ये जीडीपी जीडीपी क्या है?

अखबारों में टीवी में सरकारों की मुंह से बार बार हम जीडीपी जीडीपी सुनते हैं। देश के अर्थ विशेषज्ञ तो इसे समझते हैं लेकिन आम जन मानस को समझ में नहीं आता की ये जीडीपी वीडीपी क्या है। उसको लगता है की यह भी कोई शेयर मार्केट की तरह सूचकांक है जो ऊपर नीचे चढ़ता रहता है। यहाँ हम आम आदमी की भाषा में समझते हैं की ये जीडीपी क्या है। जीडीपी का हिन्दी मतलब होता है सकल घरेलू उत्पाद। सकल मतलब सम्पूर्ण , घरेलू मतलब इंडिया का ही भौगोलिक क्षेत्र और उत्पाद का मतलब एक निश्चित कालावधि में उत्पादित सेवाएँ और वस्तुएँ। मतलब एक निश्चित कालावधि में भारत देश रूपी निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में कितना वस्तुवों का निर्माण एवं कितना सेवाओं का कार्य हुआ , बस इसका मूल्यांकन करते हैं और जोड़ देते हैं। यह मूल्यांकन और इसका जोड़ हर तिमाही और सालाना होता है और इस जोड़ को ही हम सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं। अतः एक तिमाही का या एक सालाना का दूसरे तिमाही या सालाना से तुलना करते हैं तो देखते हैं की कितनी वृद्धि हुई है और उसका प्रतिशत निकालते हैं और यही प्रतिशत आप अखबारों में टीवी में सरकारों की मुंह से बार बार सुनते होंगे। यह जीडीपी का प्रतिशत नहीं जीडीपी का तुलनात्मक वृद्धि का प्रतिशत होता है, जिसे उस वर्ष वित्त मंत्री ने बजट भाषण में कहा कि इसके 7.5% रहने कि उम्मीद है , मतलब पिछले वर्ष कि तुलना मे इस वर्ष जीडीपी 7.5% ज्यादे होगी। भारत मे ही नहीं पूरी दुनिया में यह अर्थव्यवस्था को नापने का सर्वाधिक विश्वसनीय आंकड़ा होता है । इनके अनुमानों पे नीति नियंता, सरकारें, अर्थशास्त्री, निवेशक और बैंकर नजरें गड़ाए रहते हैं। जिस देश का उत्पादन और सेवा व्यवसाय का योग सबसे ज्यादा होता है उसे आर्थिक दृष्टि से अच्छा देश भी माना जाता है। भारत में जीडीपी के लिए आंकड़े इकट्ठा करने का कार्य मुख्यतया केंद्रीय सांख्यकीय कार्यालय करता है। यह भारत के व्यवसाय एवं उद्योगो का सालाना सर्वे करता है और कई जगह से सूचनाओं एवं आंकड़ों का संकलन करता है। इसमें मुख्य रूप से हैं ग्राहक मूल्य सूचकांक एवं औद्योगिक मूल्य सूचकांक। केंद्रीय सांख्यकीय कार्यालय बहुत सी एजेंसियों एवं राज्य सरकारों के साथ भी मिलकर कार्य करते हैं, तब जाकर जीडीपी के आंकड़े जूता पते हैं। अर्थ व्यवस्था मे जीडीपी की गणना की भी कई विधियाँ हैं, कई बार इन भिन्न भिन्न विधियों से भी जीडीपी के आंकड़ें भिन्न भिन्न आ जाते हैं इसलिए जब भी दो कालावधि के जीडीपी की तुलना की जाए तो इस बात का जरूर ध्यान रखना चाहिए की दोनों वर्ष की विधियाँ समान हो तथा जिन फॉर्मूला को अपनाया गया हो एक वर्ष मे दूसरे तुलनात्मक वर्ष में भी वही फॉर्मूला अपनाया गया हो अन्यथा तुलना बेमानी हो जाएगा। ज्यादेतर जीडीपी मापन के लिए उत्पादन दृष्टिकोण , व्यय दृष्टिकोण या आय दृष्टिकोण अपनाया जाता है। हमें एक बात समझनी पड़ेगी कि प्रति व्यक्ति जीडीपी ही केवल अर्थव्यवस्था में वहाँ के नागरिकों के जीवन स्तर का मापन नहीं है जीवन स्तर मापन के अन्य पैमाने हैं। लेकिन हाँ ज्यादेतर लोग इस आधार पर कि देश के नागरिक अपने देश के बढे हुए आर्थिक उत्पादन का लाभ प्राप्त करते होंगे इसे जीवन स्तर के मापन के सूचकांक के रूप में प्रयोग करते हैं. इसी प्रकार, हमें समझना होगा कि जीडीपी प्रति व्यक्ति व्यक्तिगत आय का भी माप नहीं है। हो सकता है कि एक देश के अधिकांश नागरिकों की आय में कमी आए लेकिन जीडीपी बढ़ रही हो। उदाहरण के लिए, अमेरिका में 1990 से 2006 के बीच की अवधि में निजी उद्योगों और सेवाओ में व्यक्तिगत श्रमिकों की आय में 0.5% प्रति वर्ष की वृद्धि हुई जबकि इसी अवधि के दौरान जीडीपी में 3.6% प्रति वर्ष की