अर्थ द्वंद और वर्ग संघर्ष दो भिन्न चीजे हैं : सभ्यता के विकास के साथ ही अर्थ द्वंद का भी जन्म हुआ

अर्थ द्वंद और वर्ग संघर्ष दो भिन्न चीजे हैं : सभ्यता के विकास के साथ ही अर्थ द्वंद का भी जन्म हुआ

वामपंथी अर्थ शास्त्र के सिद्धान्त समाज को दो वर्गो के नजरिए से देखते हैं एक जो अमीर है और दूसरा जो गरीब है और उनके सिद्धान्त का लब्बोलुवाब यही है कि समाज मे समानता लाने के लिए वर्ग संघर्ष ही एक रास्ता है जिससे समानता लायी जा सकती है और यह सतत चलने वाली प्रक्रिया है । जबकि अर्थ द्वंद इससे उलट बात करता है, वह कहता है कि संसाधनो के वर्ग संघर्ष से समानता लायी जा सकती है ना कि मनुष्यो के वर्ग संघर्ष से ।
उसका मत है कि अगर कोई धनी है जिसे आप संसाधनों का संग्रहक भी कह सकते हैं, उसे यह संग्रहण आसमान से टपका के नहीं दिया गया है। या तो उसने यह संग्रहण खुद से किया है या उसके पूर्वजों ने कर के दिया है। अब निर्भर यह करता है कि वह कैसा संग्रहक है।

मेरा ऐसा मानना है कि सभ्यता के विकास के साथ ही अर्थ द्वंद का भी जन्म हुआ। मानव जाति ने विनिमय की शुरुवात के साथ ही मूल्यरूपन की प्रक्रिया को जन्म दिया और मूल्यरूपन ने अर्थशास्त्र को गति देकर अर्थ द्वंद की भी शुरुवात की। यह सत्य है की की अगर किसी कारक का किसी के सापेक्ष किसी समय बिन्दु पर कोई मूल्य नहीं है तो उस समय बिन्दु पे अर्थ शास्त्र का भौतिक रूप से  कोई जगह नहीं है, लेकिन यह परिस्थिति अर्थ शास्त्र की संभावना को समाप्त नहीं करती है, क्यूँ की यह एक समय बिन्दु की परिस्थिति है। समय के लंबे आयाम पे स्तैथिक कारक के सापेक्ष जब आवश्यकता का जन्म होता है तो उस निर्मूल्य स्तैथिक कारक का भी मूल्यरूपन जन्म लेता है और सापेक्षता की महत्ता की तुलना मे वह मूल्यवान होता चला जाता है। इस प्रकार वह संसाधन खुद ही अपने मूल्य को लेके संघर्ष करता रहता है किसी समय बिन्दु पे वह कीमती रहता है और किसी समय बिन्दु पे वह कूड़ा हो जाता है जैसे आजकल कैमरा की रील या पुराने जमाने के टेप रिकॉर्डर के कैसेट। समाज का वह तबका जो इस मूल्य संघर्ष को प्रभावित करता है जैसे तकनीक का धारक या नित नए तकनीक को सोचने वाला अंत मे वही अर्थ द्वंद मे विजयी होता है या जो इस तकनीक को पहचानता है और इसे खरीद रखने कि परिस्थिति मे होता है।

अर्थ शास्त्र किसी भी कारक को मूल्य शून्य नहीं घोषित करता है, उसका मानना है की सापेक्षता की शून्यता ही समय बिन्दु पे अर्थ शास्त्र कि शून्यता है और सापेक्षता की मूल्यता ही उसे समय बिन्दु पे मूल्यवान घोषित करती है। भिन्न भिन्न बिन्दुवों पे मूल्यों का यह संघर्ष ही अर्थ द्वंद है।

मानव जाति के विकास के समय समस्त प्रकार के संसाधन शुशुप्तावस्था अवस्था मे बिना किसी मालिकाना अधिकार के शृष्टि मे बिखरे पड़े थे, जितने गतिमान हो गए वह हो गए और कितने आज भी हैं जो पृथ्वी पे और साथ मे ब्रहमाण्ड पे भी कई जगह बिखरे पड़े हैं। सभ्यता के विकास के क्रम मे विनिमय प्रणाली ने सापेक्षता के नियम का पालन करते हुए इन संसाधनो का मूल्यरूपन प्रारम्भ किया और कालांतर मे मूल्यरूपण के लिए मुद्रा का आविष्कार हुआ और और मानवजाति ने फिर इस मुद्रा का संग्रहण शुरू किया जिससे कि वह और उसकी पीढ़ी वर्तमान मे और भविष्य मे ज्यादे विनिमय करने के अवस्था मे आ सके। संसाधन प्रारम्भ मे स्थैतिक ही होते हैं और आवश्यकता के विकास की तुलना मे वो गतिमान होते जाते हैं। फिर भी संसाधनो को गतिमान रूप पे हम दो वर्गो मे बाँट देते हैं एक जो की मौलिक रूप मे है और दूसरा जो परिवर्तित रूप मे है। परिवर्तित रूप को हम मोटे रूप मे उत्पाद के रूप मे जानते हैं। मौलिक रूप वह रूप ही है जैसा कि प्रकृति ने दिया है और परिवर्तित रूप वह रूप वह रूप है जिसे हम उत्पादन कि प्रक्रियावों के द्वारा निकालते हैं।

