उत्तर भारतीय एक “नस्लभेदी” शब्द है

उत्तर भारतीय एक “नस्लभेदी” शब्द है

पता नहीं क्यूँ, लेकिन मुझे महाराष्ट्र की राजनीति के क्षेत्र मे उत्तर भारतीय शब्द एक नस्लभेदी शब्द लगता है, जिसका सिर्फ और सिर्फ प्रयोग राजनीति की रोटी सेंकने के लिए किया जाता है, और छोड़ दिया जाता है उन निरीह उत्तर भारत के लोगों को जो रोजी रोटी के लिए मुंबई के सड़कों पे दौड़ते रहते है। उत्तर भारतीय का नाम ले के अगर कोई भी पार्टी राजनीति मे गंभीर होती तो अपने खुद के बयानों से उत्तर भारतीयो एवं भूमिपुत्रों को इस तरह सड़क पे लड्ने के लिए नहीं छोड़ देती।

हाँ जहां तक सामाजिक फैलाव की बात है, सामाजिक समारोहों, विवाह सम्मेलन, शुद्ध सांस्कृतिक सम्मेलनों की बात हैं वहाँ पे सामुदायिक विकास के लिए उत्तर भारतीय शब्द का स्वागत होना चाहिए लेकिन राजनैतिक क्षुद्रता के लिए इसका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। इसमे सबसे बड़ी गलती तो अपने आपको उत्तर भारतीय कह कर अपना वर्गीकरण करने वालों की है, जब आप अपने से खुद ही अपने आपको अलग कर के मानोगे तो अगला तो मानेगा ही।

काहें का उत्तर भारतीय और पश्चिम भारतीय हम सब भारतीय। हम जब महाराष्ट्र मे हैं तो महराष्ट्रियन और राष्ट्रियता हमारी भारतीयता है। हमे शान से कहना चाहिए हम महाराष्ट्र के हैं और और भारत का संविधान इसकी हमे आज्ञा देता है। यहाँ हमे अपने आपको उत्तर भारतीय एवं मराठी मे अपना वर्गीकरण नहीं करना चाहिए। दुर्भाग्य से महाराष्ट्र मे खासकर के मुंबई मे पद के लालच मे बहुत ढेर सारे उत्तर भारतीय संगठन खड़े हो गएँ हैं जिनमे से कई का उद्देश्य सामुदायिक विकास न हो के खाली अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनने का रहता है, उसके पीछे कोई सिद्धान्त नहीं पदनाम का मोह रहता है और यही हमारे समाज के लिए घातक है , और ये कार्य कम नेता बनने वाले ज्यादें हैं।

अगर ये संघटन केवल सामुदायिक विकास का कार्य करें जैसे की यूपी बिहार से आए लोगों के लिए सहायता केंद्र, सांस्कृतिक सरंक्षण , विवाह सम्मेलन, संस्कार सम्मेलन, जन जागृति सम्मेलन तो उत्तर भारतीय” शब्द को मैं नस्लभेदी नहीं मानूँगा। लेकिन राजनीति मे इसका प्रयोग महाराष्ट्र मे स्पष्ट रूप से लोगों का दो भाग करता है, एक जो उत्तर भारतीय हैं, दूसरे जो उत्तर भारतीय नहीं हैं। जाने या अनजाने मे ये तो स्पष्ट नहीं है लेकिंग अपने आपको उत्तर भारतीय कह के खुद ही वर्गीकृत कर लेना कहाँ की समझदारी कही जाएगी, और अपने आपको हम ही अलग कर लेंगे तो बाकी तो हमे अलग समझेंगे ही ।

हमे महाराष्ट्र की राजनीति मे महाराष्ट्र की राजनीति करनी चाहिए, महाराष्ट्र के विकास मे सोचनी चाहिए और यूपी बिहार के सरकारों पे दवाब डालना चाहिए विकास का ताकि वहाँ से पलायन कम हो।

