एक देश एक किसान एक बाजार

आज पूरे देश में चारो ओर किसान आंदोलनों की चर्चा है, चाहे वो महाराष्ट्र हो, मध्य प्रदेश हो या उत्तर प्रदेश हो। हर जगह किसान उद्वेलित और आंदोलित है। अगर इस मुद्दे का हल खोजना हो तो हमें इसके तह में जाना होगा, हमे यह ढूँढना होगा की देश के पेट के ठेका लेने वाला आज सड़क पर क्यूँ है और उसी के फसल पर औद्योगिक उत्पादन कर बड़ी बड़ी कंपनियाँ खुश क्यूँ हैं। अगर किसी कृषि उत्पाद जैसे की आलू की चिप्स का उदाहरण लें तो इनके उत्पादन की शृंखला में किसान –चिप्स उत्पादक- ट्रेडर आता है। इस शृंखला में जो मूल्य संवर्धन का फायदा होता है वो सबसे ज्यादा चिप्स उत्पादक एवं ट्रेडर को होता है। वही 5 रुपये किलो का आलू जब मसालेदार चिप्स बनकर निकलता है तो 1000 रुपये किलो की मूल्य का हो जाता है। इस आलू के भाव में जो 995 रुपये का मूल्य संवर्धन है उसमें तो यह किसान भागीदार है नहीं उसमें तो भागीदार चिप्स उत्पादक, ट्रेडर एवं करारोपण के माध्यम से सरकार है। किसान को तो यह शुद्ध 5 रुपये भी बचत नहीं है, इसमें उसकी लागत है, उसकी फसल का जोखिम है जिसे उसे खुद ही वहन करना है। असल समस्या यहीं है ऐसे उत्पाद शृंखला मे सबको अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार है किसान को नहीं है, सबको उद्योग का दर्जा मिला हुआ है, किसानी को नहीं मिला हुआ है, सबको बीमा की सुरक्षा सरलीकरण प्रक्रिया द्वारा मिली हुई है जिसमें सिर्फ उनकी यूनिट या दुकान की भी खाली क्षति हुई हो तो बीमा मिल जाएगा लेकिन किसान बीमा का भविष्य पटवारी की लेखनी और दूसरे किसानों के बड़े भूभाग के नुकसान से बंधी हुई है। एक फूड प्रोसेसिंग वाला या एक व्यवसायी अपने बेचने वाले माल का मूल्य उसपे लगने वाली लागत पे अपना लाभ जोड़ के ही लगाता है लेकिन यह सुविधा किसानों के पास नहीं है। लोग 100 रुपये का 100 ग्राम चिप्स खा के बोलेंगे की यार आलू बहुत महंगा हो गया है 20 रुपये किलो मिल रहा है। ऐसा क्यूँ है की महंगाई की सारी बहस कृषि उत्पाद पे आके ठहर गई है। क्यूँ ऐसा माना जाता है की अगर कृषि उत्पाद के दाम बढ़ेंगे तो महंगाई बढ़ जाएगी। महंगाई के चाबुक से इन्हे कब तक डराया जाएगा। जब आप रेल्वे को हो रहे नुकसान को टिकट पे लिखने लगे हो तो किसानों को भी तो हो रहे नुकसान को पहचानो उसका मापन करो। आप किसानी जमीन को गैर किसानी करने के लिए शुल्क लेते हो लेकिन उसे किसानी भूमि रखने के लिए तब शुल्क क्यूँ नहीं देते। जब इतना भेदभाव होगा तो किसान आंदोलित होगा ही। किसानों की समस्या का हल निकालना है तो किसानों को एक देश एक किसान एक बाजार के तर्ज पर विकसित करना होगा। किसान को देश के और विदेश के बाजार से डाइरैक्ट कनेक्ट करना होगा। एक किसान अपना कितना माल कितने में बेचे उसका अधिकार उसे ही देना होगा। आज विश्व की आबादी अगर 700 करोड़ है तो प्रतिदिन व्यक्ति किसी न किसी माध्यम से औसतन 4 बार उपभोग करता है और इस प्रकार इसका उपभोग प्रतिदिन 28 अरब बार है और अगर पूरे वर्ष में देखें तो 102 खरब बार इसका उपभोग हैं और भारत इसका बड़ा निर्यातक और बाजार नियंत्रक बन सकता है, विश्व कि सर्वोत्तम भूमि, श्रम और ब्रेन अपने पास है। इतना तेज उपभोग विश्व के किसी उत्पाद में नहीं है, यह विश्व का सबसे तेज एफ़एमसीजी कच्चा माल है लेकिन इसे सब ने दबाया है कारण न तो इनका देश मे संगठित स्वरूप है न संगठित बाजार है, न तो इनकी नजदीकी मंडी को छोड़कर देश के या विदेश के बाजार से जुड़ाव है। अगर किसान को सुखी रखना है तो सरकार को इनके ऊपर लगी बेड़ियों को हटाना होगा, कृषि को उद्योग का दर्जा देना होगा, जगह जगह वहाँ की मिट्टी के हिसाब से उत्पादित होने वाली चीजों के लिए मेगा फूड पार्क का निर्माण करना होगा, और भारतीय रेलवे के साथ भी मिलकर जगह जगह कोल्डस्टोरेज एवं माल गोदाम का निर्माण करना होगा, कच्चे उत्पादों के संग्रहण के लिए सरकारी कूलिंग वैन का