संघर्ष से निखरता भोजपुरिया अस्मिता

संघर्ष से निखरता भोजपुरिया अस्मिता :
कई सालों से पूर्वाञ्चल समेत देश के अन्य हिस्से में जहां भोजपुरिया लोग गए हैं वहाँ उनका उनके अस्मिता से संघर्ष होता रहा है। मुंबई और दिल्ली में तो इन्हे रोजी रोटी के साथ अपने पहचान कारण संघर्ष करना पड़ा तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में शहरीकरण से संघर्ष करना पड़ा। मौजूदा दौर मे जब भोजपुरिया समाज सशक्त हो रहा है तो शहरी और कस्बों की मौजूदा लोग अपनी पीढ़ियों में इसके हस्तांतरण के संघर्ष से जूझ रहें है। कहीं इसका मुक़ाबला शहरी अमीरों से है तो कहीं इसका मुक़ाबला गैर भोजपुरी भाषियों से है और कहीं खुद भोजपुरियों से है तो कहीं शहरी लोगों की मानसिकता मे घर बना चुकी कान्वेंट स्कूलों और अँग्रेजी से भी है ।
इसका कारण भी है, सैकड़ों सालों से बोली जाने वाली भाषा जो अपने आप मे सिर्फ भाषा ही नहीं संस्कृति , त्याग एवं प्रतिरोध का पर्याय मानी जाती थी, जहां संस्कारों को संगीत बना के पिरोया गया, लेकिन जब भाषा गठन की बात आई तो त्याग भावना का परिचय देते हुए इसने हिन्दी गठन का संकल्प लिया। आश्चर्य जनक है लेकिन सत्य है और एक बार भोजपुरी साहित्यकार श्री अरुणेश नीरन ने कहा था भोजपुरी को प्रचलन में भाषा बोला जाता है “भोजपुरी भाषा” और हिन्दी को बोली “खड़ी बोली”। कितना असंगत हैं ना जिसे बोली नाम दिया गया वह भाषा है और जिसे भाषा नाम दिया गया वह बोली है। यह समस्या शुरू से से ही रही भोजपुरियों के साथ है। इन्हे वो नहीं दिया गया जिसके वो अधिकारी हैं, हाँ अलंकरण के नाम पर सम्मान दे दिया गया लेकिन उचित मूल्य नहीं दिया गया। और यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, मजदूरों को दुलार पुचकार के कम पैसे या बेगारी पे कम कराना या जब भोजपुरी कलाकारों से कार्यक्रम कराना हो तो सम्मान के नाम पर कम पारिश्रमिक देना। बार बार भोजपुरियों को अपने आत्मसम्मान की कीमत चुकानी पड़ती है। आज भोजपुरी समाज अगर परेशान है तो अपने कम मूल्यांकन से भी परेशान है जो कभी बाहर वाले करते हैं तो कभी खुद भोजपुरिया लोग करते हैं, जबकि वास्तविक मूल्य का हकदार है वो।
हालांकि ये समस्या भारत से बाहर गई भोजपुरी के साथ नहीं है, क्यूँ की वहाँ इनका मुक़ाबला हिन्दी या समरूप भाषा से नहीं था वहाँ विदेशी भाषावों से था, और उन भाषावों ने भोजपुरी भाषा को अपने यहाँ स्थान एक विदेशी भाषा समझ के ही दिया न की बोली समझ के। इसी कारण से विदेशों मे खाड़ी देशों को छोडकर भोजपुरियों को अस्मिता को लेकर कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। खाड़ी देशों में भी भोजपुरिया वर्गीकरण का शिकार भाषा के नाम पर न होकर देश के आधार पर होते हैं, भोजपुरिया के आधार पर नहीं। यहाँ तक की मुंबई में भी भोजपुरी को अस्मिता से संघर्ष नहीं करना पड़ा क्यूँ की यहाँ पर मराठी गुजराती के समक्ष इसे भी भाषा के तौर पर ही मुंबई मे स्वीकार किया गया न की बोली के रूप में।
अस्मिता को लेकर यह संघर्ष इसलिए है की हम अपने प्रतीकों और प्रतिभावों को वो प्रोत्साहन और दृष्टि नहीं दे सके। उदाहरण के तौर पर मॉरीशस की सरिता बूधू ने शादी ब्याह एवं अन्य पर्वों पर गानों का एक संग्रह बनाया और उसके लिए एक महिलावों की टोली बनाई और “गीत गवई” नाम का एक अभियान चालू किया, ताकि इन महिलावों को भोजपुरिया परंपरा के गायन के साथ रोजगार मिल सके। और इसी बहाने उन्होने वर्षों से चली आ रही एक परंपरा मे आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्य संवर्धन की तरफ दृष्टि डाला और यही नहीं उन्होने इस धरोहर को यूनेस्को मे पंजीकरण के लिए आवेदन किया है। जिस धरोहर पर भारत या पूर्वाञ्चल को प्रयास करना चाहिए, आज उसी धरोहर को बचाने और सँजोने के लिए भारतीय मूल की मॉरीशस नागरिक श्रीमती सरिता बूधू जो की वहाँ भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन की अध्यक्षा भी हैं उन्होने क्लेम किया। भारत भोजपुरी को अस्मिता दिलाने मे यहीं चूकता रहा है और आगे भी चूकता रहेगा। इसे आज के दौर में ऐसे लोगों की टोली चाहिए जो बिना किसी राजनैतिक फायदे की उम्मीद लगाए, भोजपुरी समाज के एक एक चीज चाहे वो भाषा हो, संगीत हो , परंपरा हो, खानपान हो, पुरानी इलाज की विधियाँ हों, पुरानी विभूतियाँ हों पुराने नायक हो को सँजो सके, संभाल सके और संवर्धन कर सके। भोजपुरी में असीमित अमूर्त संपत्ति की संभावना है जरूरत है तो सिर्फ एक नायक की जो ईसपे एक दृष्टि डाल सके।

सनद रहे आठवीं अनुसूची में नाम भले आ जाए अस्मिता सा संघर्ष समाप्त नहीं होगा जब तक देश हमें गौरवशाली समाज के रूप में रेखांकित नहीं करता है, हमारी अमूर्त सम्पत्तियों चाहे भाषा हो, संगीत हो , परंपरा हो, खानपान हो, पुरानी इलाज की विधियाँ हों, पुरानी विभूतियाँ हों पुराने नायक हों को उचित स्थान नहीं देता है। 

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