पूरे भारत मे कहीं पे भी वहाँ का भूमिपुत्र अतिथि देवो भाव का पालन करते हुये प्रथमतः आपका स्वागत ही करता है और आपकी संस्कृतियों के बारे मे जिज्ञासु हो के बातें करता है और दोनों पक्ष एक दूसरी की संस्कृतियों को आत्मसात करने की कोशिश करते हैं। लेकिन पैर टिकाने का जगह मिलने के बाद अगर आप एक अलग मंच लगा लो अपने आपको उनसे अलग दिखाने का मंचीय प्रदर्शन करने लगो    तो  उसको क्या किसी को बुरा लगेगा।

मैंने ये देखा है ये रोग सिर्फ राजनीति के स्तर तक ही, निचले स्तर पे क्या मराठी क्या उत्तर भारतीय अधिकांशतः सब घुल मिल के रहते हैं, और एक दूसरे के पूरक हैं। हाँ एक्का दुक्का को छोड़कर और वो है भी तो सिर्फ और सिर्फ गंदी राजनीति के कारण अन्यथा आम मराठी और उत्तर भारतियों मे दूध मे शक्कर की तरह मिल जाने वाला भाव है जिसे अब चाह के भी अलग नहीं किया जा सकता हाँ कुछ लोग उसे अलग तो नहीं कर सकते लेकिन नमक डालकर स्वाद बिगाड़ने का कार्य कर रहे हैं। मै      विगत कई वर्षों से मुंबई मे हूँ और मेरे कई दोस्त और स्टाफ मराठी हैं, लेकिन कभी मुझे ऐसा अहसास हुआ ही नहीं की उन्होने मुझे अलग समझा है या मैंने उन्हे अलग समझा है। भाषा की दूरी तो बिलकुल नहीं है। मै उनसे मराठी सीखता हूँ तो वो मुझसे भोजपुरी सीखते हैं, एक चीज़ और मैंने यहाँ पायी है की यहाँ भोजपुरी भाषा की इज्ज़त यूपी के शहरी क्षेत्रों से बहुत ज्यादा है। यहाँ भोजपुरी को एक भाषा के तौर पे लिया जाता है जबकि यूपी के कई शहरों मे भोजपुरी बोलने पे गँवार समझा जाता है, इसका कारण है पहले यूपी मे सबसे अधिक बेरोजगारी गाँव मे थी जहां भोजपुरी बोली जाती है तथा वहीं से लोगों का पलायन मुंबई हुआ अतः मुंबई का साबका हिन्दी से ज्यादा भोजपुरी से पड़ा और लोग उसे एक भाषा ही मानने लगे जबकि यह अभी भी आठवीं अनुसूची मे जाने के लिए तरस रहा है।

मुझे मुंबई मे कभी भी असुरक्षा का भाव नहीं लगा, लेकिन ऐसा नहीं है की चैनलों मे दिखाई जाने वाली बाते गलत हैं , ये होती हैं लेकिन अधिकांशतः तो सुर्खियों बटोरने के लिए या छपास रोग के कारण होती है जो कैमरे के सामने की जाती हैं। मूल मे कोई भी उसका समर्थन नहीं करता चाहे वो आम मराठी हो या आम उत्तर भारतीय हो और चंद लोगों की हरकत पूरे मुंबई की पहचान नहीं हो सकती। इन कृत्यों के जिम्मेदार कुछ दोनों तरफ के लोग शामिल हैं जिन्हे अपने सार्वजनिक बयानों के प्रभाव का आकलन होना चाहिए। आदमी कहता कुछ है और कई बार आदमी समझ कुछ और लेता है।  और हो जाता है कैमरों के सामने और अपने नेता के सामने अपने आपको आगे दिखाने का होड़, परिनीति गरीब मारा जाता है।

ये उत्तर भारतीय की राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण की तरह है जिसे महाराष्ट्र का विपक्ष और पक्ष दोनों जिंदा रखना चाहता है क्यों की इससे मतों का ध्रुवीकरण होने मे सहायता मिलती है। और इस तुष्टीकरण मे बुरा सिर्फ और सिर्फ उत्तर भारतियों का होता है। जब एक साथ रह रहे दो समुदायों के बीच लिये  सिर्फ वोट के लिए विभाजन की लकीर खींची जाएगी तो भला कैसे होगा। महाराष्ट्र मे तो लगभग सभी पार्टियां अपने यहाँ उत्तर भारतीय प्रकोस्ठ खोल लिए हैं लेकिन किसी की ईक्षा भला करने की नहीं है, सब वोट बटोरना चाहते हैं और उत्तर भारतीय यहाँ वोट बन के रह गएँ हैं। अगर यही प्रकोस्ठ सामुदायिक विकास के लिए कार्य करते तो स्वागत होता लेकिन ये लकीर को और गहरी करने मे लगे हुवे हैं । इन्हे समाज मे कटुता दूर करने के लिए मिलन सम्मेलन आयोजित करने चाहिए न की शक्ति प्रदर्शन सम्मेलन।

