कर सुधार बनाम कर नीति :

कर सुधार बनाम कर नीति :
कई बार मैंने सोचा की लेख का शीर्षक कर सुधार एवं कर नीति रक्खूँ लेकिन अंत मे कर सुधार बनाम कर नीति शीर्षक ही को सफलता मिली। मेरा मानना है की कर सुधार जहां जनोन्मुखी और जनता का शब्द है वहीं कर नीति राज सत्ता का, इसलिए प्रकृति मे ही एक दूसरे के आमने सामने खड़े हैं। बिरले और कंचित ही कहीं होता होगा की सत्ता जनोन्मुखी कर नीतियाँ बनाएँ कर सुधार के नाम पर। चाहे पूंजीवादी सरकारें हो या समाजवादी सरकारें उनके मुंह से बजट के लिए निकलने वाला पहला शब्द राजकोष ही होता। वह चालू खाते का घाटा, राजकोषीय घाटा, वित्तीय घाटा इसी सब की बात करते मिलेंगे प्रजकोष की प्राथमिकता सदियों से द्वितीयक ही रही है।
भारत मे तो कर प्रणाली शुरू से ही जटिल रही है, चाहे हो प्रथम सदी से दसवीं सदी हो, ग्यारहवीं से अंगेर्जों के आगमन तक की सदी हो, अंग्रेजों के काल की हो या आज़ादी के बाद की हो। भारत का संघीय ढांचा, उसके अंदर समाहित राज्य, उसके भी अंदर समाहित स्थानीय निकाय सरकार तृतीय स्तर कर प्रणाली भारत मे लागू रहती, और ऐसा भी नहीं है की इन तृतीय स्तर कर प्रणाली मे सिर्फ तीन तरह के कर और उसकी तीन तरह की कर औपचारिकताएँ हो, कम से कम एक नागरिक के ऊपर शासन करने वाली ये तीनों सरकारें कम कम से 10 तरीकों से नागरिकों को “एसेसी इन डिफ़ाल्ट” बनाती हैं। त्रिस्तरीय कर व्यवस्था के तहत, केन्द्रीय सरकार का प्रत्यक्ष कर के रूप मे यदि आपने अग्रिम कर नहीं भरा तब, अग्रिम कर छूट गया तो सेल्फ अससेसमेंट कर नहीं भरा तब, आय तो आय खर्चे पे यदि टीडीएस नहीं भरा तब, उसपे तीर का तुक्का, आय का और टीडीएस का रिटर्न नहीं भरा तब। इन करों के अलावा संघीय सरकार आयात कर , निर्यात कर , उत्पाद शुल्क, सेवा कर, अतिरिक्त कर, एडुकेशन सेस जैसे अन्य टैक्स लेती है जिसके भुगतान और रिटर्न ना भरने की मामूली गलती के लिए भी करदाता को प्रॉसिक्यूशन की नोटिस आ जाती है। राज्य सरकारों के कर के रूप मे जहां वैट और एलबीटी हैं वहीं राज्य उत्पाद शुल्क अलग से है, तीर का तुक्का ऊपर से अगर महाराष्ट्र मे आपने एक महीने का वैट का रिटर्न नहीं भरा तो महाराष्ट्र वैट विभाग आपको पुलिस प्रॉसिक्यूशन नोटिस भेज देगा, अब जरा सोचिए की भारत मे कर तंत्र ऐसा है तो कर सुधार की बातें कहीं जुमला ना साबित हो जाए। 
भारत मे जहां 100% साक्षरता और बिजली नहीं है वहाँ सभी करदातावों को इंटरनेट के द्वारा ऑनलाइन रिटर्न अनिवार्य कर देना कहाँ का कर सुधार है, सरकार ने तो अपनी सुविधा देखी लेकिन कभी इस ओर ध्यान दिया की जिस करदाता को वह “एसेसी इन डिफ़ाल्ट” बना रही है, क्या उसके पास कम्प्युटर है, अगर कम्प्युटर है तो क्या उसके पास नेट लगाने की सुविधा है, अगर सुविधा है तो क्या वहाँ बिजली है जो की ऑनलाइन सबमिट करने के लिए अनिवार्य है। लाज़मी है की सरकार की कर नीतियाँ व्यावहारिक नहीं तो कर सुधार कहाँ से होगा। सरकार की अधिक से अधिक नीतियाँ एसी कमरों मे बैठ के बनाई जा रही भारत के ग्रामीण कर तंत्र और शहरी कर तंत्र का कोई अध्ययन ही नहीं कर रहा है।
