संसद मे ढांचागत परिवर्तन की जरूरत है

इनको राज्य सभा सांसद बनाना रेखा और सचिन के सांसद बनाने से अच्छा विकल्प होगा।

आज संसद को 60 साल हो गए आज से 60 साल पहले 13 मई 1952 को संसद का पहला संसद सत्र चला था आज ठीक 60 साल के बाद संसद का विशेष सत्र बुलाया गया था । संसद मे हमने लालू का व्यंग्य देखा, प्रणव की मुस्कुराहट देखि, आडवाणी और मनमोहन की बड़प्पन देखि शरद यादव का दर्द देखी तो सोनिया का संदेश देखा । संसद ने अपने अनुभवो और सांसदो को याद किया , नेहरू भी याद आए, वाजपेयी भी याद आए,  इन्दिरा गांधी, लालबहादुर शास्त्री, मोरार जी देसाई, श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रोफेसर, हीरेन मुखर्जी (सीपीआई नेता) ,डॉक्टर राममनोहर लोहिया,  मधु दंडवते, मधु लिमये, इंद्रजीत गुप्त और चंद्रशेखर याद आए। इस बहसों को सुनते हुवे अचानक याद आया क्या संसद को इनके बिना या मौजूदा योग्य एवं परिपक्व सांसदों के बिना परिकल्पना कि जा सकती है क्या होगा संसदीय सरंचना जब देश संसद कि 75 वीं वर्षगांठ बना रहा होगा, क्या उस समय देश के ऐसे योग्य वक्ता एवं सांसद संसद मे रह पाएंगे क्या समय के साथ बूढ़े हो रहे इन सांसदों को गहन मेहनत वाले चुनाव को पार कर के ही संसद मे आना होगा या इन्हे भी रेखा या सचिन कि तरह वरीयता देने का प्रावधान है क्या आप प्रणव मुखर्जी, आडवाणी, शरद यादव, राम विलास पासवान कि बहसों का विकल्प ला सकते हैं।

आइये विश्लेषण करते है संसद ने भारत मे ढांचागत परिवर्तन क्या लाया है और क्यूँ विश्व मे भारतीय संसद का मान है।

अगर संसदीय महत्वपूर्ण उपलब्धियों को आप देखेंगे तो सबसे बड़ी उपलब्धि है इसका खुद का जीवन काल जहां पूरे एशिया मे उथलपुथल मची हुवी है वहाँ भारतीय संसद सीना तान के खड़ी है।

इसकी दूसरी बड़ी उपलब्धि है पूरी दुनिया मे सामाजिक न्याय का एक ऐसा उदाहरण पेश करना जो सिर्फ भारत मे है और वो है “आरक्षण” की परिकल्पना , हजारों साल से जिन जतियों को सिर्फ रंग एवं वर्ण के आधार पर शासन, नौकरियों एवं अन्य अवसरों से वंचित रखा गया था संसद ने आरक्षण के कानून द्वारा  सामाजिक संतुलन का एक फॉर्मूला “आरक्षण” शुरू किया जिससे ऐसी जातियाँ जो हजारों साल से दबी पड़ी थी खुली हवा मे सांस ले सकीं, इसकी कुछ कमियाँ भी थी लेकिन सदियों की गलतियों सुधारने के लिए संसद ने अगले कुछ दशकों तक का जोखिम लिया ।
तीसरी बड़ी उपलब्धि है हालांकि समय की कसौटी पे इसे कसा जाना बाकी है वो है आरटीआई कानून, हाँ लेकिन मैं इसे तंत्रकारी उपलब्धि मानूँगा बजाए ढांचागत के ।

हालांकि संसद की इन दो बड़ी उपलब्धियों के अलावा सदियों के पैमाने मे कोई बड़ी उपलब्धि तो नहीं हैं लेकिन दशकों के पैमाने मे संसद ने बहुत से कानून और बिल पास कर के व्यावहारिक कानून और संविधान के पालन की सुनिश्चितिता निश्चित की है जिसका उल्लेख इन सदियों के पैमाने पे मैं नहीं करना चाहता लेकिन इसके लिए संसद को शुभेच्छा दी जा सकती है।

संसद इन छोटी बड़ी उपलब्धियों के साथ कुछ नाकामियों के लिए भी जिम्मेदार है, और वो है संसद मे महिला आरक्षण का पास न करा पाना, लोकपाल बिल को 40 साल से अधिक तक लटका कर रखना और तीसरी बाबा साहब के संविधान पे किसी तरह के सवाल पे लचीला रूख न अपनाना। यद्यपि संसद मे संविधान के कई संशोधन बिल पास हुवे हैं, लेकिन मुझे लगता है की संसद के 60 साल पूरा होने पर पूरे संसद को 2 मुख्य बिन्दुवों पे सोचना चाहिए।

1॰    1950 का समय और संविधान कि प्रासंगिकता एवं आगे की सदियाँ और संविधान
2.    संसद की सरंचना

