अनुकूल शिक्षा, स्वास्थय, महिला सशक्तिकरण, बाल विकास एवं दलित विकास से राज्यों की अर्थव्यवस्था को गति दी जा सकती है.
अनुकूल शिक्षा :
ज्ञात ब्रह्मांड मे अगर सबसे मूल्यवान संसाधन अगर कोई है तो वह है मानव संसाधन। यही संसाधन ही समस्त संसाधनो को गतिमान बना के मूल्य उत्पादक बनाने की एक कुंजी है। इस संसाधन का अनुकूलतम सर्वश्रेष्ठ प्रयोग जरूरी है । इस मानव संसाधन का एक गलत प्रयोग समस्त आर्थिक संसाधनो को विध्वंष या दुरुपयोग की तरफ धकेल सकता है। अतः सम्पूर्ण अर्थशास्त्र के विकास के लिए मानव संसाधन का अनुकूल शिक्षित होना बहुत जरूरी है। वाकई मे व्यक्ति समाज एवं राज्य के किसी भी तरह के विकास के लिए सबसे बड़ा मंत्र शिक्षा है, शिक्षा ही वो कुंजी है जिसके द्वारा इस ज्ञात ब्रह्मांड मे ज्ञानी जीव निष्क्रिय संसाधनो को गतिमान रूप मे लाते हैं।
यहाँ शिक्षा से तात्पर्य यंत्रवत शिक्षा ना होकर शिक्षा के मूल से है जो संसाधनों मे वैल्यू एडिशन का कार्य करता है। और अनुकूल शिक्षा से तात्पर्य योग्यता के अनुसार संसाधनो को धनात्मक गतिमान बनाके व्यक्ति समाज एवं राज्य के स्तर पे आर्थिक विकास करना है। और योग्यता के अनुसार शिक्षा के अनुकूल रूप से तात्पर्य मानव संसाधन के मौलिक रुचि, नैसर्गिक क्षमता और उसके लगन से है जो जन्माधिकार से प्राप्त योग्यता से इतर है। अतः समाज और राज्य का यह कर्तव्य है की योग्यता के अनुसार शिक्षा के अनुकूल रूप से चयन के लिए सम्पूर्ण परिस्थितियों को ध्यान मे रखते हौवे उस एक मानव संसाधनो मे भविष्य की संभावनावों को ध्यान मे रक्खें ना की वर्तमान परिस्थिति की। वर्तमान ऐसा हो सकता है की उसके नैसर्गिक प्रतिभा को उभरने के लिए अनुकूल माहौल ना मिल रहा हो यहाँ शिक्षक के साथ साथ समाज और राज्य की ज़िम्मेदारी है ऐसी योग्यता मे सर्वोत्तम प्रयोग की व्यवस्था करे।
शिक्षा से मानव संसाधन की दृष्टि का विस्तार होता है और वो बेहतर निर्णयन प्रक्रिया का इस्तेमाल कर संसाधनो के सर्वोत्तम अनुकूलतम विकल्प का मार्ग प्रसश्त करता है जिसके कारण उससे ज्ञात ब्रह्मांड के जीवन के अर्थ शास्त्र मे मूल्यरोपण होता है और वह वाणिज्य का हिस्सा बनता है। उदाहरण के स्वरूप मे आप देख सकते हैं की जब समाज मे यांत्रिक शिक्षा को बढ़ावा दिया गया तो उत्पादन मे वृद्धि हुवी और आर्थिक वातावरण उत्पादन और उत्पादन के साधनों के इर्द गिर्द घूमने लगा और जब प्रबंध प्रबंध शिक्षा का बढ़ावा हुआ तो उसने उसने उत्पादन के पूर्व और पश्चात के क्षेत्रों तक विस्तार करते हुए उत्पादन बाजार को उपभोक्ता बाज़ार मे बदल दिया और इन दोनों ही परिस्थितियों मे शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है।
शिक्षा ने तकनीक को बढ़ावा दिया , तकनीक ने अनुकूलतम लागत मे उत्पादन को बढ़ावा दिया और प्रबंध ज्ञान ने संसाधनो के बेहतर संयोजन के साथ साथ उत्पादन को अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का कार्य किया।
