हिन्दू संस्कृति मे प्राचीन काल से ही महिलावों को पैतृक संपत्ति मे अधिकार की व्यवस्था है दहेज के रूप में
हिन्दू संस्कृति मे प्राचीन काल से ही महिलावों को पैतृक
संपत्ति मे अधिकार की व्यवस्था है दहेज के रूप में
लिखने से पहले मैं ये स्पष्ट कर देना चाहता
हूँ की मौजूदा दौर मे जो दहेज की व्यवस्था और उसमे जो बुराई पनपी है मैं उसका सख्त
विरोधी हूँ, और मुझे ये भी मालूम है की इसमे लोभ का इस तरह
समावेश हो चुका है की इसे आत्म निरीक्षण के द्वारा दैनिंदिनी सार्वजनिक जीवन से निकालना
मुश्किल है और इसके लिए कानून लाकर ही इसकी बुराइयों पे लगाम लगाया जा सकता है। यहाँ
मैं ना तो दहेज का समर्थन कर रहा हिन और ना ही इसे सिद्ध कर रहा हूँ, बल्कि दहेज़ के बहाने प्राचीन भारतीय समाज मे महिलावों को पैतृक संपत्ति मे
हिस्सा देने के लिए जिस व्यवस्था की रचना की गयी थी उसपे प्रकाश डाल रहा हूँ।
लिखने से पहले मैं ये भी स्पष्टीकरण दे
दूँ की ये मेरा व्यक्तिगत अध्ययन है और ऐसा मैंने कहीं लिखा हुआ पढ़ा नहीं है, मेरी यह राय मेरे खुद के अध्ययन और कईयों के साथ बातचीत पे आधारित है।
अभी कुछ दिन पहले महिलावों को मायके की
संपत्ति मे अधिकार मिलेगा ऐसा कानून पारित हुआ। जबकि इसकी व्यवस्था मेरे ख्याल से
सदियों पहले हिन्दू संस्कृति मे हो गयी थी जिसका रूपान्तरण हमे दहेज के रूप मे
दिखता है।
पहले के जमाने मे मनीषियों ने जब लड़कियों
की पिता के घर से विदाई की व्यवस्था बनाई तो लड़की का संपत्ति और व्यवसाय मे जो
उसका हिस्सा बनता था उसके बराबर या आसपास सामर्थ्य अनुसार जितना चल संपत्ति के रूप
मे वो देते थे दे देते थे और कभी कभी यह हिस्सा अचल संपत्ति के रूप मे भी देते थे
लेकिन अचल संपत्ति दहेज के रूप मे कम दी जाती थी। इस दहेज का कारण यह था की बेटी
का पिता की संपत्ति मे हिस्सा है, और यह हिस्सा जो की अचल
संपत्ति जमीन या जायदाद के रूप मे है वह उसे काट के ले जा नहीं सकती थी साथ ही
व्यवसाय भी वह अपने ससुराल नहीं ले जा सकती थी क्यूँ की ससुराल हमेशा दूर होता था।
इसीलिए बेटियों के इस हक़ को, जो की वो छोड़ के जाती थी पिता
उसकी जगह पे उसका मूल्य दहेज के रूप मे बेटियों को दे देते थे और यह कहता था की आज
के बाद इस घर मे तुम्हारा हिस्साधिकर खत्म । और यही दहेज परंपरा का मूल था।
कालांतर मे काल के प्रवाह मे इसमे लोभ का समावेश हो गया।
बेटी का अधिकार धीरे धीरे पति और ससुराल के अधिकार मे बदल गयी क्यूँ की इस
व्यवस्था मे सत्ता लड़कों वालों के हाथ मे आती गयी। सत्ता और लोभ के मिलन ने बेटी
के हक़ को पति के हक़ मे बदल दिया और दहेज को एक अनिवार्य मजबूरी मे बदल दिया। जहां
इसका मूल बेटी के पिता की संपत्ति मे अधिकार से संबन्धित था कालांतर मे पति और
ससुराल की सत्ता मे लोभ के समावेश होने के बाद इसका मूल बदल दिया गया और दहेज का
अधिकार विवाह के बाद पत्नी का ससुराल और पति की संपत्ति मे सृजित होने वाले अधिकार
से जोड़ दिया गया जो पूर्व के दहेज की अवधारणा से बिलकुल विपरीत थी। पति और ससुराल
की संपत्ति जितनी ज्यादे पत्नी को मिलने वाला हिस्सा उतने ज्यादे सो दहेज भी उतना
ज्यादे।
अतः जब दहेज अवधारणा की पैदाइश हुई थी तो
ये शुद्ध रूप से वैचारिक था, लेकिन इसके दुरुपयोग की
संभावना थी जिसका आकलन उस समय नहीं किया जा सका और सत्ता और लोभ के समावेश ने इसका
ऐसा रूप प्रस्तुत किया की लोग बिना मूल पे ध्यान दिये धर्म और संस्कृति पे प्रहार
करने लगे। जरूरत है दहेज के प्रति जागरूकता फैलाने की, पति
और ससुराल की तरफ से मांगो को रोकने की। क्यूँ की इसका उद्गम तो बेटी के पिता मे
संपत्ति के अधिकार के उद्देश्य से किया गया था ना की पति की संपत्ति मे सृजित
अधिकार को ध्यान रख के। हालांकि नए कानून के बन जाने से दहेज प्रथा की अब कोई
जरूरत नहीं है। की धार्मिक संविधान के स्थान पे भारतीय संविधान ने स्वतः पैतृक
संपत्ति मे अधिकार की व्यवस्था कर दी है। अतः दोनों फ़ारमैट के दहेज अब असामयिक हो
गए हैं इसे रोक देना ही उचित है, लेकिन बिना मूल जाने पानी
पी पी के प्राचीन संस्कृति को गाली देना उचित नहीं है। सभी तो नहीं लेकिन कुछ ऐसी
ऐसी परम्पराएँ जो आज अंधश्रद्धा या असामयिक लगती है पूर्व मे शुद्ध भाव से निर्मित
हुई थी सामाजिक और अधिकारों के संतुलन को ध्यान मे रखते हुये, पर कालांतर मे सत्ता और लोभ के मिश्रण ने इसे अशुद्ध कर दिया।
सीए पंकज जाइसवाल
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