इस बार महाराष्ट्र के निकाय
चुनाव में बीजेपी सही में अब बड़े भाई के तौर पर उभरकर सामने आई है। मुंबई में जहां
भईया वोटों का बीजेपी के प्रति ध्रुवीकरण हुआ वहीं कांग्रेस के परंपरागत वोट भी बंट
गए। शिवसेना ने इस बार मुंबई और ठाणे का गढ़ तो जीत लिया लेकिन महाराष्ट्र हार गई। इस
बार का निकाय चुनाव इसलिए मायने रखता था क्यूँ कि अव्वल एक तो नोटबंदी के बाद का चुनाव
था दूसरा पहली बार निकाय चुनाव शिवसेना बिना बाला साहब के लड़ रही थी,
शिवसेना और बीजेपी ने पहली बार निकाय चुनाव मे सम्पूर्ण सीट पर लड़ाई लड़ी थी और उद्धव
ठाकरे और फड़नविस में जम कर तीर चले थे, राज ठाकरे के जीवन मरण का प्रश्न था तो बहुत से कांग्रेसी
निरूपम के हार के लिए ही काम कर रहे थे।
मुंबई का जो परंपरागत और खाँटी मराठी वोट था वो ज्यादेतर शिवसेना या स्थानीय उम्मीदवारों
के मेरिट पर गया लेकिन प्रगतिशील और वोट जो पहले कांग्रेस या एनसीपी को जाते थे इस
बार बीजेपी को गए। मुंबई से भी अच्छी सफलता बीजेपी को पुणे में मिली जहां उसने शरद
पवार के गढ़ मे बड़ा सेंध करते हुए बाजी मर ली। इस निकाय चुनाव ने मनसे और एनसीपी को
अपने पार्टी के आस्तित्व पे ही सोचने पर मजबूर कर दिया है। बहुत से कांग्रेसी और एनसीपी
नेता अब अपनी पार्टी का दामन छोड़ बीजेपी का दामन थामने कि सोच रहें है। चुनाव बाद कोई
बड़े भगदड़ से इंकार नहीं किया जा सकता। जो उद्धव चुनाव पूर्व और चुनाव के दौरान बीजेपी
को पानी पानी पी के कोस रहे थे वही उद्धव ने अपने अंदाज़ मे ही गठबंधन का प्रस्ताव पेश
कर दिया है, वह है “मेयर शिवसेना का होगा”
। शायद समझौते का यही केन्द्रबिन्दु होगा जिसे बाद में शिवसेना भुना सकती है कि गठ
बंधन उसकी शर्तों पर ही हुआ है, और इस तरह वह अपने समर्थकों
को समझा सकते हैं कि शर्ते बड़े भाई के रूप में आज भी शिवसेना ही तय करती है। बीजेपी
के लिए अच्छा यह है कि पहली बार मुंबई मे उसने 200 प्रतिशत से ज्यादे छलांग लगाई है
और उसे अपनी वास्तविक शक्ति का अहसास हुआ है। नासिक और नागपुर समेत लगभग महाराष्ट्र
का चुनाव फतेह करना, राज्य कि राजनीति मे नए समीकरण
भी पैदा कर सकता है। शिवसेना के हालिया कांग्रेस कि तारीफ अनायास नहीं थे शायद उद्धव
को चुनाव बाद के हालात का अंदाजा था इसलिए शिव सेना कांग्रेस के गठबंधन का शिगूफ़ा भी
बीजेपी पे दबाब बनाने का काम आ सकता है। जानकार बताते हैं कि शिवसेना कभी भी कांग्रेस
के साथ गठबंधन नहीं करेगी क्यूँ कि वो अपने हिन्दुत्व के कोर अजेंडों को खत्म नहीं
करना चाहेगी लेकिन कांग्रेस के साथ गठबंधन के विकल्पों कि चर्चा खूब कराएगी ताकि बीजेपी
पर भी गठबंधन का दबाब बनाया जा सके। हालांकि बीएमसी का जनादेश बीजेपी और शिवसेना को
किसी न किसी निर्णय पे पहुँचने के लिए है, दोनों
हठी होकर जनता पर पुनः चुनाव नहीं लाद सकते। प्रदेश सरकार से शिवसेना अपना समर्थन वापस
नहीं लेने वाली क्यूँ कि उसे अहसास हो गया है कि मुंबई और ठाणे के बाहर सम्पूर्ण महाराष्ट्र
मे बीजेपी ने बाजी मार ली है और उसी कि लहर है। नोटबंदी का विरोध भी शिवसेना के काम
नहीं आने वाला मध्यावधि चुनाव खुद शिवसेना पर भारी पड़ सकता है, इसीलिए थोड़े दिनों के ना नुकुर के बाद शिवसेना बीएमसी के सत्ता पर पुनः हावी होगी, बीजेपी का आत्मविश्वास बढ़ेगा, बीएमसी
प्रशासन के महत्वपूर्ण पड़ मिलेंगे और एनसीपी, कांग्रेस
और मनसे मे भगदड़ मचेगी, शायद महाराष्ट्र मे बीजेपी
अब बड़के “भईया” हो गई है यह सबको अहसास हो गया है।
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