अगर छीट पुट घटनाओं को छोड़ दिया जाया , जिसमे से तो 90% तो केवल न्यूज़ मे आने के लिए हैं, अगर इसको निकाल दे तो यहाँ के समाज मे मुझे कहीं कटुता नहीं दिखती है। हाँ लेकिन ये घटनाएँ महाराष्ट्र के बाहर महाराष्ट्र की गलत छवि प्रस्तुत कर देती हैं। मुंबई मे 75% उत्तर भारतीय झोपड़ पट्टियों मे रहते हैं और जब भी कोई राजनीति या वोटों के तुष्टीकरण से प्रेरित बयान आता है तो असुरक्षा की भावना प्रबल हो जाती है और कूछ छपास रोगी जा के फोटो छपवाने के लिए कैमरा ले के मारपीट करने पहुँच जाते हैं। आप कोई एक घटना बताइये मुंबई मे जहां उत्तर भारतीय और मराठी मे दंगा हुआ हो या बवाल हुआ है और वहाँ कैमरा न हो,  आधे से अधिक प्रायोजित होते हैं और हाँ इसका असर दूरस्थ इलाको मे पड़ता है । जहां लोगों के साथ बुरा बर्ताव हुआ है। इसका पूरा पूरा निषेध होना ही चाहिए और इसके मूल कारणो पे भी जाना चाहिए, इसका मूल कारण दोनों तरफ के सार्वजनिक नेताओं के उत्तेजक बयान होते हैं जो दिये तो राजनैतिक तुष्टीकरण के लिए हैं लेकिन भुगतते आम उत्तर भारतीय हैं।

ऑस्ट्रेलिया मे नस्ली युद्ध मे आस्ट्रेलिया वाले ही हमे इंडियन पुकार के अपने से अलग करते हैं और हमे मारते हैं , और यहाँ तो हम अपने आपको ही यहाँ की मुख्य धारा से अलग कर लेते हैं जिसकी परिनीति आम लोगों को भुगतना पड़ता है और जिसके कारण यहाँ पे आत्मसात होने मे प्रोब्लेम होती है ।

अंत मे अगर हम महाराष्ट्र मे हैं तो हम महराष्ट्रियन हैं बस, और राष्ट्रियता भारतीय है । अगर हमे यूपी बिहार के लिए कूछ करना है तो वहाँ जा के राजनैतिक जागरण करना चाहिए ताकि वहाँ अच्छा राजनैतिक नेतृत्व आए और वहाँ से पलायन बंद हो। महाराष्ट्र मे हमे अपने आपको महराष्ट्रियन समझ के बराबरी का अधिकार से राजनीति मे आना चाहिए न की पराया बन के। अगर हम महाराष्ट्र का बन के राजनीति मे आएंगे तो महाराष्ट्र भी पालक पावड़े बिछा के हमारा स्वागत करेगा जैसा की मधुकर दिघे का उत्तर प्रदेश ने  किया था। मधुकर दिघे महराष्ट्रियन होने के बावजूद यूपी मे थे तो यूपी की ही बात करते थे जब महाराष्ट्र आते तो महाराष्ट्र की बात करते, ठीक उसी तरह हमे जब महाराष्ट्र की राजनीति करनी है तो हमे महराष्ट्रियन बनना पड़ेगा तभी यहाँ का समाज और राजनीति हमे आत्मसात करेगी नहीं तो हम बिन पेंदी के लोटे बने रहेंगे और कोई बी आएगा लुढ़का के चला जाएगा।
Written BY
Pankaj jaiswal
+91-9819680011


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