स्व रोजगार पीएम और बैंक

आज कल देश में एक चर्चा चल पड़ी है की रोजगार किसे कहा जाए। सरकारी नौकरियों को, प्राइवेट नौकरियों को या जो स्वरोजगार मे लगें हैं उनको। मैं प्रधान मंत्री के उस वादे को भी याद करता हूँ की वह करोड़ नौकरियाँ देंगे साथ में इस स्पष्टीकरण को भी याद करता हूँ की रोजगार मने सिर्फ नौकरी नहीं स्वरोजगार भी है। ऐसा नहीं है की सरकार ने इस दिशा मे प्रयास नहीं किया है। सरकार ने योजनाएँ लाईं, नीतियाँ लाईं और प्रयास भी किया लेकिन प्राइवेट बैंकों को छोड़ दें तो आज भी राष्ट्रीयकृत अन्य बैंकों का व्यवहार सरकारी दफ्तरों जैसा ही है। सरकार को अभी इनकी जबाबदेही सुनिश्चित करने के लिए टीवी में बोलने से आगे निकल कर बहुत कुछ करना बाकी है।
आज जब एक युवा अपना खुद का रोजगार करना चाहता है तो उसके सामने सबसे बड़ी समस्या होती है की पूंजी कहाँ से लाएँ। देश मे आईआईटी या आईआईएम से पढे छात्रों को तो वैंचर फ़ंड वाले इक्विटि फ़ंड मे निवेश कर देते हैं लेकिन आज भी करोड़ों युवा हैं जिन्हे वैंचर फ़ंड जैसी कोई सुविधा नहीं है। आज उनके पास पूंजी जुटाने के नाम पे साथन या तो उनके माता पिता द्वारा दिया गया धन होता है, या दोस्तों द्वारा दी गई सहायता होती है या महाजनों से लिया गया 2 से 4% ब्याज पे पैसा होता है। ये सारी पूंजी भी उन्हे आराम से नहीं मिलती है कई चीजों का वास्ता देना पड़ता है । और अंतिम सहारा जो इनके लिए बचता है वह बैंक ही होता है।
प्रधान मंत्री के लाख आवाहन के बाद भी कई बैंकों का ग्राहकों के प्रति व्यवहार में वह परिवर्तन नहीं आता दिख रहा है जैसा की पीएम ने प्लान किया था। या तो पीएम उन्हे नहीं समझ पा रहें हैं या वो पीएम को नहीं समझ पा रहे हैं। आज भी देश के कई बैंक जब तक ग्राहक के पास कोलेटरल संपत्ति नहीं होती है उसे बैंक ऋण नहीं देते हैं। सरकार को ज्ञात होना चाहिए कि बैंक दो तरह कि प्रतिभूति मांगते हैं, पहला प्राथमिक प्रतिभूति और दूसरा कोलेटरल प्रतिभूति। प्राथमिक प्रतिभूति वह होता है जो आप ऋण लिए पैसे से खरीदते हैं जैसे अगर आपने ऋण लेकर मशीन खरीदी तो वह मशीन आपकी प्राथमिक प्रतिभूति हुई लेकिन उसके अलावा जो अतिरिक्त प्रतिभूति मांगी जाती है वह कोलेटरल प्रतिभूति होती है। बहुत से युवाओं का सपना तो यहीं टूट जाता है कि उसके पास कोलेटरल प्रतिभूति नहीं होती है तब तक उसे ऋण नहीं मिलता है। सरकार ने व्यवस्था की है कि कई ऐसे ऋण में बैंक कोलेटरल प्रतिभूति नहीं मांगे लेकिन बैंक व्यावहारिकता में इसके अलग रास्ते निकाल लेते हैं उसकी जगह वह ग्राहक से तरल संपत्ति जैसे कि एफ़डी, किसान विकास पत्र या राष्ट्रीय बचत पत्र रखने को बोलते हैं, एक जोश से भरे युवा का जोश एवं सपना यहीं टूट जाता है। बैंको से जब इस संबंध में बात करिए तो उनकी शिकायत रहती है कि बैंकों को उनके अपने हित एवं एनपीए कि चिंता रहती है कि उनका दिया ऋण सुरक्शित रहेगा कि नहीं। अरे भाई जब इतनी चीजें आप प्रतिभूति मे ले लोगे तो आपके और महाजनों के बीच अंतर क्या रह जाएगा। महाजनी कि व्यवस्था के अंत के लिए ही तो आपका जन्म हुआ था और आप भी चले उस राह पर तो देश के युवा को रोजगार कैसे मिलेगा। सरकार के वादे का क्या होगा।
