विश्व सम्मेलनों की भेंट चढ़ चुका भोजपुरी भाषा का आंदोलन
विश्व सम्मेलनों की भेंट चढ़
चुका भोजपुरी भाषा का आंदोलन निजी एवं राजनैतिक महत्वाकांक्षा का शिकार हो गया है।
मैंने ऐसे कई सम्मेलनों को देखा है जिसकी शुरुवात “विश्व” शब्द से होती है, और इसमे सम्मेलनों के नाम पर इवैंट, प्रसिद्ध भोजपुरी कलाकारों का कार्यक्रम वो भी उनके सम्मान के नाम पर उन्हे
कम परिश्रमिक पे बुला के , किसी बड़ी हस्ती को बुलाकर मंच मे
फोटो खींचा लेना और अंत मे एक लाइन जोड़ देना की “भोजपुरी को आठवीं अनुसूची मे
शामिल की जाए” जोड़ देने से कार्यक्रम की समाप्ति कर दी जाती है। ऐसे नहीं मिलती
भोजपुरी भाषा को सम्मान, यह सिर्फ और सिर्फ अपने आपको चमकाने
के लिए भोजपुरी को हाइजैक करने जैसा है।
भोजपुरी भाषा को आठवीं
अनुसूची मे स्थान मिले, उसे
सम्मानजनक दर्जा हासिल हो इसके लिए मैंने, मेरी टीम और मेरे
ट्रस्ट ने भी बहुत प्रयास किए, एक आजतक चल रही “गोलमेज़
बतकही” परंपरा की शुरुवात की जो आज तक गोरखपुर, आगरा होते
हुवे मुंबई मे प्रवेश कर चुकी है आज भी जारी है।
मेरा ऐसा मानना है की भोजपुरी
का विकास भोजपुरी भाषा मे प्रचुर साहित्य के निर्माण के द्वारा हो सकता है। ये
साहित्य गद्य, पद्य और नाट्य के रूप मे
होने चाहिए, भोजपुरी मे शब्दकोश और व्याकरण के स्तर पे
रचनात्मक कार्य होने चाहिए। सार्वजनिक औपचारिक बहस भोजपुरी मे होनी चाहिए।
आज के समय मे भोजपुरी के
सम्मेलन, और हर सम्मेलन का नाम विश्व भोजपुरी
सम्मेलन, हर सम्मेलन मे मंच सज्जा के लिए कलाकारों को सम्मान
के नाम पर मुफ्त या बेहद कम दामों मे आमंत्रण, मालिनी अवस्थी
और मनोज तिवारी या ऐसे ही किसी प्रसिद्ध कलाकारों को बुलाने मे ही पूरा बजट और
ऊर्जा खर्च कर देना। राजनैतिक पहल के नाम पे मीरा कुमार या ऐसे ही किसी बड़े नेता
को पत्रक पकड़ाते कैमरे के सामने देखते हुवे फोटो खींचा लेना और अगले दिन फोटो और
अखबार की फ़ाइल बना लेना बस यहीं तक भोजपुरी के आंदोलनो की सक्रियता रह गयी है।
एक अंकेक्षक के रूप मे मैंने
भारत के विभिन्न भाषा वाले प्रदेशों की यात्राएं की हैं जिनमे महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और केरल शामिल हैं। इन सभी जगहों की भाषाएँ अलग अलग हैं और
इन भाषावों का विकास भी निरंतर है। इसका जो कारण मुझे समझ आया वो यह है की इस भाषा
की उस प्रदेशों मे सामान्य स्वीकार्यता है। सामान्य स्वीकार्यता से मेरा आशय सिर्फ
बोलचाल से नहीं है बल्कि प्रदर्शन माध्यमों जैसे की होर्डिंग्स, दुकानों के बोर्ड्स, होटेल्स के मेनू,अखबार और पत्रिका भी उसी भाषा मे होती थी, जो इस बात
को सिद्ध करता था की भाषा वहाँ सर्वग्राह्य है । यह न सिर्फ प्रदर्शनों माध्यम, बोलचाल बल्कि सरकारी कामकाजों मे भी ग्राह्य है । भाषा की सांस्कृतिक
सक्रियतावों साहित्य, कविता एवं नाटकों के निर्माण एवं
