जनतंत्र के महाजन का पुनर्जन्म

वर्तमान दौर में बैंकों द्वारा अपने स्वनिर्णय के द्वारा सेवा शुल्कों में बढ़ोत्तरी से पूर्व हमें बैंकों के राष्ट्रीयकरण के इतिहास के पन्नों में झांकना पड़ेगा। हमें याद करना चाहिए कि भारत कि जनता को बैंकों की महाजनी से मुक्त कर बैंकों के राष्ट्रीयकरण के वक़्त तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था कि "बैंकिंग प्रणाली जैसी संस्था, जो हजारों -लाखों लोगों तक पहुंचती है और जिसे लाखों लोगों तक पहुंचाना चाहिए, के पीछे आवश्यक रूप से कोई बड़ा सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए जिससे वह प्रेरित हो और इन क्षेत्रों को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं तथा उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दें।" लगता है बैंक और बैंकों को नियमित करने वाली संस्था आरबीआई ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री का यह दिया गया भाषण राष्ट्रीयकरण के स्थापना के उद्देश्यों के नीति निर्देशक तत्वों के रूप में नहीं लिया और सितंबर 1999 मे आरबीआई ने बैंकों के बोर्डों को कुछ चुनिन्दा सेवाओं पे चार्ज लगाने का अधिकार दे दिया। श्रीमती गांधी के राष्ट्रीयकरण के उद्देश्यों पर प्रहार यहीं से शुरू हुआ।
इन बैंकों के राष्ट्रीयकरण और उनसे सम्बद्ध ग्रामीण और सहकारी बैंको के पीछे मूल उद्देश्य यही था कि छोटे तथा मझोले स्तर के किसानों, भूमिहीन मजदूरों आदि को आसानी से बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ उचित और न्यायोचित मूल्य पर पहुंचाया जाए तथा उन्हें लंबे समय से चले आ रहे महाजनों की जंजीरों से मुक्ति दिलाई जाए
भारमें बैंक अर्थव्यवस्था कि  'रीढ़' की हड्डी हैं और आरबीआई इन्हे रेगुलेट करती हैबैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही भारत की सामाजिक तथा आर्थिक विकास की दिशा उन्नत करने वाले एक नए युग की शुरूआत हुई है और भारतीय बैंकिंग प्रणाली मात्र लेन-देन, जमा या ऋण के माध्यम से केवल लाभ अर्जित करने वाला उद्योग ही न रहकर भारतीय समाज के गरीब, दलित तबकों के सामाजिक एवं आर्थिक पुनरुत्थान और आर्थिक रूप में उन्हें ऊंचा उठाने का एक सशक्त माध्यम बन गया।
राष्ट्रीयकरण से पूर्व सभी बैंकों की अपनी अलग और मुक्त नीतियां होती थीं और उनका उद्देश्य अधिकतम लाभ ही कमाना था क्योंकि इन बैंकों के अधिकतर मालिक कुछ गिने चुने पूंजीपति व्यक्ति ही होते थे और वे अपने हितों की रक्षा के साथ साथ सिर्फ चुनिन्दा निजी लोगों को ही बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाते थे। समाज के गरीब, कमजोर वर्ग, दलित तथा सामान्य ग्रामीण तबकों के लोग दिन-प्रतिदिन सेठ-साहूकारों एवं महाजनों के सूद तले दबते चले जाते थेइन कारणों से देश में भयंकर सामाजिक असंतुलन का संकट पैदा हो गया था और राष्ट्र जबर्दस्त आर्थिक विषमताओं के कोढ़ में उलझ गया थादेश में सामाजिक तथा आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो रही थी और उसी कारण से एक नई और क्रांतिकारी आर्थिक नीति की जरूरत देश में महसूस की जाने लगी थी जिसके कारण  बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लिया गया ताकि चुने हुए सरकारों के माध्यम से और आरबीआई के नियमन के तहत इसे आम जन का बैंक बनाया जाए। साथ ही देश के बीमार उद्योगों को पुनरूज्जीवित करके नए लघु-स्तरीय उद्योगों के नव निर्माण को बढ़ावा देना भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य था। इसके साथ ही लघु-स्तरीय उद्योगों की संख्या पर्याप्त नहीं थी जिससे कस्बाई इलाकों  विकास नहीं कर पा रहे थे और वहाँ पे नकदी लेनदेन ज्यादे थे और एक तरह से कॅश इकॉनमी थी
अत: बैंकों द्वारा आर्थिक नियोजन के लिए उनपर जनता से चुनी हुई सरकार का नियंत्रण होना एक आवश्यक हो गया था ताकि बैंकों कि नीतियाँ और परिचालन जन आवश्यकतावों और आकांक्षावों के अनुरूप होमौजूदा दौर में जिन सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों के कारण और इकॉनमी को कॅश लेस कि तरफ ले जाने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे कि कमजोर एवं उपेक्षित वर्गों की उन्नति के साथ समाज की और प्रकारांतर से राष्ट्र की प्रगति हो उसी उद्देश्य के खिलाफ सारे बैंक नजर आ रहे हैं।
बैंको का राष्ट्रीयकरण करना और उसका जनोन्मुख होना, सरल होना और सस्ते होने के पीछे सिर्फ यही एक उद्देश्य था कि ज्यादे ज्यादे लोग बैंकिंग सेवाओं से जुड़े और अर्थव्यवस्था कॅशलेस हो । तत्कालीन समाज में नकदी समस्या को समाप्त करने के उद्देश्य से भी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया ताकि इनके नीतियों से निजी हित, ज्यादे दे ज्यादे लाभ कमाने कि सोच और महाजनी कि एक पारंपरिक सोच से मुक्त किया जाए और समाज मे एक स्पष्ट संदेश दिया जाए ताकि तत्कालीन समाज बैंकों के सरल जनहितकारी नियमों के कारण कॅशलेस इकॉनमी कि तरफ बढ़े। हास्यास्पद है कि इसी कारण का हवाला देखकर वर्तमान में बैंक राष्ट्रीयकरण से पूर्व के बैंक चरित्र को धारण कर रही है जिसका एक मात्र उद्देश्य लाभ था।
पता नहीं नोटबंदी और उसके बाद बैंकों में लगी कतारों के बाद बैंकों को क्या नजर आया कि उन्होने अपने स्थापना के नीति निर्देशक तत्वों को भी भुला दिया और आश्चर्य तो तब हुआ जब एसबीआई जैसी बैंक भी इस भीड़ मे निजी बैंकों के साथ कदमताल करने लगी। मुझे समझ मे नहीं आता है जब बैंकों में सौदों के लेनदेन पर ही आप चार्ज लगा देंगे तो लोग बैंक में अपना पैसा रक्खेंगे क्यूँ, वो पैसा रखना ही बंद कर देंगे और ज्यादे से ज्यादे नकदी सौदे करना चालू कर देंगे। एक फुटकर व्यापारी जो रोज अपनी बिक्री बैंक में जमा कराने कि सोच रहा था, बातचीत के क्रम में उसने बताया कि अब वह बैंक में जमा और निकासी को लेकर हतोत्साहित है, अब महीने महीने या हर 15 दिन पे सारे खर्चों के बाद जो नकद बचेगा तभी वह नकद बैंक में जमा कराएगा, मतलब अब जनता बैंकों से सौदे करने मे डर लगने लगा है। और यह सब हुआ है निजी बैंकों पे आरबीआई कि ढीली होती पकड़  और सरकार कि नीति स्तर पे भ्रम कि स्थिति से।

