महाराष्ट्र मे आए दिनों
किसानों की आत्महत्या और हाल मे किसानों की कर्ज माफी चर्चा का विषय है, साथ ही एसबीआई के चेयरमैन
अरुंधति भट्टाचार्य का बयान भी चर्चा में हैं। शायद मैडम अरुंधति की भारत की और
किसानों की वास्तविक स्थिति का अंदाजा नहीं है, और शायद
उन्हे ही नहीं सम्पूर्ण बैंकिंग सिस्टम को भी अंदाजा नहीं है।
सरकारों को और बैंकों
को इस विषय को समझने से पहले महाराष्ट्र मे किसानों की स्थिति समझनी होगी। महाराष्ट्र
मे किसान की स्थिति भूगोल के हिसाब से अलग है। इसे मोटे मोटे तौर पे आप चार भाग मे
बाँट सकते हैं। विदर्भ का किसान,मराठवाडा का किसान, नासिक एवं आसपास के किसान एवं कोंकण के किसान। जिस
महाराष्ट्र मे आप किसानों की आत्महत्या की खबरें सुनते हैं उसी महाराष्ट्र मे
नासिक मे किसानों की फ़सल के लिए एचएएल एवं कंटेनर कार्पोरेशन ने संयुक्त उपक्रम पे HALCON नामक कृषि कार्गो एयरपोर्ट भी आप सुनते हैं जहां
से कृषि उपज राष्ट्रीय बाजार मे ही नहीं निर्यात भी किए जाते हैं, जाहीर
हैं वहाँ के किसान खुश हैं। यह एक तथ्य है और महाराष्ट्र की सच्चाई है। कोंकण की
भी स्थिति बेहतर है और ज़्यादातर वहाँ काजू की खेती होती है। विदर्भ मे और मराठवाडा
मे स्थिति बदतर है। भौगोलिक परिस्थिति ऐसी है की सूखे की मार बार बार झेलनी पड़ती
है। वहाँ के हालात अब किसानों को लक्षण आधारित इलाज करने से नहीं बदलने वाले। एटीबीयोटिक
और सर्जरी ही नहीं अब लॉन्ग टर्म दवा की जरूरत है। सरकारें जिन स्तरों पर कमजोर
हैं उसके उपाय निम्न हैं, जिसपे
कार्य कर के इन किसानों की स्थिति सुधारी जा सकती है।
सरकार को पहले किसानो की परिभाषा सुनिश्चित करनी चाहिए इसमे
भूमालिक, खेतिहर
एवं भूमिहीन किसानों को भी शामिल करनी चाहिए। कई बार खेतिहर एवं भूमिहीन किसानों
की आत्महत्या किसानों की आत्महत्या के आंकड़े मे शामिल नहीं हो पाते हैं क्यूँ की
देश के कई पुलिस विभाग इन्हे किसान के रूप मे रिपोर्ट ही नहीं करते।
वेतन आयोग की तरह इनके लिए किसान आय आयोग बने, जो
महंगाई के हिसाब से आय का लगातार अध्ययन करे
ताकि इसके आधार पर वर्तमान में इनके सामाजिक आर्थिक स्थिति के आधार पे व्यावहारिक
नीतियाँ बनाई जा सकें।
किसानों को गारंटीड लाभ समर्थन मूल्य दिया जाय, जो
महंगाई और कृषि लागत के हिसाब से हो। समर्थन मूल्य वैज्ञानिक गणना के हिसाब से तय
हो, जो की
वास्तविक लागत मे 50 प्रतिशत जोड़ के हो। सरकार को कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य
के निर्धारण को सीपीआई सूचकांक से नहीं जोड़ना चाहिए, और कृषि उपज का मूल्य ज्यादे होगा तो महंगाई
बढ़ेगी इस मानसिकता से बाहर आना चाहिए। सब्सिडि के तरीकों को बदलकर सरकार को
किसानों को लागत प्लस 50% लाभ युक्त मूल्य पूरा ही दे देना चाहिए और जितना
निर्धारित सीपीआई सूचकांक से ज्यादे मूल्य दिया है उतने की सब्सिडी दे के माल मंडी
मे पुनः बिक्री करनी चाहिए, इससे
क्या होगा की मूल्य की मार किसानों को तो नहीं पड़ेगी साथ ही जनता को भी नहीं
पड़ेगी। और चूंकि सरकार की किसानों से प्रत्यक्ष खरीद मूल्य ज्यादे होगी तो
बिचौलिये किसानों से उपज नहीं खरीदेंगे उन्हे मजबूरन सरकार से खरीदनी पड़ेगी।
हालांकि किसान सिर्फ सरकार को ही बेचेंगे ऐसी बाध्यता नहीं होनी चाहिए।
वर्तमान के तो सारे कर्ज माफ कर देनी चाहिए, साथ
में जो कर्ज महाजनों से इनहोने लिए हैं उसका भी आंकड़ा निकलवा के किसानों को