उदाहरण के एक और स्वरूप मे आप देख सकते हैं की मैं खुद जहां तक पहुंचा हूँ वहाँ पे मेरी शिक्षा का ही योगदान है। ना तो मैं संपत्ति के साथ पैदा हुआ था और ना ही मेरे पिता पूंजीपति थे, मेरे पास मेरी एक ही पूंजी थी मेरा लगन, मेरा दिमाग और उसी अनूरुप शिक्षा। मैंने मेरे लगन मेरे दिमाग को अनुकूल शिक्षा मे डाला और अपने आपको सामाजिक और व्यक्तिगत रूप मे उत्पादकीय रूप मे ढाला और समय के प्रवाह के साथ आर्थिक विकास किया। अगर मैंने लगन, दिमाग और उसी अनूरुप शिक्षा का चयन नहीं किया होता तो मै समाज के सापेक्ष अनुकूलतम उत्पादकीय नहीं रहता और यह भी हो सकता था की समाज पे बोझ होता ।
अतः समाज के उन हिस्सों के लिए जिन्हे जन्माधिकार या पैतृक अधिकारों के कारण धन नहीं प्राप्त है उनकी एक ही कुंजी है अनुकूल शिक्षा। अतः समाज और राज्य की यह ज़िम्मेदारी है की वो इस ज़िम्मेदारी को विनियोग की तरह लें ना की लागत की तरह।
स्वास्थय :
अब तो यह स्पष्ट ही है की ज्ञात ब्रह्मांड मे अगर सबसे मूल्यवान संसाधन अगर कोई है तो वह है मानव संसाधन। यही संसाधन ही समस्त संसाधनो को गतिमान बना के मूल्य उत्पादक बनाने की एक कुंजी है। अतः इस संसाधन का बिना किसी रुकावट के कार्य करना जरूरी है। मानव संसाधन का खराब होना मतलब समस्त आर्थिक संसाधनो का निष्क्रिय या दुरुपयोग होना अतः सम्पूर्ण अर्थशास्त्र के विकास के लिए मानव संसाधन का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है।
बीमार मानव संसाधन उत्पादन के साथ इसके वितरण और नियोजन को भी प्रभावित करता है। मानव संसाधनो को बिना रुकावट उत्पादकीय रूप मे रहने के लिए ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत मानव की ही सिर्फ नहीं है वह समाज और राज्य की है क्यूँ की एक उत्पादकीय मानव संसाधन आर्थिक रूप से सिर्फ अपने अर्थ मे बढ़ोत्तरी नहीं करता है वह समाज और राज्य के आर्थिक विकास मे भी भागीदार होता है। अतः मानव समाज के स्वस्थ होने की ज़िम्मेदारी सबसे पहले समाज और राज्य की है और उसके बाद व्यक्ति के खुद की।
बीमार मानव संसाधन सूक्ष्म स्तर पे जहां खुद के और परिवार के आर्थिक गर्त मे जाने के लिए जिम्मेदार होता है वहीं बृहद स्तर पे राज्य और समाज को आर्थिक गर्त मे ले जाने के लिए जिम्मेदार होता है। समाज और राज्य की यह ज़िम्मेदारी है की वो इस ज़िम्मेदारी को विनियोग की तरह लें ना की लागत की तरह और प्राथमिक और सामान्य स्वास्थय की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अपने ऊपर लेवें। यह राज्य की ज़िम्मेदारी बने की वह प्राथमिक और सामान्य स्वास्थय से जुड़े खर्चों का निर्वहन करे और उसका मानव संसाधन जन्म पूर्व और पश्चात दोनों ही परिस्थिति मे एक अच्छे स्वास्थय सरंक्षण मे रहे।
महिला सशक्तिकरण :
ज्ञात ब्रह्मांड मे मानव संसाधन मूलतः दो भागों मे विभक्त है, प्रथम है पुरुष और द्वितीय है महिला। जिस समाज मे महिला के अनुकूलतम विकास के विपरीत कार्य होगा वहाँ अर्थव्यवस्था की दर अनुकूल दर के 50% ही होगी और जहां महिला के अनुकूलतम विकास के अनुकूल कार्य होगा वहाँ अर्थव्यवस्था की दर अनुकूल दर के 100% दर के बराबर होगी। यहाँ अनुकूल दर से तात्पर्य कुल मानव संसाधन ( महिला एवं पुरुष ) के अनुकूल सामर्थ्य शोधन के बराबर विनिमय मूल्य की प्राप्ति करना जो समाज एवं व्यक्तिगत तौर मे सुख प्रदान करता हो।
