लेनिन, मार्क्स और माओ के विचारधारा से भी आगे जा के साम्यता का नया सूत्र खोजा जा सकता है।

लेनिन, मार्क्स और माओ के विचारधारा से भी आगे जा के साम्यता का नया सूत्र खोजा जा सकता है।
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चरमपंथ को अगर वामपंथ से निकाल दे तो सामाजिक विकास के लिए यह एक अच्छी विचारधारा है। आमतौर पे लाल रंग को वामपंथ से जोड़ा जाता है, और इसके बारे मे ऐसी धारणा भी है की यह लोकशाही के बनिस्पत तानाशाही की तरफ ज्यादे झुका हुआ है, या इसे सीधे शब्दों मे कहे लोकशाही मे इसे उतना विश्वास नहीं है। अभी अभी पाकिस्तानी लाल बैंड को देखा एनडीटीवी पे जिसने इस भ्रम को तोड़ा की लाल रंग लोकशाही की वकालत नहीं कर सकता। हालांकि वामपंथ भारत मे भारतीय संस्करण मे ही परिपक्व हुयी है, “चरमपंथ वामपंथ” जिसे नक्सलवाद या माओवाद कहते हैं भारत की स्वीकृति नहीं प्राप्त कर सका है। भारतीय वामपंथ फ़्रांस, रूस,और चाइना के वामपंथ से आधुनिक है, ये भारत मे चुनाव लड़ता है, शासन करता है और विपक्ष मे भी बैठता है।

मेरी समझ मे जो वामपंथ आता है वह यही है की जो विचारधारा शोषितों और वंचितों की बात करती है वही वामपंथी है। वामपंथ से ताल्लुक रखने वाले मार्क्स, लेनिन ने, माओ ने समय समय पे साम्यता लाने के लिए अपने विकल्प दिये जरूरी नहीं की गणतीय दृष्टि से सही लगने वाली बात हर देश हर काल मे सही हो जैसे हिन्दू धर्म के कुछ कर्मकांड की मूल विचारधारा कालांतर मे मूलता को खो चुकी है, हो सकता है वामपंथ का प्रचलित स्वरूप भी धीरे धीरे कर्मकांडी हो रहा हो। परंपरा के नाम पर बहुतेरे विरोध चले आ रहे हों किसी एक खास समुदाय के प्रति। क्या ये हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है की समय के साथ वामपंथ के नाम पर वामपंथ मे घुस आई इस परंपरा को खत्म किया जाए ताकि वामपंथ अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सके। ये सिर्फ और सिर्फ शोषितों और वंचितों को बराबरी का हक़ दिलाये बनिस्पत किसी धर्म विशेष के खिलाफ लगातार परंपरावादी बयान देके। जरूरत है वामपंथ के मूल विचारधारा पे लौटने की जो समाज के आर्थिक साम्यता की बात करता है। शोषितों और वंचितों के हक़ की बात करता है, इसमे शोध की गुंजाईश है परंपरावादी न बनते हुवे लेनिन, मार्क्स और माओ के विचारधारा से भी आगे जा के साम्यता का नया सूत्र खोजा जा सकता है। 

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