जब आरबीआई ने 2006-17 के वार्षिक नीति विवरण के अनुसार एक  वर्किंग ग्रुप बनाई जिसने BCSBI के तहत रहते हुए बैंकों द्वारा लगाई जा रही शुल्कों कि समीक्षा कर एक सर्क्युलर DBOD. No. Dir. BC. 56/13.03.00/2006-07 dated February 2, 2007 जारी किया और इसमें बैंकों के कुछ मूलभूत सेवाओं का उल्लेख किया और सुझाव दिया कि इनपे न्यूनतम शुल्क लगने चाहिए, तब आरबीआई इस सर्क्युलर का हवाला देकर क्यूँ नहीं बैंको पे अपनी पकड़ बनाए रखती है । हालांकि इस सर्क्युलर कि सूची में एटीएम से निकासी नहीं है लेकिन बैलेन्स कि जांच मूलभूत सेवाओं में है। इस कमेटी ने 27 मूलभूत सेवाओं को सूचीबद्ध किया था और कहा था कि इस सूची में बैंक चाहें तो अपनी तरफ से सेवाओं को जोड़ सकती है जो कि मूलभूत सेवाओं कि श्रेणी में आएंगी और बैंकों को ईसपे उचित शुल्क जो कि न्यायोचित हो और किसी न किसी कारण से इसे न्यायोचित ठहराया जा सके। किसी व्यक्ति को यथामूल्य सेवा शुल्क लगाते वक़्त बैंक केवल अपने बढ़ी हुई लागत एक मर्यादित सीमा के तहत ही लगा सकती है। और किसी भी तरह कि शुल्क वृद्धि से पहले बैंकों को अपने ग्राहकों को 30 दिन पूर्व में सूचना देनी होगी में सूचना देनी होगी।


अगर आरबीआई ने चार्ज को लेकर न्यायोचित और कारण का होना और 30 दिन कि पूर्व सूचना जैसी शर्तें  जोड़ी है तो प्रश्न है कि ये बैंक बेलगाम क्यूँ हो रहें हैं और चुपचाप दरें क्यूँ बढ़ा रहें हैं? सरकार और आरबीआई इन्हे नियंत्रित क्यूँ नहीं कर पा रही हैं? ये अपने सामाजिक उद्देश्यों से दूर होते हुए सिर्फ और सिर्फ पूंजीपति सोच क्यूँ रक्खे हुए हैं? इनकी सोच प्रजाकोष और राज कोष से ज्यादे अपने कोष पे क्यूँ है? शायद अब समय आ गया है श्रीमती इन्दिरा गांधी कि तरह इस वक़्त भी इनपे और खासकर के निजी बैंकों पे लगाम कसा जाए ताकि इनके उद्देश्य राष्ट्रीय उद्देश्य से समरूप हो सके। नहीं तो वह दूर नहीं जब यह बैंक पूरे देश को कर्जखोर बनाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का रूप धारण कर लेवें और हम हाथ पे हाथ धार के बैठे रहें।  

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