महिला का विकास और उसका अनुकूलतम उत्पादकीय दर प्राप्त करना, केवल महिला का ही नहीं विकास करता है वह उसके पुरुष भागीदार के चिंतावों को कम करके, उसे आर्थिक सुख प्रदान कर के पुरुष संसाधनो को भी अनुकूलतम उत्पादकीय बनाने मे उत्प्रेरक का काम करता है। साथ ही एक महिला का विकास समाज के छोटे बच्चों के मौलिक एवं स्वास्थ्य के विकास मे वृद्धि करता है जो आगे चलकर राज्य के लिए उत्पादकीय संपत्ति बनते हैं।
वास्तव मे कहें तो महिला का विकास महिला के खुद के विकास के साथ साथ, पुरुष का विकास, बच्चों का विकास और राष्ट्र के विकास मे सहायक होता है और इससे राज्य की संपत्ति मे वृद्धि होती है।
बाल विकास :
बाल विकास किसी भी राज्य के विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व होते हैं, यह वही घटक होता है जिसके ऊपर परिवार एवं राज्य के प्रबंध एवं आर्थिक विकास का भार होता है। अगर भार ढोने वाला कमजोर होगा अविकसित होगा तो भविष्य मे परिवार और राज्य का विकास रूक जाएगा और बालक के साथ राज्य भी अपने अनुकूलतम विकास दर को नहीं प्राप्त कर सकेगा।
किसी भी अर्थव्यवस्था मे बाल विकास के लिए शिक्षा स्वास्थय के अलावा उसके व्यक्तित्व विकास के भी कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए जिससे की उसकी क्षमता और योग्यता की पहचान आरंभिक चरणों मे ही की जा सके। यह व्यक्तित्व विकास कार्यक्रम किसी भी तरह के पूर्वाग्रह जैसे की वर्ण विभेद , धर्म विभेद या अर्थ विभेद से मुक्त होना चाहिए और बाल प्रतिभा के मौलिक पहचान के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। एक बार बालक के नैसर्गिक रुचि और प्रतिभा का पता लग जाए तो आगे की शिक्षा और लालन पालन उसी अनुसार की जानी चाहिए तभी वह बालक अर्थव्यवस्था मे अनुकूल उत्पादकीय हो पाएगा।
दलित विकास :
समाज की किसी भी रूप मे दलितों की उपस्थिति स्वाभाविक है, सामाजिक वर्ण व्यवस्था मे भी एक क्रम होगा जहां एक पहला नंबर और आखिरी नंबर वाला होगा, ठीक उसी प्रकार आर्थिक व्यवस्था मे भी एक पहला नंबर और आखिरी नंबर वाला होगा। अतः दलित से यहाँ मेरा तात्पर्य किसी जाति विशेष से ना होकर किसी भी व्यवस्था मे ऐसे अंतिम आदमी से है जिसे व्यवस्था ने अपने फायदे के लिए उसे दलित बना दिया है ।
किसी भी सफल आर्थिक व्यवस्था मे अनुकूल विकास दर तभी आएगा जबकि व्यवस्था मे अंतिम दलित व्यक्ति को उसके संतुष्टि बिन्दु तक लाभ प्राप्त होगा। सामाजिक अर्थव्यवस्था मे आदर्श साम्यता तो बहुत ही कठिन है और यह बहुत ही बड़े वर्ग संघर्ष के बाद भी संभव नहीं है क्यूँ की वरीयता श्रेणी कहीं ना कहीं तो बनेगी ही और अंतिम आदमी का स्थान रहेगा। राज्य और व्यवस्था को बस यही देखना होगा की क्या वह अंतिम आदमी अपने संतुष्टि के बिन्दु को प्राप्त कर रहा है या नहीं। विकसित आर्थिक राज्य वही होता है जहां राज्य की नीतियाँ और कार्य राज्य के संसाधनो को उनके अनुकूलतम संतुष्टि बिन्दु की तरफ ले जाने का प्रयास करती हैं और इस प्रयास मे मानव संसाधन के एक अंग के रूप मे मानव संसाधन भी है।