भारत मे जीएसटी को लेकर एक तरह की पोजिटिविटी तो नजर आती है, लेकिन इसके जड़ों मे जाएँ तो यह एक नयी तरह की असमानता को लेकर आ रही है। भारत का कर सूचना तंत्र अभी तक ऐसा विकसित ही नहीं हुआ है जो की जीएसटी को न्यायसंगत बना दे। जीएसटी गैर संघीय देश या समान आर्थिक अवस्था वाले संघीय देश के ठीक है लेकिन भारत जैसे सामाजिक सांस्कृतिक और आर्थिक विभिन्नता वाले देश के लिए बिना कर सूचना तंत्र विकसित किए लागू करना बेमानी और अन्यायकारी होगा। क्या आपको पता है जो लक्स का साबुन आप यूपी के सुदूर निचलौल कस्बे या कन्याकुमारी मे 20 रुपये मे खरीदते हैं उसकी 20 रुपये के मूल्य मे निचलौल या कन्याकुमारी का नागरिक कस्टम, उत्पाद शुल्क, सीएसटी और अन्य उत्पादन पे लगने वाले कारों को भी चुकाता है। स्थानीय राज्य यूपी या केरल के करों को छोड़ दें तो अनुमानतः उस लक्स की 20 रुपये की खरीद मे केन्द्रीय सरकार और महाराष्ट्र सरकार को दिये जाने वाले कर का 6 रुपये भी वही स्थानीय करदाता चुकाता है। मतलब यह 6 रुपया वसूला तो गया केरल एवं यूपी राज्य से लेकिन हिस्से किसके आता है महाराष्ट्र के और केन्द्रीय सरकार और महाराष्ट्र सरकार इस 6 रुपये को आपस मे बाँटती हैं ना की यूपी एवं केरला की सरकार, अब जरा सोचिए जीएसटी आने के बाद तो सारा कर वसूली राज्य तो उत्पादन सशक्त राज्य होंगे कृषि आधारित या उपभोक्ता सम्पन्न राज्य तो मारे जाएंगे क्यूँ की अब तो वैट भी उसी बिन्दु पे लग जाएगा। बस अब आप कल्पना कर लीजिये की जिस देश मे उत्पाद कर देता है किसी और प्रदेश का नागरिक और कर तंत्र गणना करता है किसी और प्रदेश के हिस्से की वहाँ कर सुधार कितना कर पाएंगे।
कर सुधार की असल चुनौती कर नीतियां ही नहीं है, कर के डाटा और सूचना तंत्र हैं, इन त्रिस्तरीय सरकारी व्यवस्था मे आज तक यह तंत्र ही विकसित नहीं हो पाया है की उस स्थान विशेष के नागरिक हर तरह के कर को मिला के जो प्रत्यक्ष या खर्च के रूप मे देते हैं वह कितना देते हैं। आज के कर तंत्र मे आज एक ग्राम सभा, नगर पंचायत या महानगर हो उसके नागरिकों द्वारा दिये गए आय कर , उत्पाद कर, बिक्री कर, कस्टम कर और अन्य करों की गणना ही नहीं पता है वह वित्तीय स्वतन्त्रता और वित्तीय पारदर्शिता की बात कैसे उठाएगी। सही मायनों मे भारत मे कर सुधार तभी हो पाएगा जब सरकारें कर नीतियों के पहले चरण मे जनोन्मुखी व्यावहारिक कर तंत्र बनाएँ।
अब आते हैं कर सुधार और नीतियों की सम्मिलित चुनौतियों पे। मूलतः यह भारत मे लागू कुछ ऐसे कर कानून और प्रणाली है जो विनियोजक को हमेशा कष्ट देती है। इसमे मुख्य रूप से शामिल है हर वित्त मंत्री का आपना निजी व्यक्तित्व जिसकी छाप बजट पे पड़ती है, रेस्ट्रोपेक्टिव तारीख से कर मे बदलाव, कंपनियों मे कर देने के बाद भी डीडीटी देना अगर लाभ निकालना चाहते हैं, जटिल मैट प्रणाली और एक ही जमीन अगर चार हाथों में बिकती है तो जमीन तो वहीं जस की तस पड़ी रहती है लेकिन सरकारें स्टैम्प एवं पूंजी लाभ के रूप मे भूमि के मूल्य से ज्यादे कर वसूल लेती हैं।
अभी भारतीय व्यवसायियों को जो ज्यादे परेशान करता है वह 50C एवं ऐसे कर क़ानूनों से है जहां आपका सौदा भले ही कम हुआ हो लेकिन सरकार आपकी बाजार मूल्य ही मानेगी जब बिक्री मूल्य गणना करना होगा तब और जब उसी जमीन का खरीददार उसे बेचने जाएगा तो उसकी लागत मूल्य उसका भुगतान किया मूल्य ही मानेगी। उदाहरण के तौर पे पैसों की जरूरत होने पे A ने अपनी जमीन B को बेचा , जिसका की सर्कल मूल्य 200 रुपया था और A उसे मजबूरी मे B को 100 रुपया मे बेच रहा है। तो ऐसे मे देश का कर तंत्र काले धन के डंडे के चक्कर मे उससे बोलेगा की भाई भले ही तुमने 100 रुपये मे बेचा है मैं तो तुमसे कर 200 की बिक्री मूल्य पे ही लूँगा, लेकिन वहीं दूसरी तरफ बी उसे बेचने सी को जाएगा तो C से कहेगा की भाई मैं तो इसकी खरीदी 100 रुपये ही मानूँगा भले ही मैंने इस जमीन पे कर A से 200 रुपये पे लिया हो। अब आप बताइये उस देश मे कर सुधार कहाँ होगा जहां एक ही सौदे मे कर विभाग अपने फायदे के हिसाब से एक ही चीज को दो दृष्टि से देखता है।