वृद्धि हुई. अतः यह राष्ट्र के जीवन स्तर या प्रति व्यक्ति आय मापने का कोई सूचकांक नहीं है या इसकी वृद्धि का मतलब यह नहीं कि राष्ट्र का जीवन स्तर या प्रति व्यक्ति आय बढ़ जाएगा। हालांकि जीवन स्तर के एक संकेतक के रूप में जीडीपी का इस्तेमाल करने का एक मुख्य नुकसान यह है कि यह शुद्धता के साथ जीवन स्तर का माप नहीं है यह एक देश में आर्थिक गतिविधि के किसी विशिष्ट गतिविधि का एक विशिष्ट प्रकार से मापन करता है। और तो और जीडीपी की परिभाषा के अनुसार ऐसा जरुरी नहीं है कि यह यह जीवन स्तर का मापन ही करे. उदाहरण के लिए, एक उदाहरण समझें, एक देश जिसने अपने शत प्रतिशत उत्पादन का निर्यात किया और कुछ भी आयात नहीं किया तो भी उसका जीडीपी ज्यादे होगा, लेकिन जरूरी नहीं कि जीवन स्तर भी उच्च हो वह निम्न भी हो सकता है, क्यूँ कि दोनों के मापन कि विधियाँ और आधार अलग हैं। हालांकि बढ़ती हुई जीडीपी इस बात कए जरूर संकेतक हो सकता है कि उस राष्ट्र के जीवन स्तर और प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने कि संभावनाएं अच्छी है। जीवन स्तर के एक संकेतक के रूप में लेना प्रति व्यक्ति जीडीपी का एक प्रमुख फायदा है कि चूंकि इसे बार बार, लगातार और व्यापक रूप से मापा जाता है; बार बार का अर्थ है कि अधिकांश देश जीडीपी कि जानकारी त्रैमासिक आधार पर उपलब्ध कराते हैं जिससे जो भी उपयोगकर्ता हो चाहे वो नीति नियंता, सरकारें, अर्थशास्त्री, निवेशक और बैंकर आसानी से ट्रेंड को समझ सकते हैं और अपना निर्णय ले सकते हैं, और चूंकि इसके आकड़ें थोड़ा व्यापक होते हैं और लगभग हर देश के पास मौजूद रहते हैं, जो भिन्न देशों में जीवन स्तर की तुलना करने में मदद करता है। साथ ही साथ जीडीपी के लिए जो भी प्रयुक्त तकनीकी परिभाषाएं होती हैं या आधार होते हैं गणना के लिए, कमोबेश विभिन्न देशों के बीच तुलनात्मक रूप से स्थिर रहती हैं और इसलिए यह विश्वास बना रहता है कि प्रत्येक देश में समान मापन किया जा रहा है। प्रति व्यक्ति जीडीपी को श्रम उत्पादकता के एक प्रतिनिधि के रूप में देखा जा सकता है। जितनी जीडीपी ज्यादे होगी उत्पादन और श्रम के कारकों में श्रम कि उतनी ही भागीदारी होगी। ज्यादे जीडीपी का मतलब इस जीडीपी के भागीदार श्रम कि उत्पादकता अधिक है वेतन और आय के अन्य श्रोत बढ़ने के अच्छे आसार हैं और और जीडीपी कम होने के मतलब वेतन और आय के अन्य श्रोत घटने कि आशंका है। भारत कि जो रिपोर्टेड जीडीपी हैं और जो वास्तविक जीडीपी हैं अभी भी व्यावहारिकता और सच्चाई के स्तर में बहुत फासले हैं। ऑफ द रेकॉर्ड तो यह भी कहा जाता है कि जो भारत कि रिपोर्टेड जीडीपी है वास्तविक जीडीपी उससे दुगुनी है क्यूँ कि बहुत से वस्तुवों एवं सेवा का उत्पादन पैरेलल अर्थव्यवस्था में होता है जो कि जीडीपी कि आधिकारिक गणना में आ नहीं पाता है। सरकार को उम्मीद है कि मौजूदा नोटबंदी और जीएसटी के क्रियान्वयन से बहुत सारे अनरिपोर्टेड सौदे जो जीडीपी कि गणना के लिए संज्ञान में आते ही नहीं थे अब आने लगेंगे इसलिए दूसरी तिमाही से जीडीपी के आंकड़े बढ़े हुए दिखाई देंगे, लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि शुरू के एक दो वर्षों के नोटबंदी और जीएसटी के क्रियान्वयन से अर्थव्यवस्था बहुत ही जाम चलेगी और लोगों को नई व्यवस्था मे अपने आपको संगत बैठने में वक़्त लगेगा तब तक हो सकता है कुछ लोग टूट जाएँ या तुरंत के रेस्पोंस नेगेटिव परिणाम लेकर आए और देश का व्यापार और उत्पादन शुरू में धीमा हो, लेकिन आगे क्या होगा यह तो वक़्त ही बताएगा क्यूँ कि बाजार और आंकड़े बहुत तेजी से परिवर्तनशील हैं। लेखक पंकज जायसवाल आर्थिक सामाजिक विश्लेषक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

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