Written By CA Pankaj Jaiswal
pankaj@anpllp.com
ज्ञात ब्रह्मांड मे अगर सबसे मूल्यवान संसाधन अगर कोई है तो वह है मानव संसाधन। यही संसाधन ही समस्त संसाधनो को गतिमान बना के मूल्य उत्पादक बनाने की एक कुंजी है। इस संसाधन का अनुकूलतम सर्वश्रेष्ठ प्रयोग जरूरी है । इस मानव संसाधन का एक गलत प्रयोग समस्त आर्थिक संसाधनो को विध्वंष या दुरुपयोग की तरफ धकेल सकता है। अतः सम्पूर्ण अर्थशास्त्र के विकास के लिए मानव संसाधन का अनुकूल शिक्षित होना बहुत जरूरी है। वाकई मे व्यक्ति समाज एवं राज्य के किसी भी तरह के विकास के लिए सबसे बड़ा मंत्र शिक्षा है, शिक्षा ही वो कुंजी है जिसके द्वारा इस ज्ञात ब्रह्मांड मे ज्ञानी जीव निष्क्रिय संसाधनो को गतिमान रूप मे लाते हैं।
यहाँ शिक्षा से तात्पर्य यंत्रवत शिक्षा ना होकर शिक्षा के मूल से है जो संसाधनों मे वैल्यू एडिशन का कार्य करता है। और अनुकूल शिक्षा से तात्पर्य योग्यता के अनुसार संसाधनो को धनात्मक गतिमान बनाके व्यक्ति समाज एवं राज्य के स्तर पे आर्थिक विकास करना है। और योग्यता के अनुसार शिक्षा के अनुकूल रूप से तात्पर्य मानव संसाधन के मौलिक रुचि, नैसर्गिक क्षमता और उसके लगन से है जो जन्माधिकार से प्राप्त योग्यता से इतर है। अतः समाज और राज्य का यह कर्तव्य है की योग्यता के अनुसार शिक्षा के अनुकूल रूप से चयन के लिए सम्पूर्ण परिस्थितियों को ध्यान मे रखते हौवे उस एक मानव संसाधनो मे भविष्य की संभावनावों को ध्यान मे रक्खें ना की वर्तमान परिस्थिति की। वर्तमान ऐसा हो सकता है की उसके नैसर्गिक प्रतिभा को उभरने के लिए अनुकूल माहौल ना मिल रहा हो यहाँ शिक्षक के साथ साथ समाज और राज्य की ज़िम्मेदारी है ऐसी योग्यता मे सर्वोत्तम प्रयोग की व्यवस्था करे।
शिक्षा से मानव संसाधन की दृष्टि का विस्तार होता है और वो बेहतर निर्णयन प्रक्रिया का इस्तेमाल कर संसाधनो के सर्वोत्तम अनुकूलतम विकल्प का मार्ग प्रसश्त करता है जिसके कारण उससे ज्ञात ब्रह्मांड के जीवन के अर्थ शास्त्र मे मूल्यरोपण होता है और वह वाणिज्य का हिस्सा बनता है। उदाहरण के स्वरूप मे आप देख सकते हैं की जब समाज मे यांत्रिक शिक्षा को बढ़ावा दिया गया तो उत्पादन मे वृद्धि हुवी और आर्थिक वातावरण उत्पादन और उत्पादन के साधनों के इर्द गिर्द घूमने लगा और जब प्रबंध प्रबंध शिक्षा का बढ़ावा हुआ तो उसने उसने उत्पादन के पूर्व और पश्चात के क्षेत्रों तक विस्तार करते हुए उत्पादन बाजार को उपभोक्ता बाज़ार मे बदल दिया और इन दोनों ही परिस्थितियों मे शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है।
शिक्षा ने तकनीक को बढ़ावा दिया , तकनीक ने अनुकूलतम लागत मे उत्पादन को बढ़ावा दिया और प्रबंध ज्ञान ने संसाधनो के बेहतर संयोजन के साथ साथ उत्पादन को अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुंचाने का कार्य किया।