प्रयोग, हर 200 किलोमीटर पर कार्गो टर्मिनस बनाने होंगे ताकि यहाँ से माल का देश या विदेश में परिवहन हो सके, कार्गो टर्मिनस से कार्गो एयरपोर्ट एवं समुद्री पोर्ट को जोड़ना होगा ताकि यहाँ का माल भारत के अन्य हिस्सों में और चाबहार बन्दरगाहों के साथ अन्य बन्दरगाहों पे जा सके, इनके माल का एक केंद्रीयकृत डेटाबेस बनाना पड़ेगा ताकि खरीददार को माल की उपलब्धता के बारे में जानकारी मिल सके और वह डाइरैक्ट इनसे माल खरीद सके। एपीएमसी एक्ट के ससोधनों के साथ विभिन्न संगठनो के एसपीवी भी बनाने पड़ेंगे जिसमे रेलवे, एफ़सीआई, रोडवेज, ब्लॉक, कृषि विभाग, कृषि विपणन एवं निर्यात विभाग, मंडी परिषद, एपीएमसी, हॉर्टिकल्चर, विमान मंत्रालय, पीडबल्यूडी सब शामिल हों ताकि एकीकृत प्लान बन सके। इन उपरोक्त योजना के क्रियान्यवन के लिए जो की कृषि को बाजार से जोड़ने का है, के अतिरिक्त किसानों के उत्पादन पे भी ध्यान देना पड़ेगा ताकि उनका उत्पादन दुगुने से भी ज्यादे हो सके, लागत पहले से भी कम हो, उन्नत नूतन तकनीक का इस्तेमाल हो, विषमुक्त उत्पाद हो और बाजार के गुणवत्ता मानकों पे खरा हो ताकि इनकी आय दुगुनी से भी ज्यादे हो और अपना खर्चा काटने के बाद कुछ आय तो इनकी बचे ताकि यह ऋण की किश्त भरने की सोच सकें। और इसके लिए देश में फैले कृषि विश्वविद्यालयों एवं अनुसंधान संस्थानों को एक निश्चित कृषि क्षेत्र से जोड़ना पड़ेगा और उन क्षेत्रों मे नूतन तकनीक और विषमुक्त उचित खाद का इस्तेमाल करें इसकी जबाबदेही उनसे जोड़नी पड़ेगी, सिर्फ शोध ही नहीं शोध के परिणाम किसानों तक पहुंचे उसका क्रियान्वयन हो उसकी भी ज़िम्मेदारी उन संस्थानों में ही एक विभाग बना के दी जा सकती है और वर्ष भर के वास्तविक उत्पादन के आधार पर इनकी रेटिंग की जा सकती है। सरकार ने कृषि के लिए कई योजनाएँ बनाई, आयकरमुक्त लेकिन इसका लाभ बड़े बड़े काश्तकार उठा पाते हैं छोटी काश्तकार आज भी अधिक लागत, फसल नुकसान और महाजन के कर्ज तले दबे हुए हैं, लाभ तो होता ही नहीं है तो कर मुक्त इनके लिए कोई मायने नहीं रखता, सरकार को छोटे चक वाले ऐसे किसानों को सहकारी खेती के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि जमीन पर उनका मालिकाना हक भी बना रहे, उत्पादन लागत भी कम हो, और उत्पादन की साइज़ बड़ी होने से बिक्री मूल्य के निर्धारण पे भी इनका नियंत्रण हो। किसान ही एक ऐसा उत्पादक है जिसका माल खुले आसमान के नीचे जानवरों और मौसम के मार के भय में पड़ा रहता है लेकिन फिर भी वैश्विक औसत के हिसाब से पैदावार सफल होता है, ऐसे में फसल बीमा को एक निश्चित भूभाग पे हुए नुकसान के अनिवार्य शर्त से निकालकर एक एक खेती और किसानों के आधार पर बीमा और उसका क्लेम देना चाहिए जो उसके वास्तविक नुकसान के आधार पर हो, जब वास्तविक नुकसान के आधार पर बीमा क्लेम मिलने लगेगा तो किसान को भी बीमा कराने में दर्द नहीं होगा, नहीं तो फसल बीमा बेमानी ही साबित होगा। सरकारी वादे के अनुसार अगर सरकार ने इनकी आय दुगुनी नहीं की या ऐसी आय विकसित नहीं की जिसके कारण इनके खुद के जीवन यापन खर्च के बाद ऐसी आय बचे जिससे यह ऋण क्या ऋण का ब्याज भी दे सकें तो सरकार को इनका ऋण माफ कर देना चाहिए। जब तक आप इन्हे उद्योग का दर्जा नहीं दे देते हो, इन्हे पर्याप्त इन्फ्रा नहीं दे देते हो, इनके उत्पाद के मूल्य के निर्धारण का हक इन्हे नहही दे देते हो, इन्हे सप्लाई चेन और बाजार की ताकत नहीं दे देते हो, जो कि सरकार कि ज़िम्मेदारी है तो सिर्फ इंकम टैक्स माफ करना एक छलावा है , यह बड़े काश्तकारों के लिए तो फायदे मंद है लेकिन छोटे काश्तकारों के किसी काम का नहीं और फिलहाल सरकार को कर्ज तुरंत माफ कर किसानी के लिए दीर्घावधि उपरोक्त योजना पर काम करना चाहिए ताकि किसान के लिए एक किसान एक देश एक बाजार का सपना साकार हो सके। लेखक पंकज जायसवाल लेखक सामाजिक आर्थिक विश्लेषक एवं स्वतंत्र टिप्पणी कार हैं।

Comments