इसके साथ ही भारत मे कर विवाद की न्यायिक प्रणाली भी बहुत समय लेनी वाली है मामले का आईटीएटी मे फैसला आने तक 7-8 साल लग जाता है उसके बाद हाइ कोर्ट और सूप्रीम कोर्ट मे तो ऐसे ही लाखों लंबित केस हैं। और जहां कर बाकी है वहाँ तो पहले कर भरो फिर आप अपील करो एक ऐसी व्यवस्था है।
विदेशी निवेशकों के लिए तो भारत की त्रिस्तरीय कर प्रणाली वैसे ही अबूझ पहेली है। एक तो उन्हे यहाँ तीन तीन सरकारों को टैक्स देना पड़ता है तो एक ही किए जाने वाले कार्य का विभिन्न राज्य विभिन्न विभिन्न कर श्रेणियों मे रखते हैं। उदाहरण के तौर पे कोरिया की एक बड़ी स्टील कंपनी ने महाराष्ट्र मे अपना एक बड़ा प्लांट लगाया और उसका ठेका एक अपनी ही कोरियन कंपनी को दिया। यह कोरियन कंपनी भारत भारत के विभिन्न हिस्सों मे निर्माण कार्य करती है। महाराष्ट्र को छोड़ के भारत के हर राज्य मे सिविल वर्क को वर्क कांट्रैक्ट कर के तहत कोम्पोजीसन न्यूनतम टैक्स की सुविधा मिली हुई हैं, जबकि महाराष्ट्र मे सिर्फ बिल्डिंग पर ही वर्क कांट्रैक्ट कर के तहत कोम्पोजीसन न्यूनतम टैक्स की सुविधा मिली हुई है, उसने अन्य राज्यों के हिसाब से परिभाषा को समझा और 5% के हिसाब से टैक्स भर दिया बाद मे महाराष्ट्र के कर अधिकारी कंपनी को परेशान करने लगे की यह कोम्पोजीसन न्यूनतम टैक्स मे आएगा ही नहीं आप कम कर दर लगाने के दोषी हैं और कंपनी पर 76 करोड़ का कर नोटिस भेज दिया और साथ मे तुक्का यह की फैक्ट्री बिल्डिंग को बिल्डिंग नहीं माना जाएगा, अब बताइये वह विदेशी कोरियाई कंपनी जिसने अपना पहला वर्ष ही नहीं पूरा किया था उत्पादन के उसे हमारे कर तंत्र ने 76 करोड़ का झटका दे दिया और वह भी उसकी गलत फहमी के कारण। ऐसे विवादों से बचने के लिए विदेशी निवेशकों को सरकार की तरफ से ही एक कर सलाह केंद्र की सुविधा देनी चाहिए ताकि यहाँ के कर के इंटरप्रिटेश्न के कारण तो कम से कम उन्हे जुर्माना ना भरना पड़े साथ ही साथ सरकार द्वारा लिए गए राय पे उन्हे कोई दोषी भी नहीं ठहरा पाएगा। अभी जो एडवांस रूलिंग हर विभाग की है उसे केंद्रीयकृत करते हुए सिंगल विंडो सिस्टम के तहत केंद्रीय कर सलाह केंद्र के ररूप मे बदल देना चाहिए ताकि देशी विदेशी निवेशकों को अनावश्यक विवादों से बचाया जा सके।
इन सब बातों के अलावा श्रम कर क़ानूनों को भी न्यायसंगत बनाए जाने की दरकार है, आज के श्रम कानून जन, उद्योग और सरकार तीनों की दृष्टि से अव्यवहारिक है, एक उदाहरण के रूप मे लगभग हर राज्यों के श्रम कानून के तहत एक श्रमिक एक क्वार्टर मे अधिकतम 50 घंटे ही ओवरटाइम कर सकता है जबकि हकीकत मे वह हर महीने 50 घंटे साधारणतया ओवरटाइम करता है  अब इसका पालन करना दोनों के लिए मुश्किल है, श्रमिक ज्यादे कमाने के लिए ज्यादे घंटे काम करना चाहता है और अगर कर लिया तो श्रम विभाग कंपनी को परेशान करता है, तो बताइये कैसे कानून लागू होंगे। देश के श्रम कानूनों की अव्यावहारिकता और बदलते वक़्त के साथ कदमताल ना करने के कारण देश का एक बड़ा तबका मजदूर अब ठेके का मजदूर बनकर रह गया है, जटिल श्रम कानून के कारण अब कंपनियाँ उन्हे अपने पे रोल पे लेती ही नहीं हैं।
जरूरत है ऐसे कर सुधारों की जो की तंत्र मे पड़ रही जंग और पल रही जटिलतावों का अध्ययन कर कानून बनाए ना की कम्प्युटर के एक्सेल शीट पे।
लेखक
सीए पंकज जायसवाल
+91-9819680011

pankaj@anpllp.com

Comments