उदाहरण के एक और स्वरूप मे आप देख सकते हैं की मैं खुद जहां तक पहुंचा हूँ वहाँ पे मेरी शिक्षा का ही योगदान है। ना तो मैं संपत्ति के साथ पैदा हुआ था और ना ही मेरे पिता पूंजीपति थे, मेरे पास मेरी एक ही पूंजी थी मेरा लगन, मेरा दिमाग और उसी अनूरुप शिक्षा। मैंने मेरे लगन मेरे दिमाग को अनुकूल शिक्षा मे डाला और अपने आपको सामाजिक और व्यक्तिगत रूप मे उत्पादकीय रूप मे ढाला और समय के प्रवाह के साथ आर्थिक विकास किया। अगर मैंने लगन, दिमाग और उसी अनूरुप शिक्षा का चयन नहीं किया होता तो मै समाज के सापेक्ष अनुकूलतम उत्पादकीय नहीं रहता और यह भी हो सकता था की समाज पे बोझ होता ।
अतः समाज के उन हिस्सों के लिए जिन्हे जन्माधिकार या पैतृक अधिकारों के कारण धन नहीं प्राप्त है उनकी एक ही कुंजी है अनुकूल शिक्षा। अतः समाज और राज्य की यह ज़िम्मेदारी है की वो इस ज़िम्मेदारी को विनियोग की तरह लें ना की लागत की तरह।
स्वास्थय :
अब तो यह स्पष्ट ही है की ज्ञात ब्रह्मांड मे अगर सबसे मूल्यवान संसाधन अगर कोई है तो वह है मानव संसाधन। यही संसाधन ही समस्त संसाधनो को गतिमान बना के मूल्य उत्पादक बनाने की एक कुंजी है। अतः इस संसाधन का बिना किसी रुकावट के कार्य करना जरूरी है। मानव संसाधन का खराब होना मतलब समस्त आर्थिक संसाधनो का निष्क्रिय या दुरुपयोग होना अतः सम्पूर्ण अर्थशास्त्र के विकास के लिए मानव संसाधन का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है।
बीमार मानव संसाधन उत्पादन के साथ इसके वितरण और नियोजन को भी प्रभावित करता है। मानव संसाधनो को बिना रुकावट उत्पादकीय रूप मे रहने के लिए ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत मानव की ही सिर्फ नहीं है वह समाज और राज्य की है क्यूँ की एक उत्पादकीय मानव संसाधन आर्थिक रूप से सिर्फ अपने अर्थ मे बढ़ोत्तरी नहीं करता है वह समाज और राज्य के आर्थिक विकास मे भी भागीदार होता है। अतः मानव समाज के स्वस्थ होने की ज़िम्मेदारी सबसे पहले समाज और राज्य की है और उसके बाद व्यक्ति के खुद की।
बीमार मानव संसाधन सूक्ष्म स्तर पे जहां खुद के और परिवार के आर्थिक गर्त मे जाने के लिए जिम्मेदार होता है वहीं बृहद स्तर पे राज्य और समाज को आर्थिक गर्त मे ले जाने के लिए जिम्मेदार होता है। समाज और राज्य की यह ज़िम्मेदारी है की वो इस ज़िम्मेदारी को विनियोग की तरह लें ना की लागत की तरह और प्राथमिक और सामान्य स्वास्थय की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अपने ऊपर लेवें। यह राज्य की ज़िम्मेदारी बने की वह प्राथमिक और सामान्य स्वास्थय से जुड़े खर्चों का निर्वहन करे और उसका मानव संसाधन जन्म पूर्व और पश्चात दोनों ही परिस्थिति मे एक अच्छे स्वास्थय सरंक्षण मे रहे।
महिला सशक्तिकरण :
ज्ञात ब्रह्मांड मे मानव संसाधन मूलतः दो भागों मे विभक्त है, प्रथम है पुरुष और द्वितीय है महिला। जिस समाज मे महिला के अनुकूलतम विकास के विपरीत कार्य होगा वहाँ अर्थव्यवस्था की दर अनुकूल दर के 50% ही होगी और जहां महिला के अनुकूलतम विकास के अनुकूल कार्य होगा वहाँ अर्थव्यवस्था की दर अनुकूल दर के 100% दर के बराबर होगी। यहाँ अनुकूल दर से तात्पर्य कुल मानव संसाधन ( महिला एवं पुरुष ) के अनुकूल सामर्थ्य शोधन के बराबर विनिमय मूल्य की प्राप्ति करना जो समाज एवं व्यक्तिगत तौर मे सुख प्रदान करता हो।