अर्थ द्वंद कि प्रक्रिया मे मनुष्य मुद्रा, मौलिक गतिशील संसाधन और परिवर्तित गतिशील संसाधन      ( उत्पाद ) का अधिकाधिक संग्रहण करता जाता है।और एक वर्ग इससे वंचित होता जाता है।इस संग्रहण रूपी अर्थ द्वंद कि प्रक्रिया मे अगर व्यक्ति मुद्रा का संग्रहण करता चला जाता है तो यह समाज के लिए बड़ी ही घातक स्थिति हो जाती है क्यूँ कि वह न सिर्फ मुद्रा का संग्रहण कर रहा है बल्कि उसकी चक्रीय चलन कि संभावनावों को भी समाप्त कर रहा है, जिसके साथ यह मुद्रा कालांतर मे उसके लिए शून्य भी होती चली जाती है क्यूँ कि समाज के द्वारा बनाई गयी व्यवस्था मे वह बहुत तीव्र ह्रास वाला और परिवर्तनशील होती है और वह संग्रहक स्वतः ही चक्रीय रूप से फिर अपने निचले तबके के बराबर आ जाता है अगर उसने कोई उत्पादन के साधनों मे निवेश नहीं किया है यह निवेश चाहे तो चाहे प्रत्यक्ष रूप मे या विनियोग के रूप मे। इस तरह के अर्थ द्वंद मे ना तो उसको फायदा है जो संग्रहण करता है और उसका फायदा तो है ही नहीं जो संग्रहण से वंचित रह जाता है, लेकिन संग्रहक धीरे धीरे अपने नीचे वाले के बराबर आता चला जाता है। ऐसे बहुत से पुराने रईस आपको मिल जाएंगे जो उत्पादन बाजार कि मुद्रागति कि अपेक्षा मुद्रावों को या तो तिजोरी मे या फ़िक्स्ड डिपॉज़िट मे रखे थे और कालांतर मे रुपये के एनपीवी के कारण उनका वैल्थ कम होता चला गया।

अर्थ द्वंद के दूसरे प्रकार मे संग्रहक संसाधनों को मूल रूप मे कब्जा करते चला जाता है, यह भी अर्थ शास्त्र के लिहाज से घातक स्थिति है क्यूँ कि वह उस संसाधनो के सम्पूर्ण महत्तम मूल्य पे भी कब्जा करता चला जाता है, और इस व्यवस्था मे भी संग्रहण से वंचित वर्ग को बड़ा नुकसान होता है। इस प्रक्रिया मे जब तक वह इन्हे उत्पादन कि प्रक्रियावों मे नहीं डालता है, उसका वैल्थ कागजी ही रहता है। उसके मूल्य वसूली के चरण मे जैसे ही यह उत्पादन कि प्रक्रियावों मे प्रवेश करता है। उत्पादन कि प्रक्रियावों के द्वारा ही बहुत सी मुद्रावों को वह समाज के दूसरे पक्ष कि तरफ हस्तांतरित करता हुआ जाता है।   

तीसरा अर्थ द्वंद होता है जब संग्रहक उत्पादन कि प्रक्रियावों के द्वारा अधिक से अधिक उत्पादन कर फिर इसके शुद्ध लाभ के द्वारा संग्रहण शुरू करता है, और पुनः इसे उत्पादन कि प्रक्रियावों मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे निवेशित करता है। इस तरह का अर्थ द्वंद अच्छा होता है, क्यूँ कि उत्पादन कि प्रक्रियावों के द्वारा ही बहुत सी मुद्रावों को वह समाज के दूसरे पक्ष कि तरफ हस्तांतरित करता हुआ जाता है, हालांकि इसके लिए श्रमिक के भी भाग को लाभांश का हिस्सेदार बनाना चाहिए।

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