कमर्शियल मंचन ने भी भाषा को आम जनों से जोड़ के इसे सामान्य स्वीकार्य, ग्राह्य एवं विस्तारित किया है।
भोजपुरी मे भी ऐसी रचनात्मक
सक्रियता की जरूरत है जो इसे सामान्य स्वीकृति के साथ साथ सर्व ग्राह्य बनाए।
भोजपुरी प्रदर्शनों के माध्यम मे (होर्डिंग्स, दुकानों के बोर्ड्स, होटेल्स के मेनू,) , अखबारों मे, पत्रिकावों मे, नाटकों मे, और साहित्यों मे जितनी दिखाई देगी भाषा
की दावेदारी उतनी मजबूत होगी। भोजपुरी बोली तो बहुत जाती है लेकिन वही समाज जब
बोलने के साथ साथ औपचारिक लेखन करेगा बजाए हिन्दी या अँग्रेजी भाषा के इस्तेमाल के
तभी भोजपुरी की दावेदारी बनेगी।
अब भोजपुरी को ऐसे आंदोलन
नहीं रचनात्मक आंदोलन की जरूरत है जैसे मुंबई मे “अभियान” द्वारा “कजरी महोत्सव”
होता है, परदेसिया कला संगम द्वारा भोजपुरी रंगमंच
का मंचन, सांस्कृतिक संगम द्वारा “मेघदूत की पूर्वञ्चल
यात्रा का मंचन”, देवरिया के “विभोस” और फेसबुक पे कुछ
उत्साही युवाओं द्वारा व्याकरण और शब्दकोश के संग्रह का काम,
आधुनिक समय मे प्रोफेसर रामदेव शुक्ल जैसे लोगों का आगे आकर “ग्रामदेवता” उपन्यास
का भोजपुरी मे लेखन , मॉरीशस मे भोजपुरी की पाठ्य पुस्तकों
पे काम ऐसे काम होना चाहिए। मैं नहीं कहता की भारत मे ऐसा काम नहीं हुआ है, ऐसा काम हुआ है लेकिन उसका प्रोत्साहन उतना नहीं है, हमे भारत मे मीडिया के रूप मे, साहित्य खरीददार के
रूप मे, सार्वजनिक मंचो के बोलचाल के रूप मे भोजपुरी को
प्रोत्साहित करना चाहिए। आज भी पूर्वञ्चल के कोने कोने मे भोजपुरी पद्य की रचनाएँ
होती हैं, लेकिन उचित मंच के अभाव मे ये प्रतिभाए दम तोड़
देती हैं, ऐसे रचनावों का संकलन ऐसे कार्यों से भोजपुरी को
समृद्ध किया जा सकता है ना की भोजपुरी सम्मेलन इवैंट के द्वारा।
हमे भोजपुरी के साहित्यकारों
महेंद्र मिशिर, भिखारी ठाकुर, गोरख पाण्डेय, राहुल संस्कृत्यायन, मोती बीए, आचार्य रामदेव शुक्ल, कवि विचित्र जी, भगवती प्रसाद गुप्त, प्रसिद्ध प्रतिरोध के लोक
गायकों एवं ऐसे अन्य साहित्यकारों के भोजपुरी लेखों को प्रोत्साहित करना चाहिए, इनकी प्रदर्शनी लगानी चाहिए, इनके साहित्य पे
परिचर्चाए करानी चाहिए, संग्रहालयों के निर्माण की सोचनी
चाहिए, “कस्तूरी” फिल्म के निर्माता उदय यादव जैसे
फ़िल्मकारों को प्रोत्साहित करना चाहिए ना की भोजपुरी भाषा को क्षद्म सम्मेलनों की
भेंट चढ़ाना चाहिए जो हमेशा तो नहीं लेकिन
प्रायः या तो किसी निजी मकसद से किया जाता है या किसी निजी मकसद वालों के
द्वारा भोजपुरी प्रेमी आयोजकों को बेवकूफ बना के किया जाता है । भोजपुरी को इन
अवसरवादियों से बचना हमारा कर्तव्य बनता है जो इस निजी मकसद के माध्यम से अपनी
दुकान या तो राजनैतिक पहचान बनाना चाहते हैं।
लेखक
सीए पंकज जैसवाल
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