1950 का समय और संविधान कि प्रासंगिकता एवं आगे की सदियाँ और संविधान

जैसा की सबको मालूम है जब देश आज़ाद हुआ था तब हमारे पास देश चलाने का अनुभव और संयुक्त संघीय भारत के रूप मे भारत पे शासन चलाने का अनुभव नहीं था। तब के बहुत के कानून या तो ब्रिटेन से उधार लिए गए या तो सैद्धांतिक रूप से बनाए गए, बीतते समय के साथ बहुत से कानूनों का परीक्षण भी हो चुका है और हमारे पास, संसद और देश चलाने का संघीय अनुभव भी आ चुका है इसलिए जरूरत है कि  संविधान की प्रासंगिकता वर्तमान एवं भविष्य के संदर्भ मे एक बहस होनी चाहिए जो अपने भारत के संविधान को और व्यावहारिक प्रामाणिक और शक्तिशाली बनाने का काम करेगा। ऐसा इसलिए कि बहस के बाद बना संविधान टेस्टेड अनुभव के आधार पे बना होगा और वो भी भारतीय संघीय, राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश के टेस्टिंग मे।



संसद की सरंचना

इसके साथ ही जो सबसे बड़ा काम होना चाहिए भारतीय संसद की आंतरिक सरंचना को बदलने का।
ताकि जैसे संसद ने सामाजिक न्याय का फॉर्मूला विश्व को दिया वैसे ही युवा प्रबंधन का फॉर्मूला दे।

भारत मे संसद की सरंचना लोक सभा और राज्य सभा के रूप मे है।  लोक सभा मे प्रतिनिधि प्रत्यक्ष चुनाव से जाते है और राज्य सभा मे अप्रत्यक्ष। एक दिन मैं पंजाब के एक बड़े राजनेता का इंटरव्यू देख रहा था जो 50 साल पहले के चुनाव और आज के चुनाव पे एक बहस मे बोल रहे थे, वो बता रहे थे की आज से 50 साल पहले कैसे जब उनका 1 पोस्टकार्ड गाँव के एक सरपंच के पास पहुंचता था तो सरपंच भाव विभोर हो जाता था और पूरा गाँव का गाँव उस पोस्ट कार्ड के प्रचार पे ही वोट दे देता था, आज चुनाव बदले हैं, चुनाव मे तकनीक एवं खर्च का समावेश हुआ है अब एक घर के सदस्य अलग अलग लोगों को वोट देते है निर्वाचन की प्रक्रिया बदली है और अगर इतना कुछ बदला है तो संसद का ढांचा भी बदलना चाहिए।

समय के साथ बूढ़े हो रहे सांसदों के साथ आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं की समय की मांग के अनुरूप एक एक मतदाता से भौतिक मुलाक़ात कर सके।  लगातार 25 साल तक या 5 संसदीय चुनाव इसमे से जो ज्यादे हो तक अपने क्षेत्र का संसदीय प्रतिनिधित्व करने के बाद क्षेत्र और भारत के संघीय एवं संविधान के प्रति जो इसने अपना ज्ञान एवं अनुभव अर्जित किया है उसका उसको क्या प्रतिफल है, वो कैसे समय के साथ शारीरिक रूप से कमजोर होने के बाद अपने आपको सुरूक्षित महसूस कर सकेगा, उसके अनुभवों से देश को कैसे फायदा पहुंचा जा सकता है क्यों की 25 साल या 5 टर्म के बाद मे मोजूदा चुनाव प्रक्रिया जो गहन शारीरिक, मानसिक, तांत्रिक एवं आर्थिक ताकत की मांग करती वो समय के साथ अनुभवी एवं बूढ़े होते हुवे इन सांसदों मे नहीं होगी। 

इस संबंध मे मेरे कुछ सुझाव इस प्रकार हैं अगर कोई सांसद 5 बार संसदीय चुनाव जीत लेता है या 25 साल से ज्यादा सांसद के रूप मे अनुभव प्राप्त कर चुका है उसको स्वतः ही राज्य सभा मे चुन लिया जाए ताकि उसको स्वतः ही 25 साल तक संसदीय सेवा करने का प्रतिफल और उच्च सदन को इनका अनुभव प्राप्त होता रहेगा और लोक सभा मे उम्रदराज सांसदों के राज्य सभा मे भेजे जाने के कारण चुनाव और लोक सभा मे युवा सांसद के लिए सीट खाली होगी और युवा सांसद संसद मे आते रहेंगे और साथ साथ मे समय के साथ बूढ़े होते इन सांसदो को खर्चीली और गहन  शारीरिक, मानसिक, तांत्रिक एवं आर्थिक मेहनत से बचत हो जाएगी और एक संसदीय सुरक्षा भी इन्हे प्राप्त होगी और वो अपने बहुमूल्य अनुभव पे फोकस कर देश और संसद की सेवा कर सकते हैं। इनका चुनाव राज्यसभा मे कैसे किया जाए, क्या जब एक साथ कई सांसद योग्य हो जाएँ तो क्या राज्य सभा कि सीट बढ़ाई जाये  या रोटेशन प्रणाली लायी जाये या 25 साल के अनुभव कि जगह 30 साल का अनुभव का पैमाना हो , ये सब तंत्रिकता के मुद्दे हैं और एक बार जब सैद्धांतिक रूप से इसकी सहमति मिल जाएगी तो तंत्रिकता भी विकसित हो जाएगी।

इस प्रकार देश का उच्च सदन भी उच्च राजनैतिक अनुभवी लोगों से भरा रहेगा और निचला सदन भी ऊर्जावान युवा एवं प्रौढ़ सांसदों से भरा रहेगा। बेहतर होगा की समय के साथ बूढ़े हो रहे ऐसे सांसदों को देश के प्रति किए गए उनके सेवा का प्रतिफल अब इस बुढ़ापे मे चुनाव से मुक्ति दी जाए।


और मैं ये मानता हूँ की इनको राज्य सभा सांसद बनाना रेखा और सचिन के सांसद बनाने से अच्छा विकल्प होगा।

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