उपरोक्त नए कृषि मूल्य के प्लान के हिसाब से नया ऋण देके उन्हे साहूकारों के चंगुल
से मुक्त करना चाहिए। नए कृषि मूल्य प्लान मे चूंकि आय की गारंटी होगी अतः कॅश
फ्लो के हिसाब से बैंक भुगतान अवधि भी केस टू केस निर्धारित कर सकते हैं और पुनः
ऋण माफी की जरूरत नहीं होगी।
बैंक प्रबन्धकों को स्पष्ट निर्देश होने चाहिए
की कोई भी किसान बैंक से निराश ना लौटने पाये और इसकी मॉनिटरिंग की जानी चाहिए।
क्यूँ की कई बार देखा गया है की सरकार की कई लाभकारी योजनावों को ये बैंक प्रबन्धक
कुंडली मार के दबा लेते हैं क्यूँ की इन्हे ऋण खराब होने का भय रहता है।
विदर्भ के क्षेत्र मे
किसान आधार कार्ड बना के उनके लिए सिंगल विंडो सिस्टम लगाना चाहिए ताकि हर फोरम पे
उन्हे दौड़ना ना पड़े। किसान कार्ड के हिसाब से इनकी दवाई, शिक्षा
तो मुफ्त करनी ही चाहिए राशन 5 वर्ष तक मुफ्त देनी चाहिए। अगर कोई ऐसी बीमारी है
जिसका इलाज सरकारी हस्पताल मे नहीं है तो प्राइवेट इलाज के खर्च को भी या तो बीमा
के द्वारा या सब्सिडी के द्वारा वहन करनी चाहिए क्यूँ की विदर्भ के किसान की
स्थिति अलग है।
अब सब कुछ होने के बाद अगर फ़सल बीमा ठीक से लागू नहीं हुई तो योग्य
कृषि मूल्य का कोई लाभ नहीं। क्यूँ की सिर्फ मूल्य का ही जोखिम नहीं इन्हे मौसम या
आपदा के भी जोखिम से बचाना है। मौजूदा फ़सल बीमा अच्छा तो है लेकिन फिर से यह
पटवारी और बाबूशाही अफसरशाही मे फंसी है। इसके लिए अलग कृषि बीमा आयोग बनाना चाहिए
जो की डीएम या पटवारी पे निर्भर नहीं रहेगा। पायलट प्रोजेक्ट के तहत बीमा आयोग का
प्रयोग विदर्भ मे किया जा सकता है। यह एक एक खेत के वास्तविक नुकसान के आधार एक
निश्चित टाइम लाइन की समय सीमा में मुवावजा निर्गत करेगा। प्रीमियम की राशि सरकार
न्यूनतम रखते हुए पहली बार अक्षम किसानों के लिए भी वित्त की व्यवस्था करेगी।
कृषि में सहकारिता आधारित पूंजी निवेश को
प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि किसानों को ऋण न लेना पड़े, कृषि
तकनीकी शिक्षा प्रचार प्रसार के साथ कृषि प्रबंधन एवं इंजीनियरिंग की ज्यादे
ज्यादे से कोर्स शुरू करने चाहिए और इसमे दक्ष युवाओं के कृषि उद्यम मे वैंचर
पूंजी का प्रोत्साहन कर कृषि क्रांति लानी चाहिए । जैसे आईआईटी और आईआईएम मे
इंकुबिटेशन केंद्र होते हैं जहां तकनीकी दक्ष युवा को एंटरप्रेनूरशिप के लिए
प्रोत्साहित किया जाता है और सरकारी या निजी निवेश प्राप्त किए जाते हैं वैसे
प्रयोग कृषि इंकुबिटेशन केंद्र खोल के हो सकते हैं।
देश के पेट का ठेका
लेने वाले दूरस्थ एवं सीमांत किसानों को जमीन को सिर्फ कृषि योग्य रखने की बाध्यता
के कारण प्रति वर्ष उन्हे कुछ मुआवजा भी मिलना चाहिए। जब सरकारें भूमि को नॉन
एग्रिकल्चर ( NA ) करने का शुल्क वसूलती है तो उसे भूमि को कृषि योग्य रखने के लिए भी
किसानों को प्रोत्साहन रूपी मुआवजा देना चाहिए, इससे किसान
प्रोत्साहित भी होगा और शहरीकरण में कम जमीन का इस्तेमाल होगा। आज बड़े शहरों के
किनारों के किसान ज़मीनों को धड़ाधड़ नॉन एग्रिकल्चर ( NA ) करा
महंगे दामों पर बेच रहे हैं जबकि दूरस्थ क्षेत्रों के और सीमांत किसान शहरों से
दूर होने के कारण जमीन पे खेती ही करते हैं, समान भू मालिक
होने के बाद भी वह गरीब हैं और शहर के किनारे का किसान अमीर है, इस असमानता को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
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