यह किसी बूढ़ी महिला के कंकाल का नाम है, दरअसल आशा शाहिनी एक नियति का नाम है एक सच का नाम है, जो आजकल हाँफती दौड़ती भागती हाय पैसा पैसा कहती जीवनचर्या की एक घिनौनी तस्वीर है। आशा साहनी एक पूरे समकालीन समाज के प्रतिनिधित्व करने वाली उस वृद्धा की तस्वीर है जिसे आज मौजूदा आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में उस बूढ़े होते इंसान को सामना करना है। आशा साहनी उस भारत के टॉप ब्रांड में शुमार रेमंड के मालिक विजयपत सिंघानिया के किस्से की प्रतिनिधि हैं जो जिंदा हैं, फर्क दोनों में इतना है कि उनकी उदास और निराश आँखें इंतेजार करते करते मर गईं और विजयपत सिंघानिया कि आंखे उदास और निराशा में जिंदा होते हुई नीचे झुक गई ।

ऐसे समाज के दुखद तस्वीर पे यूपी के एक मशहूर गीतकार हैं मुन्ना पाठक जिनके द्वारा लिखी एक भोजपुरी गीत कि बरबस याद आती है।

माई के दूधवा जैसन कौनों मिठाई न होई


सब कुछ मिल जाई लेकिन दुनिया में माई न मिली


ये गीत लिखते वक़्त पाठक जी ने समाज को माँ का महत्व बताते हुए रचना की, लेकिन उन्हे क्या पता था की मौजूदा सामाजिक परिस्थिति में लोगों को तो लगता है की माँ बाप तो मिल ही जाएंगे सब कुछ नहीं मिल पाएगा। यह सब कुछ का लालच संतानों और उनके माता पिता के बीच की दूरी को बढ़ाती जा रही है। सुनकर बड़ा अजीब लगता है कि एक एकलौता लड़का जिसकी माँ बूढ़ी हो गई हो, जिसने अपने बेटे को बोल दिया हो कि अब अकेले रहना संभव नहीं हो, मुझे वृद्धा श्रम भेज दो उस संतान के दिमाग में या उस महिला के बहू के दिमाग में ये बात नहीं आई कि अगर फोन नहीं उठ रहा है तो जाकर पता लगा लें , अगर बातचीत नहीं हो पा रही है तो सोसाइटी को फोन कर किसी पड़ोसी को फोन कर पता लगा लेते कि माँ फोन नहीं उठा रही है तो पता करें कि क्या बात है। इस आधुनिक समाज के प्रतिनिधि पुत्र ने बड़े सामान्य भाव से जब यह बोला होगा कि अंतिम बार 13 अप्रैल 2016 को माँ से बात हुई होगी तो ऊपर इन्सानों कि आत्मा भी धिक्कारी होगी। 16 महीनों के दरम्यान का फासला दरअसल 16 आने कमाने के फासले का परिणाम है। मौजूदा ऋतुराज को पता नहीं याद हो या न याद हो यही आशा साहनी जब बचपन में इन्हे 1 घंटे भी आँखों के सामने नहीं पाती होंगी तो जमीन आसमान एक कर देती होंगी लेकिन उन्हे क्या मालूम था की यही संतान उन्हे 16 आने कमाने के चक्कर में 16 महीने तक कंकाल बनने की हद तक खोजख़बर नहीं रखेगा। 

यह परिणाम है आज के पैसा और परिवेश के लालच का। यह परिणाम है शिक्षा और रोजगार के मिस मैच का। यह परिणाम है शादीशुदा बेटे बहू और तनहा हुए माता पिता की मौजूदा सम्बन्धों की सच्चाई का। यह परिणाम है डॉलर और रुपए के मिस मैच का। मौजूदा दौर में डॉलर कमाते हुए बेटे बेटियों के लिए अपनी माता पिता से बस इतना सा लगाव होता है कि उनके मरने के बाद उनकी संपत्ति या तो उसे मिले या उसे बेच सकें। मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो पैसे और वैभव भरी जिंदगी जीने के लिए अमेरिका और लंदन जाते हैं और वहाँ जाने के बाद बोलते हैं भारत रहने लायक नहीं है, यहाँ का सिस्टम अच्छा नहीं है। दरअसल यह कह कर वह भारत माँ को तिरस्कृत नहीं कर रहे होते हैं, यह कहकर वो अपने माँ बाप रिश्तेदार दोस्त और परिवेश को तिरस्कृत कर रहे होते हैं।

