कविता और फ्री सेक्स

कविता और फ्री सेक्स पर बहस
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कविता और फ्री सेक्स बहस से मैं बचना चाह रहा था, क्यूँ की जब आसपास बहुत से मुद्दे और कार्य हों तो फालतू के विषय पे बहस करना बचकाना है और अपने आपको फालतू के बतकुच्चन मे फंसाना है। उनकी हमसे हमारी संस्कृति से तमाम शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन हमे अपने महान गौरव परंपरा क्षमाशीलता को भी नहीं भूुलनी चाहिए। मैंने कविता के उस लेख को पढ़ा और उनके फेस्बूक के कमेंट की शृंखला भी देखी। वह बहस की एक फ्री फ्लो ट्रैप का शिकार हो गईं। उनके लेख का रेलेवंट पार्ट मैं नीचे पेस्ट कर रहा हूँ जिससे पता चलेगा तर्कों मे खुद को सर्व श्रेष्ठ मानने वाले लोग कैसे फ्री फ्लो ट्रैप का शिकार होकर फ्री सेक्स की बहस के केंद्र बिन्दु में आ जाते हैं।

कविता के लेख वह रेलेवंट पार्ट
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"बलात्कार कानून या जुवेनाइल जस्टिस कानून पर TV चैनल पर बहस में, जब भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी के पास मेरे तर्कों का जवाब नहीं बचता है, तो वे गाली पर उतर आते हैं और मुझे अकसर ‘नक्सल जो फ्री सेक्स करती है’ कह चुके हैं.

अब सवाल यह है कि इस गाली का क्या जवाब हो? मुझसे किसी ने पूछा, ‘आप कह क्यूँ नहीं देती, की मैं नक्सली नहीं हूँ?’ कई लोग मुझसे कहते हैं, ‘JNU की महिलाएं, नारीवादी या वामपंथी महिलाएं, फ्री सेक्स नहीं करती हैं, ये बताना ज़रूरी है.’ ऐसे सलाह सुनकर मुझे कुछ ऐसा लगता है, जैसे एटिकस को लगा जब बेटी स्कौट ने पुछा, ‘पापा पर तुम सचमुच ‘हब्शी-प्रेमी’ तो नहीं हो न?’ ऐसी गालियों में जो विष है, उसे सहर्ष, गर्व से स्वीकार लेने और पी लेने से ही इन्हें पराजित किया जा सकता है."
https://kafila.org/2016/05/18/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%81-%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%9D%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3/

मेरे हिसाब से कविता को फ्री फ्लो ट्रैप का शिकार मानकर इस बहस को अब बंद कर देना चाहिए। गलती हो जाती है , लेकिन इतना खींचकर हमे इसे अनावश्यक बहस से बचाना चाहिए। इनके लेख से लगता है की यह जिन स्त्री समुदाय की बात कर रही हैं वह ज्यादेतर मुस्लिम समाज की ही महिलाएं हैं, क्यूँ की महिलावों की परतंत्रता उसी समाज मे हैं, भारतीय दर्शन और संस्कृति में महिलाएं उतनी धर्म से पीड़ित नहीं हैं जितनी वहाँ हैं। उन्ही के सूर अल बकर के आयत 223 मे उन्हे पुरुष की खेती कहा गया है, जहां पुरुष जब चाहे आए जाए। तो इस्लाम ही वो धर्म है जहां धार्मिक नियम बनाके स्त्री को पति की खेती घोषित कर दिया गया है, जहां वो मुक्त नहीं हैं, उनका सेक्स मुक्त नहीं है। मुक्त सेक्स की बात कह के उन्होने बहुूसेक्स की बात नहीं की थी। उसे ऐसे भी समझा जा सकता है की जिस एक व्यक्ति से कोई महिला सेक्स करना चाहती है अपने पति या लिव इन दोस्त के रूप में उसमें उसकी मर्जी स्वतंत्र रूप से शामिल हो, बलात या परतंत्र रूप से उसे ऐसा करने के लिए बाध्य न बनाया जा रहा हो। बहुसेक्स का मुद्दा उसे हम बना रहे हैं। हिन्दू धर्म मे कहीं भी औरतों को पति या पुरुषों की संपत्ति खेती नहीं बताई गयी है, हाँ पुरुष या पति पर उसके सुरक्षा की ज़िम्मेदारी दी गई है। व्यवहार मे हिन्दू धर्म में भी पुरुष शासक भाव मे रहता है जिसे हिन्दू धर्म ने इजाजत नहीं दी है, यह पुरुष सत्तावाद की बीमारी है हिन्दू की नहीं, वहीं अमुक्तता की वकालत इस्लाम मे खुद आयत 223 में दी गई है।

मुझे लगता है सुमंत दा को कविता को माफ कर देनी चाहिए और इस बहस को बंद करना चाहिए। बहस करना भी है तो हमे महिलावों की मुक्तता की बहस करनी चाहिए उन्हे किसी की खेती बनने से मुक्त करना चाहिए।

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