सरकार अगर स्वरोजगार के माध्यम से रोजगार के अपने करोड़ के वादों को पूरा करना चाहती है तो सरकार को चाहिए कि इस तरह के योजना पे निरीक्षण भी रखे। एक उदाहरण बताता हूँ एक छात्र को शिक्षा ऋण चाहिए था उसके पिता अपने उसी बैंक मे गए जहां उनका खाता था। बैंक मैनेजर ने बातचीत कर के वापस भेज भेज दिया। थोड़ी जानकारी इधर उधर प्राप्त होने के बाद वह दुबारा गए बैंक ने इस बार भी वापस भेज दिया कि अपने पिता से कहो की वह अपना 2 वर्ष का आईटी रिटर्न लाएँ। पिता के पास पैन कार्ड नहीं था, पिता ने पहले पैन कार्ड बनवाया, फिर 2 रिटर्न भरवाया तो बैंक ने बताया कि पहले जहां बच्चा पढ़ता है वह से लिखवा के लाओ। इसी बीच इसकी शिकायत पीजी पोर्टल पे पीएम को की गई, पीएमओ हरकत में आई और बैंक को पत्र भेजा कि ऋण क्यूँ नहीं दिया गया। बैंक का जबाब आया कि उनके पास ऐसा कोई ऋण आवेदन नहीं आया है। पीएमओ ने फिर छात्र को वह उत्तर फॉरवर्ड किया कि बैंक ने बोला है की उनके पास ऐसा कोई निवेदन नहीं आया है। छात्र कि तरफ से फिर लिखा गया कि वह तो आवेदन फॉर्म दे ही नहीं रहे हैं तो यह रेकॉर्ड मे कैसे आएगा कि मैंने आवेदन नहीं दिया है, और जब पीएमओ से फटकार पड़ी तो बैंक ने वह आवेदन पत्र दिया।
कहने का तात्पर्य यह है कि अधिकतर राष्ट्रीयकृत बैंको का ऋण तंत्र अभी भी वही पुराने सरकारी ढर्रे पे काम कर रहा है। सरकार जब तक आवेदन निगरानी तंत्र नहीं बनाती है और किसी भी ऋण आवेदन को निरस्त करने के पीछे जबाबदेही और नोटिंग नहीं सुनिश्चित नहीं करती है देश के अधिकतर युवा ऋण के लिए भटकते रहेंगे भले ही आप कितने ही मुद्रा ऋण और स्टार्ट अप स्कीम लॉंच करते रहो। बैंकों को जनता से चुनी हुई सरकारों कि जबाबदेही से मतलब नहीं है उन्हे अपने फायदे से मतलब है,  नहीं तो  किसानकर्ज माफी कि योजना कि अरुंधति भट्टाचार्य खुलेआम विरोध नहीं करती। बैंक बड़े उद्योग घराने को बुला के दौड़ा के कई बार कमजोर कागजी औपचारिकता पे ही ऋण दे देते हैं लेकिन जब कोई योग्य युवा अपने सपनों को लेकर आता है तो वह उसे उसके चप्पलों के साथ घिस देते हैं। जबकि उद्योग घराने को दिये गए ऋण ज्यादे संकट में हैं कुल एनपीए में उनके एनपीए का प्रतिशत ज्यादे है। दूसरा सरकार के लाख आवाहन के बाद भी जो सरकारी संस्थाए जिन्हे सब्सिडी वाले ऋण की दशा में सब्सिडी बैंक को हस्तांतरित करनी होती है वह समय से हस्तांतरित नहीं करते हैं इसकी दोहरी मार जनता को झेलनी पड़ती है एक तो ऋण का बैलेन्स नहीं घटने के कारण उनका ब्याज बढ़ जाता है दूसरा सरकार की सब्सिडी हस्तांतरित नहीं होने से वह ऋण एनपीए हो जाता है जिसमें ग्राहक को कोई गलती नहीं होती है। और इस गलती का वह कई सजा भुगतता है पहला उसे ब्याज ज्यादे देना पड़ता है, दूसरा उसका ऋण एनपीए हो जाता है तीसरा उसका CIBIL स्कोर खराब हो जाता है पूरे देश में कई बैंक CIBIL स्कोर देखने के बाद ऋण नहीं देते हैं।
सरकार को चाहिए की वह रोजगार को ध्यान मेन रखकर ऐसी कोई योजना बनाए जिसमे कोलेटरल प्रतिभूति की जरूरत नहीं रक्खी गई हो और ऐसे ऋणों के आवेदन एवं निस्तारण की ऑनलाइन या मोबाइल द्वारा आवेदन की व्यवस्था एक विकल्प में रखे,  जहां ऑनलाइन आवेदन संभव नहीं है वहाँ रजिस्टर्ड पोस्ट के द्वारा आवेदन स्वीकार करने की व्यवस्था रखे ताकि सारे आवेदन रेकॉर्ड पे आयें फिर उनके निस्तारण की जबाबदेही एवं नोटिंग सुनिश्चित करे तभी पीएम के सपने पूरे हो पाएंगे नहीं तो उनके सपनों को बैंको का व्यवहार पलीता लगता रहेगा। दूसरे जो सब्सिडी वाले ऋण हैं उनमे सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि या तो सब्सिडी समय से पहुंचे या बैंक सरकार के योगदान वाले हिस्से पे जो बाकी है पे ब्याज ग्राहक से न मांगे सरकार से मांगे और इस अनुदान बाकी के कारण ऋण को एनपीए ना घोषित करे।

जब तक सरकार ऐसी व्यवस्था नहीं करती है तब तक स्व रोजगार का सपना हमेशा सपना ही रह जाएगा।

पंकज जायसवाल
लेखक आर्थिक सामाजिक विश्लेषक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार है।

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