इन सब के जिम्मेदार हालांकि वह खुद अकेले ही नहीं है इसके लिए जिम्मेदार तेजी से बदलता हुआ आर्थिक परिवेश है जो सामाजिक परिवेश को बुरी तरह से अपने आगोश में ले रहा है। गाँव कस्बों के लड़के लगातार पढ़ते हुए आगे बढ़ रहे हैं लेकिन ली जा रही शिक्षा कि योग्यता के अनुसार रोजगार उन्हे अपने माता पिता से दूर जाकर रहने से मिल रहा है। माता पिता ने अपनी जिंदगी उसी गाँव कस्बे मे बिताई है इसलिए वह अपना बुढ़ापा भी वहीं काटना चाहते हैं। पीढ़ियों के परिवेश और सामाजिक सच्चाई का यह द्वंद नब्बे के दशक से बहुत बढ़ गया है जिसपे सरकार ध्यान नहीं दे रही है। हालांकि गाँव और कस्बे में ऐसी एकाकी मौत संभव नहीं है क्यूँ कि संवाद अभी भी वहाँ जिंदा है। हालत खराब है मेट्रो शहरों के जहां तेजी से नई पीढ़ी उच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेश पलायित हो रही है और वहाँ से वो हेट कमेन्ट पास कर रहें है “आई डोंट लाइक इंडिया” । वो शादी भी विदेश में करना चाहते हैं और बच्चे भी विदेश में ही पैदा करना चाहते हैं ताकि उन्हे वहाँ कि नागरिकता मिल जाए। ऋतुराज दंपत्ति इसी श्रेणी के होंगे, नहीं तो बेटे के काम पे बिजी रहने पे कम से कम बहू का तो फर्ज बनता है कि परिवार मे संवाद बनाए रखे , सास कि खोज खबर रखे। आज के आर्थिक परिवेश में कुछ बेटे बहुवों को तो लगता है कि ज्यादे संवाद रखने पे उनके माता पिता उनके बोझ बन जाएंगे। मां-बेटे जैसे सबसे अनमोल और सबसे आत्मीय कहे जाने वाले इस रिश्ते के कंकाल में बदल जाने की यह घटना वर्तमान सामाजिक संवेदना के कंकाल बनने की एक झलक है। पैसे के लिए हाय हाय कहते हुए हम सबके लिए यहरूक कर सोचने का वक़्त है। हम अपनी सभ्यता के किस मुक़ाम पे पहुँच गए हैं ?  हैं जहां सामाजिक ही नहीं, माँ बेटे के रिश्तों में भी प्रेम,करुणा और संवेदनाओं के लिए जगह नहीं है ? क्या बेटे की हाय पैसा हाय पैसा और बेहतर जिंदगी की बेपनाह महत्वाकांक्षा और बहू के साथकी जीने की आज़ादी के साथ घर में मां की ख़ुशी के लिए एक कोना सुरक्षित नहीं किया जा सकता था ?  उस एक मां के लिए जिसने अपने जीवन का हर संभव कोना बिना मांगे अपने बच्चों को दे देती रही हो ! 

    

आप आशा साहनी की इस कंकाल कि कहानी से डरिये, इस पैसे कि चकाचौंध कि नियति कि कहानी से डरिए। जो लोग ऐसे बेटों की भूमिका में है वह भी डरें, क्यूंकी कल वह ऋतुराज और उनके माता पिता भी आशा साहनी बनने वाले हैं। आपके लिए भी यह एक संदेश है कि यदि आप अपने आसपास भी झाँके, आपके आसपास भी कोई आशा साहनी दिखे या आप उसे जानते हैं को जानते हैं तो समय रहते उन्हें बचा लें।

दरअसल इस 21वीं सदी की सबसे बड़ी सच्चाई और सबसे बड़ाकष्ट बन कर सामने आ रहा है-एकाकीपन बुढ़ापा। यह एक बहुतबड़ा ट्रामा बन रहा है। शरीर कि अशक्तता और मृत्यू का इंतजारआशा साहनी जैसे लोगों के लिए जीवन कि सबसे बड़ी भयावहसच्चाई है। आशा साहनी जीवन के पड़ाव कि वह सच्चाई है जबकई लोगों को लगता है कि वक्त उनके लिए ठहर कर रहेगा। कुछदिन पहले मैंने अपने लेख में लिखा था और इसे सब को ध्यानदेकर अपनाना चाहिए। वह था जन्म से मृत्यु तक की यात्रा मेँ उम्रका अंतिम पड़ाव अर्थ योजना के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। जबहम छोटे होते हैं तो हमे पैसे या देखभाल की कोई चिंता नहीं होतीहै क्यूँ की हमारे माँ बाप सब चीज का देखभाल करते हैं, जब हमजवान होते हैं तो हम अपने पैसे और अपना खुद का खुद सेख्याल रखने के लिए सक्षम होते हैं, लेकिन जब हम बूढ़े होते हैंतब हमारे पास हमारे माँ बाप नहीं होते हैं और हमारा शरीर साथनहीं देता है, कई तो चल फिर नहीं सकते और कई तो नित्य क्रियाभी बिस्तर पे करते हैं। ऐसे जीवन के पड़ाव का सक्षम रहते अर्थनियोजित करना जीवन मेँ बहुत आवश्यक है, खासकर के तबजब बदलते सामाजिक परिवेश में औलाद आपसे दूर रहता है याजब पास रहता है तो बेटा बहू दोनों काम करते हैं और पोते बाहरस्कूल में पढ़ते हैं। ऐसे समय में आपका आर्थिक रूप से ताकतवररहना ही आपको सहायक हो सकता है।

ऐसी दर्दनाक मौत से बचने के लिए सरकार को और बदलतेसमाज को और इसमे बूढ़े होते लोगों को भी ओल्ड एज होम केबारे में विशेष योजना बनानी चाहिए क्यूँ की जिनके बच्चे देश केबाहर रह रहें हैं और वृद्दावस्था में वह अकेले रहने को अभिशप्त हैंतो एकाकीपन और तनाव घेर लेता है, स्वास्थ्य संबंधी एवं अन्यसमस्याएँ आ जाती हैं ऐसे समय में अगर वह ग्रुप में बेहतरदेखभाल और स्वास्थय सुविधावों के दायरे में रहते हैं तो उनकाजीवन का अंतिम पड़ाव आरामदायक हो सकता है और वो भीपूरे स्वाभिमान और यथोचित अंतिम संस्कार के साथ।

लेखक

पंकज जायसवाल

आर्थिक एवं सामाजिक विश्लेषक

 

 

Comments