महिला का विकास और उसका अनुकूलतम उत्पादकीय दर प्राप्त करना, केवल महिला का ही नहीं विकास करता है वह उसके पुरुष भागीदार के चिंतावों को कम करके, उसे आर्थिक सुख प्रदान कर के पुरुष संसाधनो को भी अनुकूलतम उत्पादकीय बनाने मे उत्प्रेरक का काम करता है। साथ ही एक महिला का विकास समाज के छोटे बच्चों के मौलिक एवं स्वास्थ्य के विकास मे वृद्धि करता है जो आगे चलकर राज्य के लिए उत्पादकीय संपत्ति बनते हैं।
वास्तव मे कहें तो महिला का विकास महिला के खुद के विकास के साथ साथ, पुरुष का विकास, बच्चों का विकास और राष्ट्र के विकास मे सहायक होता है और इससे राज्य की संपत्ति मे वृद्धि होती है।
बाल विकास :
बाल विकास किसी भी राज्य के विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व होते हैं, यह वही घटक होता है जिसके ऊपर परिवार एवं राज्य के प्रबंध एवं आर्थिक विकास का भार होता है। अगर भार ढोने वाला कमजोर होगा अविकसित होगा तो भविष्य मे परिवार और राज्य का विकास रूक जाएगा और बालक के साथ राज्य भी अपने अनुकूलतम विकास दर को नहीं प्राप्त कर सकेगा।
किसी भी अर्थव्यवस्था मे बाल विकास के लिए शिक्षा स्वास्थय के अलावा उसके व्यक्तित्व विकास के भी कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए जिससे की उसकी क्षमता और योग्यता की पहचान आरंभिक चरणों मे ही की जा सके। यह व्यक्तित्व विकास कार्यक्रम किसी भी तरह के पूर्वाग्रह जैसे की वर्ण विभेद , धर्म विभेद या अर्थ विभेद से मुक्त होना चाहिए और बाल प्रतिभा के मौलिक पहचान के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। एक बार बालक के नैसर्गिक रुचि और प्रतिभा का पता लग जाए तो आगे की शिक्षा और लालन पालन उसी अनुसार की जानी चाहिए तभी वह बालक अर्थव्यवस्था मे अनुकूल उत्पादकीय हो पाएगा।
दलित विकास :
समाज की किसी भी रूप मे दलितों की उपस्थिति स्वाभाविक है, सामाजिक वर्ण व्यवस्था मे भी एक क्रम होगा जहां एक पहला नंबर और आखिरी नंबर वाला होगा, ठीक उसी प्रकार आर्थिक व्यवस्था मे भी एक पहला नंबर और आखिरी नंबर वाला होगा। अतः दलित से यहाँ मेरा तात्पर्य किसी जाति विशेष से ना होकर किसी भी व्यवस्था मे ऐसे अंतिम आदमी से है जिसे व्यवस्था ने अपने फायदे के लिए उसे दलित बना दिया है ।
किसी भी सफल आर्थिक व्यवस्था मे अनुकूल विकास दर तभी आएगा जबकि व्यवस्था मे अंतिम दलित व्यक्ति को उसके संतुष्टि बिन्दु तक लाभ प्राप्त होगा। सामाजिक अर्थव्यवस्था मे आदर्श साम्यता तो बहुत ही कठिन है और यह बहुत ही बड़े वर्ग संघर्ष के बाद भी संभव नहीं है क्यूँ की वरीयता श्रेणी कहीं ना कहीं तो बनेगी ही और अंतिम आदमी का स्थान रहेगा। राज्य और व्यवस्था को बस यही देखना होगा की क्या वह अंतिम आदमी अपने संतुष्टि के बिन्दु को प्राप्त कर रहा है या नहीं। विकसित आर्थिक राज्य वही होता है जहां राज्य की नीतियाँ और कार्य राज्य के संसाधनो को उनके अनुकूलतम संतुष्टि बिन्दु की तरफ ले जाने का प्रयास करती हैं और इस प्रयास मे मानव संसाधन के एक अंग के रूप मे मानव संसाधन भी है।
Written By CA Pankaj Jaiswal
pankaj@anpllp.com
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